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मीरां तू न गई मेरे मन से

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(मीरा पर लिखा हुआ यह स्मरण कथा मई 2012 में छपा है)

 मीरांबाई  को हुए पाँच शताब्दी से अधिक समय बीत गया पर मीरांबाई  को पढ़ने की, पढ़े जाने की कोशिशें तेज से तेज होती गईं। नितान्त धार्मिक परकोटे को तोड़कर मीरां का होना सामाजिक और राजनीतिक चिन्तन वृत्तों में फैलता गया, यह सुखद भी है और उदाहरणीय विषय भी कि मध्ययुग में भी स्त्री ने अपनी भूमिका को चुनौती की तरह स्वीकार कर इतिहास के दर्दनाक हर्फों में निशानदेही को गूंथ छोड़ा। वर्तमान चुनौतियों में मीरां का बार बार याद आना या याद में बने रहना यूँ ही नहीं है। मैंने मीरां पर सात-आठ साल पहले स्त्री की नजर से सोचा था तब भी तमाम तरह की आस्थायें मन पर हावी थी उनका असर था लेकिन अब उनसे और एक बार थोड़ा सा मुक्त होकर मीरां के बारे में कुछ कहने की कोशिश इस लेख में है। यह वस्तुतः मीरां के पदों की व्याख्या-(अ)व्याख्या का ही एक अंश हैं।

हिन्दी में कविता की व्याख्या का एक अकादमिक ढ़ाँचा प्रचलित है जो अर्थ और रूप की विशेषताओं के खिचड़ी ढ़ाँचे से मिलाकर तैयार किया गया नितान्त ऊबाऊ अधिक रहता है अथवा प्रगतिशीलता के झोंक में कुछ सामाजिक राजनीतिक मतवादों के आरोपण के जरिये परम्परा की खोज (क्रान्ति की परम्परा) का अभियान इसे रचने लगता है। पर मीरा की कविता या किसी भी कविता की व्याख्या के ऐसे अभियान अधिक कारगर नहीं कहे जा सकते क्योंकि अभी तक इन व्याख्याओं के पढ़ने सुनने वाले एक बड़े समूह में साहित्य के सामान्य आस्वाद की प्रवृत्तियाँ विकसित करने में भी सफलता नहीं मिली है। आस्वाद की सहज, सुगम प्रवृत्तियों के विकास की आरम्भिक शर्त है कि साहित्य को तमाम आग्रहों से परे जीवन से जोड़कर जीवन के तरीके से देखा जाय। मीरां पर अकादमिक तरीके से बात किये जाने के नतीजे हम देख चुके हैं कि उसका स्त्रीत्व निरादृत होकर भक्ति में घुटकर रह जाता है। भक्ति का पूरा अभियान भी कहीं न कहीं ऐसे आग्रहों का शिकार है जो जीवन से विमुख करके जरूरी पहलुओं का गला घोंट देता है। इसलिए मीरां का उससे अलग पढ़ा जाना मीरां को मीरां के रूप में पढ़ा जाना जीवन की खोज का ही एक अभियान है, शायद यह साहित्य के लिए सबसे जरूरी भी कहा जाना चाहिए। तमाम तरह की उलझाव भरी भूलभुलैया जैसी या मुहावरे में जलेबी झानने जैसी व्याख्यायें ऊब का कारण बनती हैं और आस्वाद प्रक्रिया के सामान्य चरणों को भी पूरा नहीं होने देतीं। भक्ति के बारे में एक बात और – भक्ति के लिए भक्ति एक आदर्श वचन है, हर भक्ति के लिए कुछ दूसरे आग्रह उत्तरदायी बनकर व्यावाहारिक रूप तैयार करते हैं। मीरां के यहां भक्ति कहीं भी भक्ति के लिए कदाचित नहीं है, किसी विवशता से मुक्त होने की पुकार भक्ति का आश्रय भर ले रही है। मीरां की कविता में “भक्ति” के नियम कायदों का कहीं भी निर्वाह नहीं मिलता।

राधा कृष्ण की भव्य मूर्तियाँ। भक्ति का भव्य प्रदर्शन। पर कई बड़े मन्दिरों से लेकर धार्मिक सम्मिलनों तक में कोई मीरा पाँच सौ साल में आधी अधूरी भी नहीं जनम पाई- न चौबारों में, न मन्दिरों में, न सीढ़ियों पर। इन लीला भूमियों में ऐसी बन्जरता। कहते हैं कि मीरां का अभिशाप है। मरते मरते जरूर उसकी आत्मा में कोई टीस रही होगी कि ‘इन कठकरेजियों ने मेरे जीते जी तो मेरी फजीहत की सो ठीक पर मरते मरते भी भक्ति में धकेल दिया। मेरे पदों को भजन कहकर गाते हैं और मेरे प्रेम को भक्ति बताते हैं।’ काश ऐसा कोई वक्तव्य मिल जाता तो कितने ही शोध ग्रन्थों की आधार शिला बन जाता। लब्बोलुबाब यह कि भक्ति का कोई मीरां और न पैदा कर पाना एक गम्भीर तथ्य है जो भक्ति की सीमा बताता है। मीरां की कविता की एक सामान्य भावभूमि है प्रेम- spirit के आधार पर किया गया प्रेम, पर इसमें spirituality के सिद्धान्त बनाने में समस्या है। इसमें कोई अधिभौतिकता नहीं है अधिभौतिकता के आग्रहों का कारण अलग है। मीरां का प्रेम बार-बार दासी का रूपक रचता है। बार-बार कृष्ण की दासी बनने या होने की क्या जरूरत हैॽक्या कृष्ण के साथ दासियों के प्रेम का कोई आख्यान कहीं हैॽ दास्य भक्ति की कृष्ण भक्ति में कोई अच्छी स्थिति नहीं है, वहां तो सख्य भाव शिरोमणि है। जो भी हो प्रेम का जो प्रतिरूप कृष्ण भक्ति ने तैयार किया उसमें दासत्व एक बड़ी बाधा है, पर फिर भी मीरां की spirit में यह दासी बनना समा गया है। यह दासी भाव प्रेम करने की शर्त है, इससे अलग रूप में वहाँ प्रेम नहीं मिलता। मध्ययुग में दासी के प्रेम की एक कहानी अनारकली की है, शहजादे सलीम को क्यों किसी राजकुमारी में वह योग्यता नहीं दिखायी देती जो दासी अनारकली में है। दास होने का मुहावरे में एक अर्थ है- अमुक बात पर हम तुम्हारे दास हो गये या गुलाम हो गये। यह अपने सर्वस्व का प्रतिदान करने का agreement है। कदाचित राजकुमारी या  रानी के साथ तमाम तरह की मर्यादायें, वर्जनायें, सुविधाएं और अहं के ढ़ाँचे के प्रारूप इस तरह जुड़े रहते हैं कि वह इस तरह का agreement नहीं कर सकती। वे प्रेम के उस स्वरूप को स्पेस नहीं देती जिसे मीरां ने प्रेम माना और कहा ।

(1)        अखयाँ तरशा दरसण प्यासी

मग जोवाँ दिण बीताँ सजणी णैण पड्या दुखरासी

डारा बैठ्या कोयला बोल्या, बोल सुणाया री गासी

कड़वा बोल लोक जग बोल्या, करस्याँ म्हारी हाँसी

मीराँ हरि के हाथ विकाणी, जणम जणम री दासी।।

आँखें ‘दर्शन’ की प्यासी हैं, दिन रात रास्ता देखने से आँखों में दुख इकट्ठा हो गया है। डार पर बैठी कोयल की आवाज (प्रेम की चर्चा का आभास भर) सुनने भर से गले में फाँसी दिये जाने का अहसास होता है। जग कड़वा बोलता है, मेरी हँसी उड़ाता है। मीराँ हरि के हाथ बिक कर जनम जनम के लिए दासी बनी हुई है। भक्ति के इस पूरे आख्यान में भक्त के लिए तब तक कोई स्पेस नहीं है जब तक कि दासी पर भक्त का आरोपण न कर दिया जाय, प्रेम को दास्य भक्ति न कह दिया जाय और जीवन पर मतवाद हावी न हो जाय। दासी के जीवन में कड़वे बोल सहना, बिकना, जरा सी चुगली लगने पर फाँसी दे दिया जाना जीवन के व्यापार हैं और इस जीवन के मध्ययुगीन प्रारूप की यह बिडम्बना है कि यही प्रेम की आश्रय बनने को बाध्य है। इस बाध्यता ने दासी जीवन के इतिहास में केवल अनारकली को जरा सा जगह दी बाकी सब को तो पता नहीं कहा दफना दिया। इस बाध्यता में प्रेम के पलड़े में कोई बराबरी नहीं है, बराबरी का प्रेम तब होता जब राजकुमारी से प्रेम होता- सत्ता, शक्ति और वर्चस्व के सरोकार बराबरी  पर हिचकोले खाते कभी इधर तो कभी उधर। बीसलदेव रासो की राजमती में यह क्षमता है कि वह वीसलदेव को यह जबाव दे सके कि ‘ गरब म करि हो सइंभरि वाल। तो सारिषा अवर घणा रे भुआल।।’  फिर भले ही वीसलदेव उलगांड़ा होकर छोड़कर क्यों न चला जाय। दासी का प्रेम पुरुष की इस ग्रन्थि को सहलाने का, तुष्ट करने सबसे आसान साधन है।

मीरां की दासता वास्तविक दासता नहीं है, यह निर्णय इस बात का मोहताज है कि मीरां का आख्यान राज महल के मजबूत दीवारों के भीतर जन्मा। मीरां की कविता कहती है कि उसके साथ होने वाले व्यवहार में और दासी के साथ होने वाले व्यवहार में गहरी साम्यता है। इस बात में कोई गुन्जाइश नहीं कि मीरा प्रेम की गहन अनुभूति में जीवन जीती है, प्रेम उसके लिए मनोविनोद नहीं है। यहीं यह बात उन संकेतों को छोड़ती है जहाँ स्त्री के लिए दासी होकर ही प्रेम सम्भव है भले ही उसमें इस बात के खतरे क्यों न हों कि या तो मनोविनोदक उसे मनोविनोद के खाते में खींचकर विप्रलम्भ श्रंगार कह लें या तो भक्ति को ताबेदार उसे दास्य भक्ति में निपटा डालें। मध्ययुगीन राजसत्ता के आख्यान के दासी प्रकरण की एक बड़ी वास्तविकता के रूप में इस बात को रेखांकित किया गया कि उस दौर में दासी पूँजीनिवेश का पसंदीदा क्षेत्र है। दासियों का कुशलतम बेड़ा अच्छा खासा आर्थिक लाभ देता है पर उस बेड़े में राजसत्ता की चूलें हिलाने का कौशल, साहस और क्षमता हो। इस माइने में विद्रोह की छोटी सी चिन्गारी के लिए दासी का जीवन एक रोल मॉडल बन सकता है और राजकुमारी दासी बनने की कल्पना में राजसत्ता से विरोध के अहसास की तुष्टता पा सकती है।[1] मीरा के लिए  राज्य से विरोध का सवाल विद्रोह के रूप में भले ही न हो पर राजसत्ता के दमन की कसक उसे विरोध के समीकरण में ले जाती है और दासी उसके चरित्र में सन्दर्भ बन जाती है। यही सन्दर्भ प्रेम और विरोध की धार के रूप में उनकी कविता का विषय बन जाता है। मीरां मध्यकाल की अकेली स्त्री है जो राजसत्ता से विरोध को प्रकट करने के लिए दासी की क्षमता से ताकत पाती हैं और प्रेम के ही क्षेत्र में सही खुले तौर पर स्वयं को दासी की जगह ले जाती है। इस दासीत्व में वे सभी दुख भी शामिल हैं जो दासी जीवन के लिए थे।

(2)         तनक हरि चितवाँ म्हारी ओर।

हम चितवाँ थें चितवो णा हरि, हिबड़ों बड़ो कठोर।

म्हारी आसा चितवणि थारी, ओर णा दूजो ठौर।

ऊभ्याँ ठाड़ी अरज करूँ छूं करता करता भोर।

मीराँ रे प्रभु हरि अविनासी देस्यूं प्राण अँकोर।।

हाय पुरुष हया का ऐसा दृश्य कहाँ से ढ़ूढ़ लायी मीरा। दूल्हा चारपाई पर बैठा हुआ है, रस्मो रिवाज का दौर तारी है। मारे हया के आँखें उठाकर किसी की तरफ देखने का साहस उस दूल्हे में नहीं है और कोई छोटी नटखट बालिका का अदम्य साहस उसे टटोलने लगता है- ए दूल्हा थोड़ा सा हमारी तरफ भी देखो न। दूल्हा है कि और ज्यादा शरम के मारे जमीन में गढ़ जाता है। कहाँ से आया होगा उस लड़की में यह साहस और कहां चली गई होगी उस शूरमा की शूरता। यह एक गम्भीर सवाल है, मजाक का विषय नहीं। मीरा उस छोटी लड़की का हस्तान्तरण तो नहीं बनती पर उसमें वही साहस फला फूला है जो नहीं मानता दैन्य, नहीं रख पाता चुपचाप देखते रहने का धैर्य। वह प्रत्याशा रखता है कि उसका हरि उसे भी देखे। उसकी अधीरता में वही निश्छलता है जो लड़की के व्यवहार में मजाक का माहौल रच डालती है और मीरा के व्यापार में भक्ति। प्रेम भी निश्छल है, देह भी। देह का छल सत्ता की देन है, चाहे वह किसी भी किस्म की सत्ता क्यों न हो। मीरा इस माइने में देह की निश्छलता को बचाकर सत्ता से प्रतिवाद करती है। एक स्त्री कथन के रूप में ‘थोड़ा सा हमारी तरफ देखो- देह की तरफ, दशा की तरफ या भाव की तरफ। हरि का हिय बहुत कठोर है कि स्त्री लगातार स्नेह से देख रही है पर हरि ऐसा करने से प्रतिरोध करता है, प्रतिकार करता है (णा- प्रतिकार वाचक है)- जानबूझकर अथवा मजबूरी होगी कोई- पर स्त्री के प्रति यह व्यवहार दर्दनाक इस माइने में है कि इससे वह स्त्री निर्लज्ज ठहरने लगती है और बेहया, बेशर्म होने के दाग उसके दामन पर चिपकने लगते हैं। स्त्री की “आशा” और “मजबूरी” दोनों ही उस चितवन पर निर्भर हैं। क्या अधिकार है किसी को किसी की आशायें चूर चूर करने का। एक चितवन के लिए रात रात भर खड़े रहकर मनुहार की भोर होने को है पर उसने देखा ही नहीं। यह भोर कुठाराघात है उसकी आशा पर, स्त्री पर कुठाराघात करके हरि को अविनासी बना देने वाली है। भक्ति ने यही किया, भगवान ने भी यही किया कितनों की आशाओं पर बज्रपात करके अपने हरि और भक्तिवाद का ढ़ाचा अजर अमर कर लिया।

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(3)         हे मा बड़ी बड़ी अंखियन वारो, साँवरो मो तन हेरत हँसिके

भौंह कमान बान बाँके लोचन, मारत हियरे कसिके

जतन करों जन्तर लिखि बाँधों, ओखद लाऊँ घँसिके

ज्यों तोकों कछु और बिथा हो, नाहिन मेरो बसिके

कौन जतन करों मोरी आली, चन्दन लाऊँ घसिके

जन्तर मन्तर जादू टोना, माधुरी मूरति बसिके

साँवरी सूरत आन मिलावो ठाढ़ी रहूँ मैं हँसि के

रेजा रेजा भयो करेजा अन्दर देखो धँसिके

मीराँ तो गिरधर बिन देखे, कैसे रहे घर बसिके।।

मध्ययुग में स्त्री के द्वारा लिखा गया स्त्री के साथ किया गया ऐसा संवाद साहित्य में विरल पाया जाता है। लेकऑफ[1] “स्त्री की भाषा” पर बात करते समय स्त्री की भाषा के दायरे को विषय बनाती है और सीमित सन्दर्भों वाली, कम आत्मविश्वास वाली, संशयशील भाषा में स्त्री को ढ़ूढ़ती है। मीरां के इस संवाद में स्त्री भाषा का, स्त्री संस्कृति का, स्त्री अन्तरमन का एक लेखा जोखा है। लेकऑफ की नमूना स्त्री पितृपक्ष के, व्यवस्था के नियमों से बँधी हुई ‘निर्मित’ स्त्री है, मीरां इसका अतिक्रमण करती है। साँवरो किसी भी तरह नाम का नहीं देह का पर्याय है, उसके हेरने में जिसके तन को हेरा जा रहा है उसके साथ सम्बन्ध की बू आती है। ‘हेर’ गायों के झुण्ड को कहा जाता है और हेरना गायों पर नजर रखने को। कम से इसमें इस बात का बोध निहित है कि नजर रखने वाले की प्रस्थिति भारी है और  कसिके मारने का बिम्ब आग्रह उसकी उस क्षमता का बोध करा देता है। देखने के लिए बहुत सारे शब्दों को प्रयोग होता है जिनमें से हेरना सबसे अधिक दुस्साहसी है, बलात् का बोध कराता ही है।

एक स्त्री का दुःख है कि बड़ी बड़ी आँखों वाला उसकी देह को हेरता है और इतना ही नहीं उसके साथ घातक संकेत(मारत हियरे कसिके-प्रहार) करता है। इसके उपचार के लिए दूसरी स्त्री उससे पूछती है कि- क्या प्रयत्न करूं- जन्तर लिखि बाँधू(ओझाकर्म), औषधि लाऊँ(भेषज कर्म), चन्दन लाऊँ(देशज कर्म)। फिर पहली स्त्री प्रत्युत्तर करती है- जन्तर मन्तर जादू टोना (बेकार हैं)- क्योंकि ये सब सुन्दर पुरुष के बस में हैं उसमें इन्हें बेकार करने की क्षमता है। ऐसा करो उस साँवरी सूरत से मेरा मिलन करा दो, मैं हँस करके उसकी प्रतीक्षा करूँगी। उसके लिए करेजा तार तार हो रहा है, फट रहा है विश्वास नहीं तो मेरे भीतर झाँक कर देख लो। उसके देखे बिना घर में बैठा नहीं रहा जाता। नाम की छाप को आत्मकथ्य के रूप में पढ़ें तो यह मीरा का अपना दुःख है और यदि छाप ही रहने दें तो मध्ययुगीन स्त्री का। कई एक सवाल उठते हैं कि उसके हेरने की शिकायत भी और उससे मिलन में ही उसके हेरने का उपचार भी- क्या कहीं भक्ति के लिए बताये जाने वाले समतुल्य उपादानों में अँटता है यह मान- अनुमान। एक स्त्री का यह “निर्लज्ज” निवेदन भक्ति की चादर को तार तार कर देता है कि हाय यह कुलच्छिनी इस तरह संयोग भी सोचती है और कहती है।  रीतिकाल के दूती प्रकरण पर तमाम नैतिकतावादी आग्रहों के तहत छीः थूः होती रही पर इस मीरां को देखिए कहती है – साँवरी सूरत आन मिलावो। कितना बड़ा “धर्म संकट” है कि सामन्तों के लिए नायिकाएं जुटानेवाली कुट्टिनी, दूती की तर्ज पर यह स्त्री तो अपनी सहेली से ही दूती प्रसंग रच रही है। इस माइने में मीरां स्त्री को पितृपक्ष के तमाम दुराग्रहों से मुक्त करके जीती जागती देह, हँसता रोता मन और सोचती समझती बुद्धि युक्त रूप में देख रही है।

(4)        हेरी म्हां दरदे दिवाणी म्हारां दरद न जाण्यां कोय।
घायल री गत घाइल जाण्यां, हिवडो अगण संजोय।
जौहर की गत जौहरी जाणै, क्या जाण्यां जिण खोय।
दरद की मार्यां दर दर डोल्यां बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरा री प्रभु पीर मिटांगां जब बैद सांवरो होय॥

मध्ययुग में जीवन के कुछ ही महत्वमान प्रसंग माने गये- युद्ध, भक्ति, व्यापार और इनसे जुड़े कुछ आनुसंगिक कर्म जैसे भेषज, रत्न परीक्षा आदि। सोच समझ के अन्तरजाल को महत्वमान रूप में व्यक्त करने के लिए इन्हीं से सम्बन्धित शब्दावली का प्रचलन हो चला। यह भाषाई विकास का एक महत्वपूर्ण प्रसंग है। मीरा की कविता में भक्ति की प्रवचन शैली और वार्तालाप की शैली एक हो गयी। भक्ति का नैतिक- उपदेश में बात करने वाला तरीका वैसा ही था, उसी तरह के उदाहरणों से अपनी बात कहने की कोशिश करता था जैसी मीरा के यहाँ है। लेकिन अन्तर्वस्तु और मन्तव्य का फर्क उनकी कविता और भक्ति में फाँट को दिखाता है। दरद का दिवानापन सूफी में भी है और मीरा में भी है लेकिन सूफी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई इसे जानता हैं या नहीं पर मीरां को फर्क पड़ता है। उसके लिए यह महत्वपूर्ण है कि- दरद ण जाणें कोइ- यही पीड़ा है। भक्ति कभी प्रदर्शन का विषय कम से कम भक्तिकाल में नहीं थी। कबीर का भी मानना था कि अपना चरखा कातो और भजन करो। मीरां यहीं भक्ति की धारा का अतिक्रमण कर निहायत स्त्री की बोली बोलने लगती है। इस दुःख की बराबरी में मीरां कुछ दूसरे प्रसंग लेकर आती है- सैन्य मामलों में या युद्ध में हार- जीत को सब जानते हैं पर उस घायल सैनिक के दर्द का क्या जो अपने ह्रदय को बड़ी कठिनाई से संजोकर उस दर्द को बर्दास्त करता है। यह उस जमाने में हासिये के सवालों को देखने का अकेला नजरिया है जो मीरा में पाया जाता है। जौहर करने वाली स्त्रियों ने मध्ययुग में सत्ताओं के सम्मान में कितना बर्दास्त किया ये तो वे स्त्रियां ही जान सकती है जो हार में “स्त्री” को जला बैठे वे क्या जान सकते हैं। दरद न जानने वालों को आइडेन्टीफाइ करने के प्रसंग में ये दो उदाहरण पर्याप्त सन्दर्भ मुहैया कराते हैं- सत्ता के सम्मान के लिए काम आये सैनिकों और मर गई स्त्रियों का दर्द न जानने वाले राजन्य। ये भला मीरां का दरद क्यों जानने लगे। दरद की मारी दर दर घूमती है- इन दरों में वे तमाम प्रसंग सिमट जाते हैं जो दरद को जानने के आधार बन सकते हैं पर यहाँ भी कोई दरद निवारक नहीं मिलता। उसका विश्वास दृढ़ से दृढ़तर होता जाता है कि उसके दरद के दिवानेपन की पीड़ा को एक ही वैद मिटा सकता है – साँवरा। न यहाँ कोई भक्ति है न कोई श्रंगार। एक स्त्री का अपने को समझे जाने की पीड़ा है, उसकी इच्छा के सम्मान का आग्रह।

(5)        साजन घर आओनी मीठा बोला॥
कदकी ऊभी मैं पंथ निहारूं थारो, आयां होसी मेला॥
आओ निसंक, संक मत मानो, आयां ही सुक्ख रहेला॥
तन मन वार करूं न्यौछावर, दीज्यो स्याम मोय हेला॥
आतुर बहुत बिलम मत कीज्यो, आयां हो रंग रहेला॥
तुमरे कारण सब रंग त्याग्या, काजल तिलक तमोला॥
तुम देख्या बिन कल न पड़त है, कर धर रही कपोला॥
मीरा दासी जनम जनम की, दिल की घुंडी खोला॥

‘निसंकता और शंका’ का सवाल वह भी सुख के मामले में जरूरी सन्दर्भ तैयार करता है यह बताने के लिए कि मीरां की इस कविता का आश्रय कौन है। पति या ईश्वर के मामले में शंका की कोई गुंजाइश तभी बनती है जब ईश्वर की भक्ति परकीयत्व को आधार बनाये और पति बहुपतित्व की योजना में हो। तन वारना कम से कम भक्ति काव्य की भक्ति का उपादान नहीं है और बहुपतित्व राजपुताने में मध्ययुग में प्रचलित नहीं था। तब यह सीधे सीधे प्रेम के किसी रूप का अभिकथन है। सीधे सीधे एक स्त्री अपने प्रेम के आश्रय को आमंत्रित करती है जो कि गुप्त प्रेम के किसी भी प्रारूप में फिट नहीं बैठता। भाषा की संरचना बताती है कि उसमें जनविसर्जनों के फलस्वरूप जन्म ले रही नई भाषा का हस्तक्षेप हो रहा है- ‘कदकी’- राजस्थानी नहीं है- मेरठ के आसपास की भाषा है, आयां- पंजाबी प्रकार का अनुस्वार लिए हुए है, दित्व में भी – सुक्ख में यही बात है। पद के आख्यान में भी आवाजाही का हस्तक्षेप है। इस माइने में पंथ निहारती स्त्री की समस्या वही समस्या है जो पीछे छूटी स्त्री की समस्या है- देह के दमन से पैदा हुई समस्या।‘आयां ही सुक्ख रहेला’ एक विकल्पहीन स्थिति है इस स्त्री की। स्याम कह देने से स्याम ईश्वर नहीं हो जाता स्याम के एक हेला देने पर तन- मन न्यौछावर है। आने का सबसे उत्तम समय है- रंग का समय, रंग के बने रहने का समय- विलम्ब रंग की आतुरता को नष्ट कर देगा। जिस रंग की आकांक्षा है उस सब को- जिसमें काजल-तिलक-तमोला शामिल है- आँख, माथा और होंठों का श्रंगार शामिल है को उस प्रिय की आशा में ही त्याग रखा है, छोड़ रक्खा है। छूटी हुई स्त्री का चित्र – व्याकुलता में – प्रतीक्षा में कपोलों पर हाथ रखकर एकटक पन्थ निहारती हुई। न जाने कितनी स्त्रियां इस दंश को झेलती हैं मीरां की तारीफ इसमें है कि वह अपने दिल की इस घुंडी पर खुलकर बात करने का साहस रखती है। संदेश रासक की हीरोइन भी इसी हालात से गुजर रही है और भिन्न शैली में अपनी देह के कारण मन पर बीत रही पीढ़ा को सन्देश बाहक से कहती है। दोनों में फर्क है कि मीरां अपनी स्थिति को कहती है और अब्दुल रहमान दूसरे की स्त्री को। दूसरे की स्त्री के बारे में ऐसा कह देना कोई बड़ा कमाल नहीं है, अपनी हालात को बयां करना बहुत कठिन है। सच से सामना के चक्कर में कितनों को आत्महत्या करनी पड़ी यही भारतीय समाज का आइना है- झूठ के नींव पर खड़ा महल। मीरां इससे नहीं डरती। साहस तो देखो उसका।

(6)        मन थें परसि हरि के चरन

सुभग सीतल कँवल- कोमल , जगत – ज्वाला- हरण।

इण चरण प्रह्मलाद परस्याँ इंद्र- पद्वी- धरण।।

इण चरन ध्रुव अटल करस्याँ सरण असरण सरण।

इण चरन ब्राह्मांड भेंट्याँ नखसिखाँ गिरि भरण।।

इण चरण कालियाँ णाथ्याँ, गोपी लीला करण

इण चरण गोबरधन धार् याँ गरब मधवा हरण

दासी मीरा लाल गिरधर अगम तारण तरण।।

मीरां के लिए भक्ति एक विषय है लेकिन भक्ति के लिए नहीं स्त्री जगत की ज्वाला का हरण करने लिए- जिसके सन्दर्भ सुभग सीतल कँवल कोमल के विपक्ष में निर्मित हैं। कुछ असुभग है, कुछ अशीतल है, कुछ अकवँल है और कुछ अकोमल है जिसके परिप्रेक्ष्य में इनको पाने का सहारा भक्ति उसी इन्टेंशन के साथ लेती है जिसके साथ प्रह्लाद, ध्रुव लेते हैं। मीरां की आकांक्षा भी किसी पदवी की है जिसके लिए हरि की शरण में निरालम्ब मन आश्रय ले रहा है। जो भक्ति में निःस्वार्थता की बलात् स्थापना करता है वह कुछ और नहीं भारतीय मानस की हिप्पोक्रेटिक ग्रन्थि है। पदवी के माइने  संस्थागतता में ही खोजे जायं तो उस लक्ष्य को पहचाना नहीं जो सकता जो मीरां चाहती है या प्रह्लाद चाहता है या ध्रुव चाहता है। ये गैर संस्थागत पदवियों के आकांक्षी हैं। कालियाँ गोपियों के लिए लीलाभूमि मुहैया नहीं होने देता और मधवा का बल कहर बनकर ब्रजजनों पर टूटता है और एक अन्य पाठान्तर में गोतम स्त्री को बलात्कृत करता है। मीरां की आकांक्षाओं के लिए ये सन्दर्भ बराबर बाधाओं से तादात्म्य स्थापित करते हैं। अपनी हार के क्षणों में हजारों की हार घुलमिल सी जाती है। स्त्री मन को क्या चाहिए एक खुला और निर्भय माहौल जहाँ अपनी हाँ को हाँ और ना को ना कह सके। इसी तनाव में उसे भक्ति याद आती है। उसे ऐसा लाल (माई का लाल) गिरधर चाहिए जो इस तरण(ताल) अगमता से मुक्ति दिला सके, यही उसकी भक्ति है।

(7)        राणाजी थें जहर दियो म्हे जाणी।

जैसे कंचन दहत अगिनि में, निकसत बारावाणी।

लोकलाज कुल काणि जगत की, दइ बहाय जस पाणी।

अपणै घर का परदा करले, मैं अबला बौराणी।

तरकस तीर लग्यो मेरे हियरे, गरक गयो सनकाणी।

सब संतन पर तन मन वारों चरण कँवल लपटाणी।

मीरां को प्रभु राणि लई है, दासी अपनी जाणी।।

यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि जहर खाकर मानव शरीर जिन्दा नहीं रह सकता अब बचने के दो ही विकल्प बचते हैं, या तो कोई चमत्कार या तो कोई अर्थ भेद। चमत्कार एक अव्याख्येय पद है, जिसके होने न होने से लेकर उस कार्यप्रणाली तक की कुल इयत्ता इतनी ही है कि यह किसी बड़े सत्य पर पर्दा डालकर अर्थ भेद की सृष्टि करता है। लोक में बोलचाल में जहर देने को अक्सर अभिधार्थ में ग्रहण नहीं किया जाता। दूसरी महत्वपूर्ण बात इस सन्दर्भ में यह कि दिव्य प्रकरणों में जहर दिये जाने को शामिल किया गया है और ये दिव्य मुख्यतः स्त्री की ‘सामाजिक सच्चरित्रता’ को साबित करने के लिए क्रूरतम विकल्प थे और प्रकारान्तर से जगत की ‘कुल की काणि’ को अक्षुण्य साबित करने के उपाय । पर मीरां खुले रूप में कहती है कि मैं जानती हूँ कि तुमने जहर दिया या तुम्हारा प्रस्ताव मेरे लिए जहर की तरह है – मेरी सोच, मेरे कर्म, मेरे प्रेम को कटघरे में खड़ा किया। प्रेम के बारे में ही कहा जाता है कि तपन से निखरता है। सोने की अगिनि परीक्षा और सीता की अगिनि परीक्षा में इतना फर्क है कि सोना बारहबान का हो जाता है पर सीता  प्रतिष्ठा तो पा लाती है पर संदेह के अभिशाप से कभी मुक्त नहीं हो पाती- यह स्त्री होने का दंश है कि उसकी प्रस्थिति सोने से भी कम है। मीरा भी जहर के बावजूद कभी संदेह के दायरे से बाहर नहीं हो पायीं। मीरां के मामले में जहर का रूपक अपने भीतर क्या समाये हुए है यह एक गम्भीर मसला है। ‘अवरु ण आवे म्हारी दाय’ ‘जेठ बहू को नातो नाहीं’ ये दो सपाट कथन हैं। यह स्पष्ट करने के बाद फिर मीरां पूछती है – राणा जी थे क्यांने राखो म्हासे बैर। एक पद में कहती है कि ‘सूनी सेज जहर ज्यूं लागे’। राणा के साथ किसी तरह के सम्बन्ध की परिकल्पना मीरां को स्वीकार नहीं भले ही गहणा गाँठी, काजल टीका, उनके शहर में बसना सब कुछ छोड़ना क्यों न पड़े। दूसरे किसी के साथ सम्बन्ध राणा को स्वीकार नहीं है इसलिए सेज जहर की तरह लगती है। अब जहर और अमृत की व्याख्या की जा सकती है। यदि सूनी सेज (संयोग की वास्तविकता का लोप) जहर है तो संयोग का स्वप्न अमृत है। ‘माइ म्हाणे सुपणा मां परण्याँ दीनानाथ।’ यह कोई आसान सा सवाल नहीं है कि मीरां गाने लगे ‘मेरे तो गिरधर गुपाल दूसरो न कोई’। यह दूसरा होने का दबाव स्त्री पर बहुत भारी पड़ता है।

मीरां पर यह आरोप है कि  जगत की ‘लोक की लज्जा और कुल की मर्यादा’(व्यक्ति या परिवार की नहीं) को उसने पानी की तरह बहा दिया इसलिए दिव्य के जरिये उसे अपने इस अपराध से मुक्त होने का अवसर दिया जाता है। इस सन्दर्भ में यह कयास का विषय है कि वह जहर क्या रहा होगा पर इतना तय है कि मीरां से प्रेम के विरुद्ध होने का आग्रह तो इसमें अवश्य ही जुड़ा होगा- प्रेम की मृत्यु का दुराग्रह। मीरां की कविता इसको नकारती है- अपने घर का परदा करले मैं अबला बौराणी। विश्वनाथ त्रिपाठी इस परदे के पीछे घर की औरतों में प्रचलित व्यभिचार की परिकल्पना कर डालते हैं।[2] यहाँ मीरां की समूची कविता के भीतर कहीं भी किसी भी स्त्री पर इस तरह के आरोपण के कोई सन्दर्भ नहीं मिलते तो यहां इस तरह के आग्रह का कोई आधार नहीं बनता। मीरां व्यभिचारिणी नहीं है प्रेम करने वाली स्त्री है। प्रेम को व्यभिचार में मिला देने से बड़ी समस्या होती है – प्रेम के प्रति दुराग्रहियों को क्रूरता करने की खुली छूट मिलती है- जैसा कि तमाम राजनीतिक संगठन इस छूट को लेकर आये दिन नंगा नाच करते दिख जाते हैं। मीरां का परदे का आग्रह बताता है कि राणा का घर और मीरां का घर दो अलग अलग पहचानें हैं और तथाकथित विधवा मीरां उस संयुक्तता पर प्रहार करती हैं जो उसके पति के परिवारी जनों ने उस पर आयद कर रखी है, परदा उस दीवार का पर्याय है जो संयुक्तता को एकल घर(परिवार) में बदलकर राणा के घर के लिए मीरां के कृत्यों को उत्तरदायी होने से मुक्त करता है।

(8)        आवत मोरी गलियन में गिरधारी

मैं तो घुस गयी लाज की मारी।

कुसुमल पाक केसरिया जामा ऊपर फूल हजारी

मुकुट ऊपर छत्र विराजै, कुण्डल की छवि न्यारी

केसरी चीर दरियाई को लहँगो ऊपर अँगिया भारी

आवत देखी किसन मुरारी छिपि गई राधा प्यारी

मोर मुकुट मनोहर सोहै, नथली की छवि न्यारी

गल मोतिन की माल विराजे चरण कमल बलिहारी

ऊभी राधा प्यारी अरज करत है सुणजो किसन मुरारी

मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, चरण कमल पर वारी।।

प्रत्यक्ष तौर पर राधा और कृष्ण का रिश्ता संस्थागत वैवाहिक संरचना में नहीं अँटता पर ऐसी कोई तो बात थी कि ‘लोक-लाज और कुल-काणि’ की दुहाई देने वाले समाज में यह प्रेम का उदाहरण अपनी जगह बना पाया, लोगों के मन में पसन्द का स्थान ले पाया। यह स्वीकार हर एक ऐसे मामले के लिए इसी तरह से स्वीकार का आधार नहीं कही जा सकता। राधा और रधिया पर न जाने कितनी लड़कियों के नाम मिल जाते हैं। राधा के इस स्वीकार में राधा के वैधव्य को विस्मृत भले ही कर दिया हो पर राधा कृष्ण की पत्नी नहीं है यह सबको याद है और कृष्ण की प्रेमिका तो है ही। मीरां को राधा के कृष्ण का केवल इतना आसरा है कि वह मीरां के प्रेम के प्रकार को अपने उदाहरण के आधार पर वैधता(मानसिक) प्रदान करता है। यदि राधा और मीरा का प्रेमी एक ही होता तो कहीं तो राधा के साथ सौतिया डाह ( जैसा की भारतीय स्त्री के मिथ निर्माण में अवश्यम्भावी माना गया) का अहसास दिखता। गिरधारी के गलियों में आने के प्रसंग से शुरू हुआ कथा क्रम कब राधा के प्रेम के तुलना कवच में घुसकर अपने को व्यक्त करने लगता है पता ही नहीं चलता या कहा जाय कला का आश्रय यहीं कहीं है। पाक, जामा, मुकुट, छत्र, कुण्डल, चीर, लहँगा और अँगिया में कृष्ण राधा की छवि से अधिक गिरधर मीरां की छवि है। सब कुछ परम्परागत वैभवशाली पहनावा।

(9)        घर आंगण न सुहावै, पिया बिन मोहि न भावै॥
दीपक जोय कहा करूं सजनी, पिय परदेस रहावै।
सूनी सेज जहर ज्यूं लागे, सिसक-सिसक जिय जावै॥
नैण निंदरा नहीं आवै॥
कदकी उभी मैं मग जोऊं, निस-दिन बिरह सतावै।
कहा कहूं कछु कहत न आवै, हिवड़ो अति उकलावै॥
हरि कब दरस दिखावै॥
ऐसो है कोई परम सनेही, तुरत सनेसो लावै।
वा बिरियां कद होसी मुझको, हरि हंस कंठ लगावै॥
मीरा मिलि होरी गावै॥

पिया परदेश रहता है और स्त्री उसके इन्तजार में है। पिय की अनुपस्थिति में घर आँगन अच्छा नहीं लगता, नहीं सुहाता। दीपक जलाने को मन नहीं होता। सूनी सेज जहर लगती है। सिसकियाँ भरते भरते ही प्राण निकलते रहते हैं। आँखों में नींद नहीं आती। लगातार रास्ता देखती रहती है, दिन रात बिरह सताता है। मन की अकुलाहट कहने में नहीं आती। किसी ऐसे परम सनेही की तलाश है जो सन्देश ला सके, वह समय कब आयेगा जब मेरा हरि मुझे हंस कर गले से लगायेगा, मीरां उसके साथ मिलकर होरी गायेगी। एक स्त्री की साधारण सी इच्छा है, प्रिय के साथ एक प्रेम भरी जिन्दगी अपने घर के भीतर जीना। पति का परदेश विरह का कारक बनता है, उसके कारणों का कोई सन्दर्भ मीरां के यहाँ नहीं आता कि वह क्यों परदेशी है। जहाँ तक हरि का सवाल है भारतीय स्त्री को बार बार यही बताया –सिखाया जाता रहा है कि उसका हरि उसका पति होता है। पति के कंठ से लगने की, होरी गाने की इच्छा में निश्चित रूप में स्त्री अभिव्यक्ति की वह बोल्डनेस है जो “स्त्री” गढ़ने के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करती है। ऐसे घनीभूत भाव की बहुत सारी कविताएं हिन्दी में मिल जायेंगी खासकर रीति काव्य में लेकिन वे पुरुषों द्वारा कृत्रिम स्त्रीमन के कृत्रिम चित्रण हैं और अधिकतर परकीयत्व को आधार बनाते हैं, मीरां की अभिव्यक्ति स्त्री का कथन होने के नाते अधिक महत्ववान है। यदि मीरां की कथित जीवन गाथा से इसे जोड़ दें तो वैधव्य के बाद स्वकीयत्व को पुनः स्थापित करने की इच्छा और स्वीकृति मीरां के यहाँ विधवा पुनर्विवाह के आन्दोलन से तीन सौ साल पहले ही दिख जाती है।

(10)      नैणा लोभाँ अँटका सक्या ना फिर आय

रूम रूम नख सिख लख्याँ ललक ललक अकुलाय

म्ह ठाड़ी घर आपणैं, मोहन निकळ्या आय

बदन चन्द्र परगासता, मन्द मन्द मुसकाय

सकळ कुटुम्बी बरजता, बोल्या बोल बणाय

नैणा चंचळ अटक ण मान्या परहत गयाँ बिकाय

भलो कह्या कांई बुरा कह्यां री कब लयो सीस चढ़ाय

मीरां से प्रभु गिरधर नागर बिना पल रह्यो ण जाय

पृष्टभूमि है कि आँखें लोभ में फँस गई तो फिर लौट नहीं सकीं। फँसने पर उन्होंने क्या देखा- रोम रोम में नख से शिख तक और अधिक देखने की ललक और अकुलाहट बढ़ती गई। भक्ति में यहीं ऐसे स्वाद का पर्याय कह दिया जायेगा जो कि एक बार भक्ति के चक्कर में पड़ा तो वहीं का होकर रह गया पर जगत और देह के सन्दर्भ में बात और है। आँखें तो उसी में फँसी हुई ही थी कि एक घटना और घट गई- अपने घर में खड़ी थी कि मोहन साक्षात उपस्थित हो गया- चमकता हुआ चेहरा, मन्द मन्द मुस्कुराहट (हँसता हुआ नूरानी चेहरा)। इसमें तो कोई बरजने जैसी बात थी नहीं पर कुटुम्ब ने बरजना(बरसना) शुरू कर दिया, तरह तरह की कहानियाँ बनाकर बोल बोलना शुरू हो गया। एक तरफ कुटुम्ब दूसरी तरफ पराये हाथ बिके हुए नैन जो किसी तरह अटक मानने के लिए राजी नहीं है। कोई भला कहो या बुरा कहो सब स्वीकार है पर मेरी हालात तो यही है। मुझसे अपने गिरधर के बिना एक पल भी रहा नहीं जाता। स्त्री के द्वारा अपनी इच्छा का ऐसा खुला और सरल स्वीकार हिन्दी में दूसरा नहीं मिलता है। इस बात के कथा बनने का सबसे महत्व का विषय है वर्जना। ये निर्लज्ज आँखें अपने होने से आँखे फेर लेतीं तो वर्जना को नंगा नाच दिखाने का अवसर न मिलता और न ही बनाई हुई बातें सुनने को मिलतीं। फिर यह बिकने का प्रकरण- कोई भी वस्तु मुफ्त में दे दी जाय तो दान कहलाती है जो कि धर्म कर्म का मामला है और उसके एवज में कुछ ले लिया जाय तो खरीद फरोख्त के दायरे में आती है और यह नितान्त भौतिक व्यापारिक और जागतिक मामला है। आँखें बेचने के एवज में मीरां ने क्या लिया होगा-  यही तो है जो परिजनों की आँख में खटकता है और मीरां कहती है कि ये फालतू की बातें बनाते हैं। स्त्री के मन की यह घुमावदार गली उन तमाम तरह के दबावों का परिणाम है जिनका डर उसके इन्द्रियबोध तक पर पहरा देता है कि वह क्या सूँघ सकती है, क्या देख सकती है, क्या चख सकती है आदि।

(11)     जोगी मत जा मत जा मत जा, पांइ परूं मैं तेरी चेरी हों

प्रेम भगति को पैड़ो ही न्यारो हम कूं गैल बता जा

अगर चँदण की चिता रचाऊँ अपने हाथ जला जा

जल बल भई भस्म की ढेरी, अपने अंग लगा जा

मीराँ कहे प्रभु गिरधर नागर जोत मैं जोत मिला जा

जोगी को रुकने का आह्वान उसके जोगी मार्ग और मीरां के प्रेम भगति मार्ग  में भिन्नता से पैदा होता है। यह प्रेम भगति वही नहीं है जिसे हिन्दी साहित्य के इतिहास प्रेमाभक्ति की संज्ञा दी गई। प्रेम भगति के लिए कौन गैल है यह तो मीरां उस जोगी से पूछ रही है। उसको चेतावनी भी दे रही हैं कि तुम्हें जाना है तो चले जाना पर पहले मुझे मार डालो- मेरी चिता को अपने हाथ से जला दो फिर चले जाना। इतना ही नहीं तुम जो राख मलते हो अपने शरीर पर तो देखो मैं जल कर भस्म का ढ़ेर हुई जाती हूँ मुझे अपनी देह पर मल लो फिर चले जाना। मेरी जोत बुझने को है मुझे कोई तो ऐसी विश्वास की जोत दे दो। जिस तरह का झगड़ा वे जोगी से कर रहीं हैं उसमें दाम्पत्य की छवि मिली हुई है। जिद, करुणा और विवशता जिस तरह से क्रमवार उभरती है उसमें मीरां की थकान का अहसास होता है। न राजसत्ता से विरोध है न कुल से कलह। पैरों में गिरकर जोगी को रोकने के लिए नितान्त विवश मीरां। बड़ी त्रासद स्थिति बनती है मीरां की – जिसके लिए राणा की हुँकार को शेरनी की मांनिद खुलकर मीरां ने सहा चाहे किसी भी दबाव में या कारण वश -वह जोगी हो कर निकल जाय और उसको पैरों में गिरकर रोकने लिए निवेदन करना पड़े।


[1] रॉबिन लेकआफ, लैन्गुएज एण्ड वोमेन्स प्लेस, आक्सफोर्ड प्रेस

[2] विश्वनाथ त्रिपाठी- मीरां का काव्य- पृ.82


[1] मोहम्मद हबीब, उत्तर भारत में नगरीय क्रान्ति, मध्यकालीन भारत, सं. इरफान हबीब, पृ. 29


भाषाई व्याकरण की राजनीति, जनविसर्जन और स्त्रीलिंग

सामान्य

भाषा में “लिंग विषयक चिन्तन” की परम्परा बहुत पुरानी है, भारतीय परिप्रेक्ष्य में पाणिनी से ही और ग्रीक में अरस्तू से ही चली आती है। इस चिन्तन में दो पक्ष उभर कर आते हैं- लिंग प्राकृतिक है अथवा सुविधानुसार है, सादृश्य पर आधारित है अथवा विसंगतियों पर आधारित है। तब से लेकर चली आती इस परम्परा में सत्रहवीं सदी में “बिना कारण के व आदतन” प्रयोग का पहलू जुड़ गया और अर्नाल्ड और लान्सलाट ने इसे इसी रूप में लिया। 18वीं व 19वीं सदी में भारोपीय भाषाओं में लिंग की उत्पत्ति के विषय पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। हर्डर 1772, एडलंग 1783, हम्बोल्ट 1827, और ग्रिम 1890 आदि ने “कल्पना” और “मानवीकरण” की प्रवृत्तियों को भाषा में लिंग की उत्पत्ति का कारण बताया। इनमें सबसे महत्वपूर्ण ‘ग्रिम के सिद्धान्त’ को माना गया जिसके अनुसार ‘प्राकृतिक लिंग मनुष्यों और उच्च जानवरों में स्त्रीलिंगः पुल्लिंग के भेद का परावर्तन है, जबकि व्याकरणिक लिंग में कल्पना से “किसी भी और सभी नामांकनों” तक प्राकृतिक लिंग का विस्तार कर लिया है।’[i] ब्रुगमैन ने इस विवाद में कहा कि “व्याकरणिक लिंग पहले से ही वहाँ था, यह केवल कल्पना की शक्ति का इस्तेमाल किया गया.” ब्रुगमैन का कहना है कि भारोपीय भाषाओं में आ, ई प्रत्यय मूलरूप में स्त्रीलिंग को व्यक्त नहीं करते। यह मूल रूपों mama (माता), gena(नानी) पर निर्भर करता है कि ‘आ’ प्रत्यय को स्त्रीलिंग के बनाने वाले के रूप में देखा जाय और कुछ चेतन संज्ञाओं के मामले में सादृश्यतावश ऐसा होता है। ब्रुगमैन के सिद्धान्त को रोथ ने ‘अविश्वसनीय का शिखर सम्मेलन करार दिया’। यह बहस चलते चलते जब संरचनावादी ब्लूमफील्ड तक आयी तो उसने कहा कि भाषा में लिंग का प्रयोग “यादृच्छिक” होता है। इसके बाद सही माइने में लिंग को लेकर जो बहस चली वह स्त्रीवाद के दायरे में चली। इस लेख का विषय इन बहसों से जुड़ा होकर भी इनसे अलग उन सन्दर्भों को उजागर करना है जिनसे रूबरू होकर ‘भाषा में लिंग’ के मसले पर सार्थक बहस हो सके।

भाषा विकास के इतिहास का एक जरूरी पहलू यह भी है कि उसकी “लैंगिक पहचान” के सन्दर्भों पर गम्भीर चिन्तन किया जाय. भाषा के परम्परागत व्याकरण के नियमों में ही लिंग आधारित विभेदीकरण के तमाम ऐसे सन्दर्भ मौजूद हैं जिनको “लैंगिक अस्मिता” और “स्त्री पक्षधरतावादी” विचार सरणियों के लिए स्वीकार करना आसान नहीं है. लाजमी है कि इन पर सवाल उठें. भाषा जब सामाजिक संरचना के विभिन्न पक्षों को व्यक्त करने के लिए इस्तेमाल होती है तो अपनी अभिव्यक्ति क्षमता के विकास के दौरान उसके अपने भीतर वे तत्व जगह बना लेते हैं जिनमें भाषा की विशिष्ट संरचना की जरूरत के बीज छिपे होते हैं, ये एक तरह का इतिहास बताने के सन्दर्भ भी होते हैं जिन्हें “सत्ताई विचार और जरूरत” ने हासिये पर धकेल दिया होता है या जिनकी पहचान को खुर्द-बुर्द कर दिया होता है. स्त्रीवादी भाषाविद मानते हैं कि भाषा के मौजूदा मतवाद विधिवतरूप से स्त्री के अनुभव और लैंगिक सांगठनिकता की उपेक्षा करते हैं.[ii] भारतीय सन्दर्भ में हमारा एक अपना भाषाशास्त्र रहा है जिसकी इस परिप्रेक्ष्य में परीक्षा होनी चाहिए. लिंग को अनुशासित करने की परम्परा में ही लिंगानुशासन जैसी अवधारणा यहाँ पायी जाती है (लिंगानुशासन नाम से 25 से अधिक ग्रन्थ भाषा शास्त्र के लिखे गये हैं). भाषा संरचना और व्याकरण के नियमों के भीतर चाहे वह वर्णमाला हो, विलोम शब्द हों अथवा लिंग या वचन, समास हों अथवा प्रत्यय जगह जगह एक सुविचारित फलसफ़ा देखने को मिलता है जो उस भाषा की स्वीकार की स्थिति भर में “स्त्री के मनोबल” पर आघात करता है, उसके आत्मविश्वास को ध्वस्त करता है और उसकी दोयमता का फर्जी इतिहास उसकी आत्मा में बिठा देता है।

स्त्री की बात करने से पहले यह सवाल यह उठाया जा सकता है कि भाषा के व्याकरण में “लिंग विधान” की क्या आवश्यकता है?(जबकि आज भी ऐसे दुराग्रहों से मुक्त भाषायें हैं और बखूबी अपनी भूमिका निभा रही हैं, मुण्डारी में लिंग व्याकरणिक नहीं है जीवित चीजें पुल्लिंग है और अजीवित चीजें स्त्रीलिंग हैं।) इसका जबाव केवल “भाषायी जरूरत” के परिप्रेक्ष्य में नहीं दिया जा सकता, भाषा के स्वरूप की सामाजिक एतिहासिक “माँग का स्वरूप और परिपूर्ति प्रकरण” और सत्ता का प्रारूप इस सवाल का जबाव दे सकते हैं. यह माना जाना चाहिए कि लिंग विधान एक socio-political अवधारणा है. भाषाविदों के मतों में – जैसे डॉ.चाटुर्ज्या(1957) इसे प्राकृतिक से वैयाकरणिक की ओर विकसित मानते हैं तो बरो लिंग चयन में यादृच्छिकता और तर्कविहीनता की बात करते हैं और  लिंग विधान को भारतीय भाषाओं में दूसरी भाषाओं की अपेक्षा बाद में विकसित हुआ बताते हैं तो एन्टविसल(1945) एटीशन की भूमिका स्त्रीलिंग के रूप परिवर्तन में दिखती है और ज्यूल ब्लाख का मानना है कि आधुनिक भारतीय भाषाओं में संस्कृत के लिंगों का अनुसरण नहीं किया गया है।

भारतीय भाषाओं के ज्ञात प्रारूपों में सबसे पहले वैदिक भाषा आती है और वैदिक समय के समाज में जब युद्धों का निर्णय समान बल के कारण नहीं हो पाता था तो वाक् युद्ध होते थे और भाषा में लिंग का अज्ञान (संस्कृत वैयाकरणिक प्रतिमानों के परिप्रेक्ष्य में) या अल्प ज्ञान पराजय का कारण होता था. देव और दानव युद्ध में देवताओं की विजय का कारण दानवों द्वारा प्रयुक्त अशुद्ध लिंग ही बताया जाता है.[iii] क्या यह मिथकीय आख्यान भर हैॽ इससे एक तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आता है कि उस समय में वैदिक से इतर भाषाओं की उपस्थिति है जिनका लिंग विधान वैदिक प्रकार से भिन्न है। क्योंकि निर्णय की कुंजी वैदिक भाषा का व्याकरणिक नियम ही हैं (निर्णायक की “रूपधारण” पद्धति का छल इसे स्वीकार्य परिभाषित करता है) इसलिए ‘अन्य’ प्रकार के लिंग प्रयोग अशुद्ध कहे जाते हैं।  एक और सन्दर्भ यह कि विष्णु का बार-बार स्त्री का छद्म रूप धारण करने का भाषाई आख्यान किसलिए है? क्यों एक स्त्री(स्वरूप) ही मन्थन के उपरान्त प्राप्त विवादित रत्नों को बाँटने की अधिकारी समझी जाती है? क्या ऐसा नहीं लगता कि ‘स्त्री रूप धारण करने की तकनीक और कूटनीति’ की विष्णु की सिद्धहस्तता उसके चरित्र के वे महार्थ(अमहार्थ) हैं जिनको पाकर ही वह ऐसा इतिहास(आख्यनिक) रच पाया. ये सन्दर्भ एक तनाव को कहने की सामर्थ्य रखते हैं. यह सन्दर्भ बहुआयामी हैं. भाषा में लिंग प्रयोग के आधार पर युद्ध निर्णय, असुरों को परास्त करने के लिए देवों द्वारा स्त्री का छद्म रुप धारण कर छल करना, अधिकार के निर्णयों में देवों द्वारा स्त्री बनकर(स्वरूप धारणकर) अन्यों के सभी अधिकारों को ग्रस लेना – ये ऐसी कुछ गुँथी हुई कडियाँ है जिनके गम्भीर निहितार्थ हैं. तमाम आख्यानिक तथ्यों से एक बात तय है कि स्त्री उस समय तक “पंच” की भूमिका निभाने लायक सत्ता सम्पन्न है और असुर स्त्री पर विश्वास करते हैं, उनके साथ सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रखते हैं और अभी तक स्त्री की सत्ता इतनी हीन नहीं हुई है कि उसे मूल्य दिये बिना सत्ता संतुलन के एकतरफा किये जाने का सम्भावन किया जा सके. इससे यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि असुरों की भाषा का लैंगिक विधान देवों की भाषा के लैंगिक विधान से अलग है जिसमें लिंग प्रयोग विभेदीकरण के संस्कृत व्याकरणिक नियमों का अनुपालन नहीं करता. दूसरी बात यह भी विचारणीय है कि किसी भाषा में किसी दूसरी भाषा की तुलना के आधार पर लिंग की अशुद्धता का मूल्य-निर्णय कहाँ तक उचित है. कहना ही होगा कि भाषा में लिंग के प्रयोग की राजनीति भाषाई निर्माण प्रक्रिया की देन है। भाषा के निर्मित करने वाले आयाम- सत्ता स्वरूप, जनविसर्जन, सामाजिक गतिविधियाँ, सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रियायें लिंग के प्रयोग को नियामित करते हैं और भाषाचार्यों की परिभाषायें इन्हें लागू करने के उपकरण बनते हैं।

भाषा पर विचार की चर्चा में सबसे महत्वपूर्ण चर्चा पाणिनी के अष्टाध्यायी की मानी जाती है (हालाँकि सूचीबद्ध करने के लिए और भी नाम हैं). यह ग्रन्थ भाषा की राजनीतिक विचारधारा निरपेक्ष व्याख्या रहित नहीं कहा जा सकता है. उसकी व्याख्या के विभाव भले ही वे बाहरी उदाहरण हैं जो प्रचलित हैं पर इस प्रचलन में भी एक ऐतिहासिक सामाजिक संरचना दिखाई पड़ ही जाती है जिसकी व्याख्या आवश्यक है. अष्टाध्यायी में जितनी चर्चा भाषा पर है उससे ‘कहीं अधिक तनाव स्त्री भाषा और विभाषा’ का है. अष्टाध्यायी में स्त्री भाषा पर वे स्पष्ट टिप्पणी करते चलते हैं. स्त्रियों की भाषा को विभाषा[iv] और कई बार जानवरों की भाषा के समान[v] वे कहते हैं. वे विभाषा को तरह तरह से स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं. विभाषा विप्रलापे, विभाषा कर्मकात, विभाषा समीपे, विभाषा सेनासुराच्छायाशाला निशानाम्, विभाषा मनुष्ये, विभाषा रोगातपयो, ‘विभाषा बहोर्धाविप्रकृष्ट काले’. (सभी अष्ठाध्यायी से- और भी ऐसे बहुत से उदाहरण हैं.) विभाषा के प्रति जो रवैया यहाँ दिखता है वह एक अकेले व्याकरणाचार्य पाणिनी का नहीं है, एक भाषाई सत्ता का रवैया है. यह विभाषा को अपने “अन्य” के रूप में देखता है. यही वह कारण है जिसमें पाणिनी को भाषाई अनुशासन के लिए व्याकरण रचने की आवश्यकता पड़ती है. संस्कृत को शुद्ध बनाने और रखने के अभियान की आधारशिला यहीं रखी जाती है और उसे ‘देववाणी’ का दर्जा मिलता है. यहाँ भी एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठ ही जाता है कि जिन कारणों से पाणिनी को संस्कृत के लिए व्याकरण रचने की आवश्यकता हो रही थी क्या वे ही कारण इस बात के लिए उत्तरदायी नहीं हैं कि संस्कृत का लिंगविधान ऐसा रचा गयाॽ इस समय के बाद का रचा गया इतिहास और भाषा की लिंग संरचना के बहुत से आयाम एक दूसरे के साथ मेल खाते हैं।

एक बात यह देखने में आती है कि लिंग को प्राकृतिक और वैयाकरणिक दो विभेद में बाँटने के बाद भारतीय आचार्य परम्परा वैयाकरणिक लिंग पर किसी भी सामाजिक आरोप या प्रभाव का बल पूर्वक खण्डन करती है. वे कहते हैं कि जाति, व्यक्ति, लिंग, संख्या और कारक के आधार पर पाँच अर्थ प्रतिपादक के स्वरूप को निर्मित करते हैं और ये विशुद्ध वैयाकरणिक होते हैं.[vi] यदि संस्कृत व्याकरण के निर्धारणकाल की सामाजिक संरचना और जरूरतों पर ध्यान दिया जाय तो क्या यही पाँच कारक सत्ता को पाने और बनाये रखने की जरूरी शर्तें नहीं हैं? हालांकि आचार्य जोर देकर यही कहते रहना पसन्द करते हैं कि स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसक लिंग शब्द की तीन अवस्था भर हैं और भाषा की संरचना को समाज की संरचना के समानान्तर पढ़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए.[vii] पातंजलि ने महाभाष्य में लिखा कि प्रयोगानुसारेण वैदित्यम् शेषं तु ज्ञैयम् शिष्ट प्रयोगात.[viii] लिंग प्रयोग समाज में शिष्टता का पैमाना बन चुका था यह बात उक्त कथन से स्पष्ट हो रही है फिर भी आग्रह यही कि इसे लौकिक मत मानो, वैयाकरणिक मानो. लौकिकता के निषेध का यह आग्रह भाषा के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं है इसके और भी तमाम सन्दर्भ है जहाँ भारतीय आचार्य परम्परा ज्ञान के भौतिक परिप्रेक्ष्य को रोकती है. मसलन भरत रस की शुद्ध भौतिक आधार पर व्याख्या करते करते एक झटके से यह कहने लगते हैं कि यह अव्याख्येय और ब्रह्मानन्द सहोदर है इसका लौकिक रस से कोई लेना देना नहीं है. भाषा, ज्ञान शास्त्र, साहित्यशास्त्र, दर्शन, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र किसी भी क्षेत्र पर यह बात लागू होती है कि उन्हें सुविचारित तरीके से भौतिकवादी आधारों से हटाकर आदर्श के ऐसे ढ़ाँचे पर जा टिकाया जो स्त्री के प्रति विषमता के मूल्य को प्रश्रय देते थे और गौरवान्वित करते थे.

लिंग पर बात करते समय यदि जनविसर्जन को छोड़ दिया जाय तो तमाम ऐसे सवाल अनसुलझे रह जाते हैं जो भाषा के लिंग पक्ष की सामाजिकता को धुँधला करते हैं। संस्कृत से इतर भाषा की परम्परा में लिंगों के नियमों में “भिन्नता“ या “अतन्त्रता” पाये जाने के दो कराण हो सकते हैं – या तो संस्कृत से पहले की इस इलाके की भाषाओं में लिंग की वही संरचना नहीं थी जो कि संस्कृत की थी, या तो संस्कृत के बाद के जनविसर्जनों में आने वाली भाषाओं में लिंग की भिन्न संरचना थी या तो ये दोनों ही स्थितियाँ अलग अलग समय पर या एक ही समय पर विद्यमान रही। इन स्थितियों का निर्धारण एक कठिन समस्या है, भाषाओं के अपने तथ्यों के अवशेष इन स्थितियों का खुलासा कर सकते हैं। इस प्रक्रिया का पहला चरण है भाषा के भीतर से उन विसंगतियों को सामने लाना जिन पर व्याकरणाचार्य निर्वाक् स्थितियों का कठिन निर्वाह करते रहे हैं।

(यह “भाषा और जन विसर्जन” नाम से भूपाल सिंह द्वारा सम्पादित पुस्तक में संकलित एक बड़े लेख का हिस्सा है)


[i] ग्रिम – Roethe, Gustav. 1890. Zum neuen Abdruck. In: Grimm, Jacob. Deutsche Grammatik. Vol 3. (2nd edition.) Güthersloh: C. Bertelsmann, IX-XXXI.

[ii] Thorne and Stacey , “many gaps were there for a reason, i.e. that existing paradigms systematically ignore or erase the significance of women’s experiences and the organization of gender” (Thorne and Stacey 1993: 168).

[iii] Technical terms of Sanskrit grammar, K.C.Chaterji, p.117

[iv] पाणिनी, अष्ठाध्यायी, द्वितीय अध्याय, द्वितीय पाद, 25वाँ सूत्र

[v] पाणिनी, अष्ठाध्यायी, द्वितीय अध्याय, चतुर्थ पाद, 12वाँ सूत्र

[vi] एकं द्विकं त्रिकं चाथ चतुष्कं पंचकं तथा

नामार्थ इति सर्वेअपि यथाः शास्त्रंर्निरूपिता- वैयाकरण भूषणसार, कौण्ड भट्ट, पृ.49

[vii] पाणिनी अष्टाध्यायी-

[viii] पातंजलि, महाभाष्य, पृ.26

(भाषा और जन विसर्जन किताब का लोकार्पण करते प्रो.इरफान हबीब, प्रो.नित्यानन्द तिवारी, प्रो.कर्ण सिंह चौहान व अन्य)