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भाषाई व्याकरण की राजनीति, जनविसर्जन और स्त्रीलिंग

सामान्य

भाषा में “लिंग विषयक चिन्तन” की परम्परा बहुत पुरानी है, भारतीय परिप्रेक्ष्य में पाणिनी से ही और ग्रीक में अरस्तू से ही चली आती है। इस चिन्तन में दो पक्ष उभर कर आते हैं- लिंग प्राकृतिक है अथवा सुविधानुसार है, सादृश्य पर आधारित है अथवा विसंगतियों पर आधारित है। तब से लेकर चली आती इस परम्परा में सत्रहवीं सदी में “बिना कारण के व आदतन” प्रयोग का पहलू जुड़ गया और अर्नाल्ड और लान्सलाट ने इसे इसी रूप में लिया। 18वीं व 19वीं सदी में भारोपीय भाषाओं में लिंग की उत्पत्ति के विषय पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। हर्डर 1772, एडलंग 1783, हम्बोल्ट 1827, और ग्रिम 1890 आदि ने “कल्पना” और “मानवीकरण” की प्रवृत्तियों को भाषा में लिंग की उत्पत्ति का कारण बताया। इनमें सबसे महत्वपूर्ण ‘ग्रिम के सिद्धान्त’ को माना गया जिसके अनुसार ‘प्राकृतिक लिंग मनुष्यों और उच्च जानवरों में स्त्रीलिंगः पुल्लिंग के भेद का परावर्तन है, जबकि व्याकरणिक लिंग में कल्पना से “किसी भी और सभी नामांकनों” तक प्राकृतिक लिंग का विस्तार कर लिया है।’[i] ब्रुगमैन ने इस विवाद में कहा कि “व्याकरणिक लिंग पहले से ही वहाँ था, यह केवल कल्पना की शक्ति का इस्तेमाल किया गया.” ब्रुगमैन का कहना है कि भारोपीय भाषाओं में आ, ई प्रत्यय मूलरूप में स्त्रीलिंग को व्यक्त नहीं करते। यह मूल रूपों mama (माता), gena(नानी) पर निर्भर करता है कि ‘आ’ प्रत्यय को स्त्रीलिंग के बनाने वाले के रूप में देखा जाय और कुछ चेतन संज्ञाओं के मामले में सादृश्यतावश ऐसा होता है। ब्रुगमैन के सिद्धान्त को रोथ ने ‘अविश्वसनीय का शिखर सम्मेलन करार दिया’। यह बहस चलते चलते जब संरचनावादी ब्लूमफील्ड तक आयी तो उसने कहा कि भाषा में लिंग का प्रयोग “यादृच्छिक” होता है। इसके बाद सही माइने में लिंग को लेकर जो बहस चली वह स्त्रीवाद के दायरे में चली। इस लेख का विषय इन बहसों से जुड़ा होकर भी इनसे अलग उन सन्दर्भों को उजागर करना है जिनसे रूबरू होकर ‘भाषा में लिंग’ के मसले पर सार्थक बहस हो सके।

भाषा विकास के इतिहास का एक जरूरी पहलू यह भी है कि उसकी “लैंगिक पहचान” के सन्दर्भों पर गम्भीर चिन्तन किया जाय. भाषा के परम्परागत व्याकरण के नियमों में ही लिंग आधारित विभेदीकरण के तमाम ऐसे सन्दर्भ मौजूद हैं जिनको “लैंगिक अस्मिता” और “स्त्री पक्षधरतावादी” विचार सरणियों के लिए स्वीकार करना आसान नहीं है. लाजमी है कि इन पर सवाल उठें. भाषा जब सामाजिक संरचना के विभिन्न पक्षों को व्यक्त करने के लिए इस्तेमाल होती है तो अपनी अभिव्यक्ति क्षमता के विकास के दौरान उसके अपने भीतर वे तत्व जगह बना लेते हैं जिनमें भाषा की विशिष्ट संरचना की जरूरत के बीज छिपे होते हैं, ये एक तरह का इतिहास बताने के सन्दर्भ भी होते हैं जिन्हें “सत्ताई विचार और जरूरत” ने हासिये पर धकेल दिया होता है या जिनकी पहचान को खुर्द-बुर्द कर दिया होता है. स्त्रीवादी भाषाविद मानते हैं कि भाषा के मौजूदा मतवाद विधिवतरूप से स्त्री के अनुभव और लैंगिक सांगठनिकता की उपेक्षा करते हैं.[ii] भारतीय सन्दर्भ में हमारा एक अपना भाषाशास्त्र रहा है जिसकी इस परिप्रेक्ष्य में परीक्षा होनी चाहिए. लिंग को अनुशासित करने की परम्परा में ही लिंगानुशासन जैसी अवधारणा यहाँ पायी जाती है (लिंगानुशासन नाम से 25 से अधिक ग्रन्थ भाषा शास्त्र के लिखे गये हैं). भाषा संरचना और व्याकरण के नियमों के भीतर चाहे वह वर्णमाला हो, विलोम शब्द हों अथवा लिंग या वचन, समास हों अथवा प्रत्यय जगह जगह एक सुविचारित फलसफ़ा देखने को मिलता है जो उस भाषा की स्वीकार की स्थिति भर में “स्त्री के मनोबल” पर आघात करता है, उसके आत्मविश्वास को ध्वस्त करता है और उसकी दोयमता का फर्जी इतिहास उसकी आत्मा में बिठा देता है।

स्त्री की बात करने से पहले यह सवाल यह उठाया जा सकता है कि भाषा के व्याकरण में “लिंग विधान” की क्या आवश्यकता है?(जबकि आज भी ऐसे दुराग्रहों से मुक्त भाषायें हैं और बखूबी अपनी भूमिका निभा रही हैं, मुण्डारी में लिंग व्याकरणिक नहीं है जीवित चीजें पुल्लिंग है और अजीवित चीजें स्त्रीलिंग हैं।) इसका जबाव केवल “भाषायी जरूरत” के परिप्रेक्ष्य में नहीं दिया जा सकता, भाषा के स्वरूप की सामाजिक एतिहासिक “माँग का स्वरूप और परिपूर्ति प्रकरण” और सत्ता का प्रारूप इस सवाल का जबाव दे सकते हैं. यह माना जाना चाहिए कि लिंग विधान एक socio-political अवधारणा है. भाषाविदों के मतों में – जैसे डॉ.चाटुर्ज्या(1957) इसे प्राकृतिक से वैयाकरणिक की ओर विकसित मानते हैं तो बरो लिंग चयन में यादृच्छिकता और तर्कविहीनता की बात करते हैं और  लिंग विधान को भारतीय भाषाओं में दूसरी भाषाओं की अपेक्षा बाद में विकसित हुआ बताते हैं तो एन्टविसल(1945) एटीशन की भूमिका स्त्रीलिंग के रूप परिवर्तन में दिखती है और ज्यूल ब्लाख का मानना है कि आधुनिक भारतीय भाषाओं में संस्कृत के लिंगों का अनुसरण नहीं किया गया है।

भारतीय भाषाओं के ज्ञात प्रारूपों में सबसे पहले वैदिक भाषा आती है और वैदिक समय के समाज में जब युद्धों का निर्णय समान बल के कारण नहीं हो पाता था तो वाक् युद्ध होते थे और भाषा में लिंग का अज्ञान (संस्कृत वैयाकरणिक प्रतिमानों के परिप्रेक्ष्य में) या अल्प ज्ञान पराजय का कारण होता था. देव और दानव युद्ध में देवताओं की विजय का कारण दानवों द्वारा प्रयुक्त अशुद्ध लिंग ही बताया जाता है.[iii] क्या यह मिथकीय आख्यान भर हैॽ इससे एक तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आता है कि उस समय में वैदिक से इतर भाषाओं की उपस्थिति है जिनका लिंग विधान वैदिक प्रकार से भिन्न है। क्योंकि निर्णय की कुंजी वैदिक भाषा का व्याकरणिक नियम ही हैं (निर्णायक की “रूपधारण” पद्धति का छल इसे स्वीकार्य परिभाषित करता है) इसलिए ‘अन्य’ प्रकार के लिंग प्रयोग अशुद्ध कहे जाते हैं।  एक और सन्दर्भ यह कि विष्णु का बार-बार स्त्री का छद्म रूप धारण करने का भाषाई आख्यान किसलिए है? क्यों एक स्त्री(स्वरूप) ही मन्थन के उपरान्त प्राप्त विवादित रत्नों को बाँटने की अधिकारी समझी जाती है? क्या ऐसा नहीं लगता कि ‘स्त्री रूप धारण करने की तकनीक और कूटनीति’ की विष्णु की सिद्धहस्तता उसके चरित्र के वे महार्थ(अमहार्थ) हैं जिनको पाकर ही वह ऐसा इतिहास(आख्यनिक) रच पाया. ये सन्दर्भ एक तनाव को कहने की सामर्थ्य रखते हैं. यह सन्दर्भ बहुआयामी हैं. भाषा में लिंग प्रयोग के आधार पर युद्ध निर्णय, असुरों को परास्त करने के लिए देवों द्वारा स्त्री का छद्म रुप धारण कर छल करना, अधिकार के निर्णयों में देवों द्वारा स्त्री बनकर(स्वरूप धारणकर) अन्यों के सभी अधिकारों को ग्रस लेना – ये ऐसी कुछ गुँथी हुई कडियाँ है जिनके गम्भीर निहितार्थ हैं. तमाम आख्यानिक तथ्यों से एक बात तय है कि स्त्री उस समय तक “पंच” की भूमिका निभाने लायक सत्ता सम्पन्न है और असुर स्त्री पर विश्वास करते हैं, उनके साथ सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रखते हैं और अभी तक स्त्री की सत्ता इतनी हीन नहीं हुई है कि उसे मूल्य दिये बिना सत्ता संतुलन के एकतरफा किये जाने का सम्भावन किया जा सके. इससे यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि असुरों की भाषा का लैंगिक विधान देवों की भाषा के लैंगिक विधान से अलग है जिसमें लिंग प्रयोग विभेदीकरण के संस्कृत व्याकरणिक नियमों का अनुपालन नहीं करता. दूसरी बात यह भी विचारणीय है कि किसी भाषा में किसी दूसरी भाषा की तुलना के आधार पर लिंग की अशुद्धता का मूल्य-निर्णय कहाँ तक उचित है. कहना ही होगा कि भाषा में लिंग के प्रयोग की राजनीति भाषाई निर्माण प्रक्रिया की देन है। भाषा के निर्मित करने वाले आयाम- सत्ता स्वरूप, जनविसर्जन, सामाजिक गतिविधियाँ, सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रियायें लिंग के प्रयोग को नियामित करते हैं और भाषाचार्यों की परिभाषायें इन्हें लागू करने के उपकरण बनते हैं।

भाषा पर विचार की चर्चा में सबसे महत्वपूर्ण चर्चा पाणिनी के अष्टाध्यायी की मानी जाती है (हालाँकि सूचीबद्ध करने के लिए और भी नाम हैं). यह ग्रन्थ भाषा की राजनीतिक विचारधारा निरपेक्ष व्याख्या रहित नहीं कहा जा सकता है. उसकी व्याख्या के विभाव भले ही वे बाहरी उदाहरण हैं जो प्रचलित हैं पर इस प्रचलन में भी एक ऐतिहासिक सामाजिक संरचना दिखाई पड़ ही जाती है जिसकी व्याख्या आवश्यक है. अष्टाध्यायी में जितनी चर्चा भाषा पर है उससे ‘कहीं अधिक तनाव स्त्री भाषा और विभाषा’ का है. अष्टाध्यायी में स्त्री भाषा पर वे स्पष्ट टिप्पणी करते चलते हैं. स्त्रियों की भाषा को विभाषा[iv] और कई बार जानवरों की भाषा के समान[v] वे कहते हैं. वे विभाषा को तरह तरह से स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं. विभाषा विप्रलापे, विभाषा कर्मकात, विभाषा समीपे, विभाषा सेनासुराच्छायाशाला निशानाम्, विभाषा मनुष्ये, विभाषा रोगातपयो, ‘विभाषा बहोर्धाविप्रकृष्ट काले’. (सभी अष्ठाध्यायी से- और भी ऐसे बहुत से उदाहरण हैं.) विभाषा के प्रति जो रवैया यहाँ दिखता है वह एक अकेले व्याकरणाचार्य पाणिनी का नहीं है, एक भाषाई सत्ता का रवैया है. यह विभाषा को अपने “अन्य” के रूप में देखता है. यही वह कारण है जिसमें पाणिनी को भाषाई अनुशासन के लिए व्याकरण रचने की आवश्यकता पड़ती है. संस्कृत को शुद्ध बनाने और रखने के अभियान की आधारशिला यहीं रखी जाती है और उसे ‘देववाणी’ का दर्जा मिलता है. यहाँ भी एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठ ही जाता है कि जिन कारणों से पाणिनी को संस्कृत के लिए व्याकरण रचने की आवश्यकता हो रही थी क्या वे ही कारण इस बात के लिए उत्तरदायी नहीं हैं कि संस्कृत का लिंगविधान ऐसा रचा गयाॽ इस समय के बाद का रचा गया इतिहास और भाषा की लिंग संरचना के बहुत से आयाम एक दूसरे के साथ मेल खाते हैं।

एक बात यह देखने में आती है कि लिंग को प्राकृतिक और वैयाकरणिक दो विभेद में बाँटने के बाद भारतीय आचार्य परम्परा वैयाकरणिक लिंग पर किसी भी सामाजिक आरोप या प्रभाव का बल पूर्वक खण्डन करती है. वे कहते हैं कि जाति, व्यक्ति, लिंग, संख्या और कारक के आधार पर पाँच अर्थ प्रतिपादक के स्वरूप को निर्मित करते हैं और ये विशुद्ध वैयाकरणिक होते हैं.[vi] यदि संस्कृत व्याकरण के निर्धारणकाल की सामाजिक संरचना और जरूरतों पर ध्यान दिया जाय तो क्या यही पाँच कारक सत्ता को पाने और बनाये रखने की जरूरी शर्तें नहीं हैं? हालांकि आचार्य जोर देकर यही कहते रहना पसन्द करते हैं कि स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसक लिंग शब्द की तीन अवस्था भर हैं और भाषा की संरचना को समाज की संरचना के समानान्तर पढ़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए.[vii] पातंजलि ने महाभाष्य में लिखा कि प्रयोगानुसारेण वैदित्यम् शेषं तु ज्ञैयम् शिष्ट प्रयोगात.[viii] लिंग प्रयोग समाज में शिष्टता का पैमाना बन चुका था यह बात उक्त कथन से स्पष्ट हो रही है फिर भी आग्रह यही कि इसे लौकिक मत मानो, वैयाकरणिक मानो. लौकिकता के निषेध का यह आग्रह भाषा के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं है इसके और भी तमाम सन्दर्भ है जहाँ भारतीय आचार्य परम्परा ज्ञान के भौतिक परिप्रेक्ष्य को रोकती है. मसलन भरत रस की शुद्ध भौतिक आधार पर व्याख्या करते करते एक झटके से यह कहने लगते हैं कि यह अव्याख्येय और ब्रह्मानन्द सहोदर है इसका लौकिक रस से कोई लेना देना नहीं है. भाषा, ज्ञान शास्त्र, साहित्यशास्त्र, दर्शन, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र किसी भी क्षेत्र पर यह बात लागू होती है कि उन्हें सुविचारित तरीके से भौतिकवादी आधारों से हटाकर आदर्श के ऐसे ढ़ाँचे पर जा टिकाया जो स्त्री के प्रति विषमता के मूल्य को प्रश्रय देते थे और गौरवान्वित करते थे.

लिंग पर बात करते समय यदि जनविसर्जन को छोड़ दिया जाय तो तमाम ऐसे सवाल अनसुलझे रह जाते हैं जो भाषा के लिंग पक्ष की सामाजिकता को धुँधला करते हैं। संस्कृत से इतर भाषा की परम्परा में लिंगों के नियमों में “भिन्नता“ या “अतन्त्रता” पाये जाने के दो कराण हो सकते हैं – या तो संस्कृत से पहले की इस इलाके की भाषाओं में लिंग की वही संरचना नहीं थी जो कि संस्कृत की थी, या तो संस्कृत के बाद के जनविसर्जनों में आने वाली भाषाओं में लिंग की भिन्न संरचना थी या तो ये दोनों ही स्थितियाँ अलग अलग समय पर या एक ही समय पर विद्यमान रही। इन स्थितियों का निर्धारण एक कठिन समस्या है, भाषाओं के अपने तथ्यों के अवशेष इन स्थितियों का खुलासा कर सकते हैं। इस प्रक्रिया का पहला चरण है भाषा के भीतर से उन विसंगतियों को सामने लाना जिन पर व्याकरणाचार्य निर्वाक् स्थितियों का कठिन निर्वाह करते रहे हैं।

(यह “भाषा और जन विसर्जन” नाम से भूपाल सिंह द्वारा सम्पादित पुस्तक में संकलित एक बड़े लेख का हिस्सा है)


[i] ग्रिम – Roethe, Gustav. 1890. Zum neuen Abdruck. In: Grimm, Jacob. Deutsche Grammatik. Vol 3. (2nd edition.) Güthersloh: C. Bertelsmann, IX-XXXI.

[ii] Thorne and Stacey , “many gaps were there for a reason, i.e. that existing paradigms systematically ignore or erase the significance of women’s experiences and the organization of gender” (Thorne and Stacey 1993: 168).

[iii] Technical terms of Sanskrit grammar, K.C.Chaterji, p.117

[iv] पाणिनी, अष्ठाध्यायी, द्वितीय अध्याय, द्वितीय पाद, 25वाँ सूत्र

[v] पाणिनी, अष्ठाध्यायी, द्वितीय अध्याय, चतुर्थ पाद, 12वाँ सूत्र

[vi] एकं द्विकं त्रिकं चाथ चतुष्कं पंचकं तथा

नामार्थ इति सर्वेअपि यथाः शास्त्रंर्निरूपिता- वैयाकरण भूषणसार, कौण्ड भट्ट, पृ.49

[vii] पाणिनी अष्टाध्यायी-

[viii] पातंजलि, महाभाष्य, पृ.26

(भाषा और जन विसर्जन किताब का लोकार्पण करते प्रो.इरफान हबीब, प्रो.नित्यानन्द तिवारी, प्रो.कर्ण सिंह चौहान व अन्य)