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भाषाई व्याकरण की राजनीति, जनविसर्जन और स्त्रीलिंग

सामान्य

भाषा में “लिंग विषयक चिन्तन” की परम्परा बहुत पुरानी है, भारतीय परिप्रेक्ष्य में पाणिनी से ही और ग्रीक में अरस्तू से ही चली आती है। इस चिन्तन में दो पक्ष उभर कर आते हैं- लिंग प्राकृतिक है अथवा सुविधानुसार है, सादृश्य पर आधारित है अथवा विसंगतियों पर आधारित है। तब से लेकर चली आती इस परम्परा में सत्रहवीं सदी में “बिना कारण के व आदतन” प्रयोग का पहलू जुड़ गया और अर्नाल्ड और लान्सलाट ने इसे इसी रूप में लिया। 18वीं व 19वीं सदी में भारोपीय भाषाओं में लिंग की उत्पत्ति के विषय पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। हर्डर 1772, एडलंग 1783, हम्बोल्ट 1827, और ग्रिम 1890 आदि ने “कल्पना” और “मानवीकरण” की प्रवृत्तियों को भाषा में लिंग की उत्पत्ति का कारण बताया। इनमें सबसे महत्वपूर्ण ‘ग्रिम के सिद्धान्त’ को माना गया जिसके अनुसार ‘प्राकृतिक लिंग मनुष्यों और उच्च जानवरों में स्त्रीलिंगः पुल्लिंग के भेद का परावर्तन है, जबकि व्याकरणिक लिंग में कल्पना से “किसी भी और सभी नामांकनों” तक प्राकृतिक लिंग का विस्तार कर लिया है।’[i] ब्रुगमैन ने इस विवाद में कहा कि “व्याकरणिक लिंग पहले से ही वहाँ था, यह केवल कल्पना की शक्ति का इस्तेमाल किया गया.” ब्रुगमैन का कहना है कि भारोपीय भाषाओं में आ, ई प्रत्यय मूलरूप में स्त्रीलिंग को व्यक्त नहीं करते। यह मूल रूपों mama (माता), gena(नानी) पर निर्भर करता है कि ‘आ’ प्रत्यय को स्त्रीलिंग के बनाने वाले के रूप में देखा जाय और कुछ चेतन संज्ञाओं के मामले में सादृश्यतावश ऐसा होता है। ब्रुगमैन के सिद्धान्त को रोथ ने ‘अविश्वसनीय का शिखर सम्मेलन करार दिया’। यह बहस चलते चलते जब संरचनावादी ब्लूमफील्ड तक आयी तो उसने कहा कि भाषा में लिंग का प्रयोग “यादृच्छिक” होता है। इसके बाद सही माइने में लिंग को लेकर जो बहस चली वह स्त्रीवाद के दायरे में चली। इस लेख का विषय इन बहसों से जुड़ा होकर भी इनसे अलग उन सन्दर्भों को उजागर करना है जिनसे रूबरू होकर ‘भाषा में लिंग’ के मसले पर सार्थक बहस हो सके।

भाषा विकास के इतिहास का एक जरूरी पहलू यह भी है कि उसकी “लैंगिक पहचान” के सन्दर्भों पर गम्भीर चिन्तन किया जाय. भाषा के परम्परागत व्याकरण के नियमों में ही लिंग आधारित विभेदीकरण के तमाम ऐसे सन्दर्भ मौजूद हैं जिनको “लैंगिक अस्मिता” और “स्त्री पक्षधरतावादी” विचार सरणियों के लिए स्वीकार करना आसान नहीं है. लाजमी है कि इन पर सवाल उठें. भाषा जब सामाजिक संरचना के विभिन्न पक्षों को व्यक्त करने के लिए इस्तेमाल होती है तो अपनी अभिव्यक्ति क्षमता के विकास के दौरान उसके अपने भीतर वे तत्व जगह बना लेते हैं जिनमें भाषा की विशिष्ट संरचना की जरूरत के बीज छिपे होते हैं, ये एक तरह का इतिहास बताने के सन्दर्भ भी होते हैं जिन्हें “सत्ताई विचार और जरूरत” ने हासिये पर धकेल दिया होता है या जिनकी पहचान को खुर्द-बुर्द कर दिया होता है. स्त्रीवादी भाषाविद मानते हैं कि भाषा के मौजूदा मतवाद विधिवतरूप से स्त्री के अनुभव और लैंगिक सांगठनिकता की उपेक्षा करते हैं.[ii] भारतीय सन्दर्भ में हमारा एक अपना भाषाशास्त्र रहा है जिसकी इस परिप्रेक्ष्य में परीक्षा होनी चाहिए. लिंग को अनुशासित करने की परम्परा में ही लिंगानुशासन जैसी अवधारणा यहाँ पायी जाती है (लिंगानुशासन नाम से 25 से अधिक ग्रन्थ भाषा शास्त्र के लिखे गये हैं). भाषा संरचना और व्याकरण के नियमों के भीतर चाहे वह वर्णमाला हो, विलोम शब्द हों अथवा लिंग या वचन, समास हों अथवा प्रत्यय जगह जगह एक सुविचारित फलसफ़ा देखने को मिलता है जो उस भाषा की स्वीकार की स्थिति भर में “स्त्री के मनोबल” पर आघात करता है, उसके आत्मविश्वास को ध्वस्त करता है और उसकी दोयमता का फर्जी इतिहास उसकी आत्मा में बिठा देता है।

स्त्री की बात करने से पहले यह सवाल यह उठाया जा सकता है कि भाषा के व्याकरण में “लिंग विधान” की क्या आवश्यकता है?(जबकि आज भी ऐसे दुराग्रहों से मुक्त भाषायें हैं और बखूबी अपनी भूमिका निभा रही हैं, मुण्डारी में लिंग व्याकरणिक नहीं है जीवित चीजें पुल्लिंग है और अजीवित चीजें स्त्रीलिंग हैं।) इसका जबाव केवल “भाषायी जरूरत” के परिप्रेक्ष्य में नहीं दिया जा सकता, भाषा के स्वरूप की सामाजिक एतिहासिक “माँग का स्वरूप और परिपूर्ति प्रकरण” और सत्ता का प्रारूप इस सवाल का जबाव दे सकते हैं. यह माना जाना चाहिए कि लिंग विधान एक socio-political अवधारणा है. भाषाविदों के मतों में – जैसे डॉ.चाटुर्ज्या(1957) इसे प्राकृतिक से वैयाकरणिक की ओर विकसित मानते हैं तो बरो लिंग चयन में यादृच्छिकता और तर्कविहीनता की बात करते हैं और  लिंग विधान को भारतीय भाषाओं में दूसरी भाषाओं की अपेक्षा बाद में विकसित हुआ बताते हैं तो एन्टविसल(1945) एटीशन की भूमिका स्त्रीलिंग के रूप परिवर्तन में दिखती है और ज्यूल ब्लाख का मानना है कि आधुनिक भारतीय भाषाओं में संस्कृत के लिंगों का अनुसरण नहीं किया गया है।

भारतीय भाषाओं के ज्ञात प्रारूपों में सबसे पहले वैदिक भाषा आती है और वैदिक समय के समाज में जब युद्धों का निर्णय समान बल के कारण नहीं हो पाता था तो वाक् युद्ध होते थे और भाषा में लिंग का अज्ञान (संस्कृत वैयाकरणिक प्रतिमानों के परिप्रेक्ष्य में) या अल्प ज्ञान पराजय का कारण होता था. देव और दानव युद्ध में देवताओं की विजय का कारण दानवों द्वारा प्रयुक्त अशुद्ध लिंग ही बताया जाता है.[iii] क्या यह मिथकीय आख्यान भर हैॽ इससे एक तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आता है कि उस समय में वैदिक से इतर भाषाओं की उपस्थिति है जिनका लिंग विधान वैदिक प्रकार से भिन्न है। क्योंकि निर्णय की कुंजी वैदिक भाषा का व्याकरणिक नियम ही हैं (निर्णायक की “रूपधारण” पद्धति का छल इसे स्वीकार्य परिभाषित करता है) इसलिए ‘अन्य’ प्रकार के लिंग प्रयोग अशुद्ध कहे जाते हैं।  एक और सन्दर्भ यह कि विष्णु का बार-बार स्त्री का छद्म रूप धारण करने का भाषाई आख्यान किसलिए है? क्यों एक स्त्री(स्वरूप) ही मन्थन के उपरान्त प्राप्त विवादित रत्नों को बाँटने की अधिकारी समझी जाती है? क्या ऐसा नहीं लगता कि ‘स्त्री रूप धारण करने की तकनीक और कूटनीति’ की विष्णु की सिद्धहस्तता उसके चरित्र के वे महार्थ(अमहार्थ) हैं जिनको पाकर ही वह ऐसा इतिहास(आख्यनिक) रच पाया. ये सन्दर्भ एक तनाव को कहने की सामर्थ्य रखते हैं. यह सन्दर्भ बहुआयामी हैं. भाषा में लिंग प्रयोग के आधार पर युद्ध निर्णय, असुरों को परास्त करने के लिए देवों द्वारा स्त्री का छद्म रुप धारण कर छल करना, अधिकार के निर्णयों में देवों द्वारा स्त्री बनकर(स्वरूप धारणकर) अन्यों के सभी अधिकारों को ग्रस लेना – ये ऐसी कुछ गुँथी हुई कडियाँ है जिनके गम्भीर निहितार्थ हैं. तमाम आख्यानिक तथ्यों से एक बात तय है कि स्त्री उस समय तक “पंच” की भूमिका निभाने लायक सत्ता सम्पन्न है और असुर स्त्री पर विश्वास करते हैं, उनके साथ सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रखते हैं और अभी तक स्त्री की सत्ता इतनी हीन नहीं हुई है कि उसे मूल्य दिये बिना सत्ता संतुलन के एकतरफा किये जाने का सम्भावन किया जा सके. इससे यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि असुरों की भाषा का लैंगिक विधान देवों की भाषा के लैंगिक विधान से अलग है जिसमें लिंग प्रयोग विभेदीकरण के संस्कृत व्याकरणिक नियमों का अनुपालन नहीं करता. दूसरी बात यह भी विचारणीय है कि किसी भाषा में किसी दूसरी भाषा की तुलना के आधार पर लिंग की अशुद्धता का मूल्य-निर्णय कहाँ तक उचित है. कहना ही होगा कि भाषा में लिंग के प्रयोग की राजनीति भाषाई निर्माण प्रक्रिया की देन है। भाषा के निर्मित करने वाले आयाम- सत्ता स्वरूप, जनविसर्जन, सामाजिक गतिविधियाँ, सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रियायें लिंग के प्रयोग को नियामित करते हैं और भाषाचार्यों की परिभाषायें इन्हें लागू करने के उपकरण बनते हैं।

भाषा पर विचार की चर्चा में सबसे महत्वपूर्ण चर्चा पाणिनी के अष्टाध्यायी की मानी जाती है (हालाँकि सूचीबद्ध करने के लिए और भी नाम हैं). यह ग्रन्थ भाषा की राजनीतिक विचारधारा निरपेक्ष व्याख्या रहित नहीं कहा जा सकता है. उसकी व्याख्या के विभाव भले ही वे बाहरी उदाहरण हैं जो प्रचलित हैं पर इस प्रचलन में भी एक ऐतिहासिक सामाजिक संरचना दिखाई पड़ ही जाती है जिसकी व्याख्या आवश्यक है. अष्टाध्यायी में जितनी चर्चा भाषा पर है उससे ‘कहीं अधिक तनाव स्त्री भाषा और विभाषा’ का है. अष्टाध्यायी में स्त्री भाषा पर वे स्पष्ट टिप्पणी करते चलते हैं. स्त्रियों की भाषा को विभाषा[iv] और कई बार जानवरों की भाषा के समान[v] वे कहते हैं. वे विभाषा को तरह तरह से स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं. विभाषा विप्रलापे, विभाषा कर्मकात, विभाषा समीपे, विभाषा सेनासुराच्छायाशाला निशानाम्, विभाषा मनुष्ये, विभाषा रोगातपयो, ‘विभाषा बहोर्धाविप्रकृष्ट काले’. (सभी अष्ठाध्यायी से- और भी ऐसे बहुत से उदाहरण हैं.) विभाषा के प्रति जो रवैया यहाँ दिखता है वह एक अकेले व्याकरणाचार्य पाणिनी का नहीं है, एक भाषाई सत्ता का रवैया है. यह विभाषा को अपने “अन्य” के रूप में देखता है. यही वह कारण है जिसमें पाणिनी को भाषाई अनुशासन के लिए व्याकरण रचने की आवश्यकता पड़ती है. संस्कृत को शुद्ध बनाने और रखने के अभियान की आधारशिला यहीं रखी जाती है और उसे ‘देववाणी’ का दर्जा मिलता है. यहाँ भी एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठ ही जाता है कि जिन कारणों से पाणिनी को संस्कृत के लिए व्याकरण रचने की आवश्यकता हो रही थी क्या वे ही कारण इस बात के लिए उत्तरदायी नहीं हैं कि संस्कृत का लिंगविधान ऐसा रचा गयाॽ इस समय के बाद का रचा गया इतिहास और भाषा की लिंग संरचना के बहुत से आयाम एक दूसरे के साथ मेल खाते हैं।

एक बात यह देखने में आती है कि लिंग को प्राकृतिक और वैयाकरणिक दो विभेद में बाँटने के बाद भारतीय आचार्य परम्परा वैयाकरणिक लिंग पर किसी भी सामाजिक आरोप या प्रभाव का बल पूर्वक खण्डन करती है. वे कहते हैं कि जाति, व्यक्ति, लिंग, संख्या और कारक के आधार पर पाँच अर्थ प्रतिपादक के स्वरूप को निर्मित करते हैं और ये विशुद्ध वैयाकरणिक होते हैं.[vi] यदि संस्कृत व्याकरण के निर्धारणकाल की सामाजिक संरचना और जरूरतों पर ध्यान दिया जाय तो क्या यही पाँच कारक सत्ता को पाने और बनाये रखने की जरूरी शर्तें नहीं हैं? हालांकि आचार्य जोर देकर यही कहते रहना पसन्द करते हैं कि स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसक लिंग शब्द की तीन अवस्था भर हैं और भाषा की संरचना को समाज की संरचना के समानान्तर पढ़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए.[vii] पातंजलि ने महाभाष्य में लिखा कि प्रयोगानुसारेण वैदित्यम् शेषं तु ज्ञैयम् शिष्ट प्रयोगात.[viii] लिंग प्रयोग समाज में शिष्टता का पैमाना बन चुका था यह बात उक्त कथन से स्पष्ट हो रही है फिर भी आग्रह यही कि इसे लौकिक मत मानो, वैयाकरणिक मानो. लौकिकता के निषेध का यह आग्रह भाषा के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं है इसके और भी तमाम सन्दर्भ है जहाँ भारतीय आचार्य परम्परा ज्ञान के भौतिक परिप्रेक्ष्य को रोकती है. मसलन भरत रस की शुद्ध भौतिक आधार पर व्याख्या करते करते एक झटके से यह कहने लगते हैं कि यह अव्याख्येय और ब्रह्मानन्द सहोदर है इसका लौकिक रस से कोई लेना देना नहीं है. भाषा, ज्ञान शास्त्र, साहित्यशास्त्र, दर्शन, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र किसी भी क्षेत्र पर यह बात लागू होती है कि उन्हें सुविचारित तरीके से भौतिकवादी आधारों से हटाकर आदर्श के ऐसे ढ़ाँचे पर जा टिकाया जो स्त्री के प्रति विषमता के मूल्य को प्रश्रय देते थे और गौरवान्वित करते थे.

लिंग पर बात करते समय यदि जनविसर्जन को छोड़ दिया जाय तो तमाम ऐसे सवाल अनसुलझे रह जाते हैं जो भाषा के लिंग पक्ष की सामाजिकता को धुँधला करते हैं। संस्कृत से इतर भाषा की परम्परा में लिंगों के नियमों में “भिन्नता“ या “अतन्त्रता” पाये जाने के दो कराण हो सकते हैं – या तो संस्कृत से पहले की इस इलाके की भाषाओं में लिंग की वही संरचना नहीं थी जो कि संस्कृत की थी, या तो संस्कृत के बाद के जनविसर्जनों में आने वाली भाषाओं में लिंग की भिन्न संरचना थी या तो ये दोनों ही स्थितियाँ अलग अलग समय पर या एक ही समय पर विद्यमान रही। इन स्थितियों का निर्धारण एक कठिन समस्या है, भाषाओं के अपने तथ्यों के अवशेष इन स्थितियों का खुलासा कर सकते हैं। इस प्रक्रिया का पहला चरण है भाषा के भीतर से उन विसंगतियों को सामने लाना जिन पर व्याकरणाचार्य निर्वाक् स्थितियों का कठिन निर्वाह करते रहे हैं।

(यह “भाषा और जन विसर्जन” नाम से भूपाल सिंह द्वारा सम्पादित पुस्तक में संकलित एक बड़े लेख का हिस्सा है)


[i] ग्रिम – Roethe, Gustav. 1890. Zum neuen Abdruck. In: Grimm, Jacob. Deutsche Grammatik. Vol 3. (2nd edition.) Güthersloh: C. Bertelsmann, IX-XXXI.

[ii] Thorne and Stacey , “many gaps were there for a reason, i.e. that existing paradigms systematically ignore or erase the significance of women’s experiences and the organization of gender” (Thorne and Stacey 1993: 168).

[iii] Technical terms of Sanskrit grammar, K.C.Chaterji, p.117

[iv] पाणिनी, अष्ठाध्यायी, द्वितीय अध्याय, द्वितीय पाद, 25वाँ सूत्र

[v] पाणिनी, अष्ठाध्यायी, द्वितीय अध्याय, चतुर्थ पाद, 12वाँ सूत्र

[vi] एकं द्विकं त्रिकं चाथ चतुष्कं पंचकं तथा

नामार्थ इति सर्वेअपि यथाः शास्त्रंर्निरूपिता- वैयाकरण भूषणसार, कौण्ड भट्ट, पृ.49

[vii] पाणिनी अष्टाध्यायी-

[viii] पातंजलि, महाभाष्य, पृ.26

(भाषा और जन विसर्जन किताब का लोकार्पण करते प्रो.इरफान हबीब, प्रो.नित्यानन्द तिवारी, प्रो.कर्ण सिंह चौहान व अन्य)

श्रमिक जन विसर्जन, पीछे छूटल स्त्री अउर ‘जँतसार गीत’

सामान्य

एहि देश के स्त्री के जिनगी क सबले निर्णायक मोड़ ऊ अपरिहार्य स्थायी प्रवासन(विआह) होला जेहि में ओकरे इच्छा अनिच्छा क कौनों मोल नाहीं हउए. ई एगो अइसन प्रवासन बा जेके बलात् या अबलात् के खाना में बाँटल चुनौती भरल निर्णय होई, एहीं ओकरे साथ एगो अउर करुण प्रसंग एहि में जुड़ि जाला जब ओकर पति विदेसिया बनके ओके निपट अकेला छोड़ि के आपन राहि धइलेला. एहि स्त्री के जिनगी के विपति पर कउनौ टिप्पणी कइले में आधुनिक हिन्दी साहित्य अउर ओकर समीक्षा समरथहीन ही लउकेला. भारतीय साहित्य शास्त्र के ‘प्रवास विरह’ जइसन संकल्पना अउर ओकर व्याख्याकार लोग भी ई बतवले क कोशिश नाहीं करेलें कि आखिर एगो विदेसिया के स्त्री के ऊपर ओकरे पति के जायेके बाद का बीतेला अउर काहें ओकर जिनगी जाँता के झींकि के संगे पिसा जाला ?

भोजपुरी क लोग रोजी रोटी खातिर लम्बे समय से देश विदेश जात रहल हउएं. एहि विस्थापन के स्वरूप अउर कारण अलगे से अध्ययन का विषय हउए. हमरे अध्ययन क विषय ऊ स्त्री हउए जवन दोहरा विस्थापन क मार खाएके बाद भी जीएले क कोशिश करेले. एहि दोहरा विस्थापन अउर भारतीय समाज के बन्द संरचना के पाटन के बीच ओकर जिनगी एतना करुण हो जाला के जेके न उ प्रेम से जी सकेले नाहिं छोड़ सकेले. जँतसार गीतन के ओहि स्त्री के रोआई कहल जा सकेला जेकरे पीछे ओकरे जिनगी क दारुन दुःख छुपल हउए. लोक साहित्य में अइसन तमाम प्रसंग पावल जालें जवने में ऐ तरह क करुना लउकेले लेकिन ई सबसे अधिक अभिव्यक्ति तब पवलसि जब रचयिता क रचना वृत्ति अउर ओकरा के अकेलेपन के एकान्त मिलल. एहि के सौभाग्य कहीं या दुर्भाग्य बाकिर जँतसार गीतन क जनम अइसने एकान्त में भइल होई. जँतसार के बनावट से ई पता चलि जाला कि ओके घरे के एकान्त में ही बनावल जात रहल ह.
“जँतबा त गाड़ें सासु ओहि गजओबरिआ हो ना / परेले बहुत गरमिआ हो ना / हमरा के भेजि दिहें सतरंग बेनिआं हो ना / बेनिअवा से मनवा बुझइबै हो ना / कहि दिह मनके दरदिआ हो ना”
जँतसार गीतन के गाये खातिर कउनौं संगिनि क जरूरत नाहिं होला, हाँ केहू संगे मिल जाला तबहू गावल जा सकेला. जँतसार गीतन क सामूहिकता एहि बात में नाहिं होला कि एकरा सब मिलिके गावेला के नाहीं, बालुक एहि में होला कि एक ही गीत, एक ही समस्या, एक ही दुःख, एक ही लय, एक ही विलाप, एक ही करुणा अउर एक ही जीवन प्रसंग सब गीतन के बाँन्हि के राखेला. एक जँतसार के बाद राही में पड़ल दूसरे जँतसार से उठल करुण गीत ध्वनि में कउनों फरक नाहिं कइल जा सकेला. एहि क्षणन में ईहे बुझाला जइसे एक्के जँतसरिया क पुकार हमार पीछा करति बा. ईहे सामुहिकता के असली ताकत हउए, ईहे सामूहिकता क असली अरथ हो सकेला.
अपने पति के विदेस जायेके बाद एहि पितृपक्षीय समाज व्यवस्था के तरह तरह के व्यवहार एहि स्त्री के बार बार विदेसिया के लग्गे ले जालें. ई गमन सदेह नाहीं हो सकेला, एहि क खातिर सपना, सन्देश, या कउनौ दूसर तकनीक के सहारा लिहल जाला. एहि तकनीक ओहि समय के इतिहास अउर ज्ञान पर निर्भर करेला. एहि के कुल क्रियाव्यापार आपन सामग्री ओहि जगत से इकट्ठा करेला. जँतसार गीतन में ‘बटोहिया’ अइसन ही एक तकनीक हउए. अगर एहि गीतन से बटोहिया के बाहर करि देव त ओकरा के बाद इन गीतन के संवेदना में फरक पड़ि जाला, एहि गीतन से जन प्रवासन का पक्ष हटि जाला अउर दुसरका श्रमगीतन जइसन प्रभाव पड़ेला. ”
सुन सुन भइया बटोहिया हो ना
हमरो सनेस ले ले जइह हो ना
हमरो सनेस हमरा पियवा आगे कहिह हो ना.”
एहि बटोहिया के हाथे सनेस भेजला के कल्पना में ओहि स्त्री के मन क सम्प्रेषण केतना तरह के दबावन के झेले के बाद अभिव्यक्ति पावेला, एहि बात क अनुभव कइल जा सकेला. ओहि समय के बजार क तरह तरह क सामान प्रवासी होइके गइल मजूरहन के स्त्री क खातिर पति क बाहर गइला से कमजोर पड़ल प्रस्थिति का क्षतिपूरक बनके उभरेला. एगो गीत बा जेहि में स्त्री सतरंग बेनिआ ले आवे के खातिर सनेस भेजेले. सतरंग बेनिआ या सतरंगी पंखा ओहि समय के बहुमूल्य वस्तु हउए. जहाँगीर कालीन भारत पर फ्रान्सिस्को पैल्सर्ट लिखले बाड़े – मैं अब उन विभिन्न दुर्लभ वस्तुओं का विशेष उल्लेख करुंगा जिनके बारे में विभिन्न अमीरों या बड़े व्यक्तियों द्वारा सिफारिशें की जाती रही हैं एवं हमारे जहाजों द्वारा यहाँ भेजा जाना चाहिए./ ……./ पान के डिब्बे, पंखे के हैण्डिल, मक्खी उड़ाने की पंखियाँ, तश्तरियाँ एवं कप ढक्कन सहित.” एहि पर दुइ तीनि बाति कहल जा सकेला – जँतसार क संवेदना जहाँगीर के समय के आस पास क ऐतिहासिक क्रियाकलापन से मेल खायेला, ओहि समय प्रवासी लोग ओतना दूर जात रहल होईहैं जहाँ से बेनिआ आयात कइल जात रहल होई अउर जहाज क इस्तेमाल व्यापार खातिर होत रहल. ई बाति एके स्वीकार कइले क मजबूत तर्क बनेला कि भोजपुरी क्षेत्र से श्रमिक प्रवास क इतिहास डचन के समय तक जाला. पैल्सर्ट हालैण्ड के साथ भारतीय व्यापार के सन्दर्भ में जवने तरह से पंखा क बात कइले बाड़ें ओसे पता चलेला कि जँतसरिया के खातिर बेनिया खरीदले क हैसियत मजूरहन के ना हो सकेला, एहि तरह क समान अमीर लोगन के खातिर आयात होत रहल. एगो जहाजी मजूर एहि चीजन के परदेसी बजारन से ही खरीद के ले आ सकेला काहे कि उहाँ ई सब समान सस्ता मिलत रहल. दूसर बाति- ई आवागमन मजूरहन के मन पर आवश्यक रूप में असर डारत रहल होई ओकरा सोचले क, अनुभव कइले क अउर प्रतिक्रिया कइले क तरीका ऊहै नाहि रहि गइल होई जइसन प्रवासी भइला से पहिले रहल. ओकरा अपने स्त्री के प्रति व्यवहार क रूप जइसन जँतसारन में लउकेला ऊ स्थानीय पितृपक्षीय व्यवहार से मेल नाहीं खाला. एहि नाते स्त्री क मन में ई विश्वास बइठ जाला कि ओकरा एक मात्र हितैषी एकर पुरुष हउये.
जँतसरिया क एगो सनेस बा जेहि पर बात करे के चाही – ऊ ओकरे प्रिय के जवन सनेस भेजेले ओकरा मतलब हउए कि घरे के भीतर जवन पारिवारिक उत्पीड़न होला (जेहि में सास जाँते के अइसन जगह गजओबरि में गड़वाबेली जहाँ से केहू ओहि स्त्री के देखि न सके, ए बाति क बिना परबाह कइले कि ओहि जगह कार कइल जा सकेला के नाहिं कइल जा सकेला) ओहि बखत में मन के पीड़ा कहल नाहीं जा सकेला पर 1.गरमी से किछू राहते खातिर 2.एहि बाति क ओकरे मन के सहारा मिलेला कि कम से कम ओकरा पति त ओकरे संगे हउए , ई स्त्री चाहेले कि एगो सतरंग बेनिआं भेजवा दे. अइसन छोट छोट सन्दर्भ ओकरा जिनगी क सहारा बनि जाला.


एहि जँतसार गीतन में प्रवासी पतिन के पीछे छूटल कई स्त्री चरित्र हउएं जिन पर बात कइल जा सकेला- जिरवा, चेतली, भगवती, कुसुमा, रजुला, लचिया आदि लेकिन ई सब मिलाके-घूमफिर के एक्के स्त्री क कहनी कहेलें जे के भोजपुरी संस्कृति विशेष में निर्मित स्त्री के जातीय चरित्र के रूप में भी देखल जा सकेला. एहि जँतसरिया के मजूरहा विस्थापन के बाद के स्त्री-प्रस्थिति के प्रतिनिधि के रूप में रखल जा सकेला. एहि जँतसार गीतन के सबसे प्रमुख विशेषता ई हउए कि ई कथा हउएं अउर बड़हन बड़हन कथा हउएं. गाये वाली स्त्रियन के ओकरा याद रखे के क्षमता अउर पिसे जाये वाला आटा क मात्रा ई दू ठो बाति एहि बाति के तय करेला कि गीति क कउन हिस्सा अधिक गावल जाई। बार बार गावल जात रहले के कारन कई बार ‘इहे हिस्सा’ जंतसार के रूप में बचल रहि जाला, बाकी हिस्सा भुला जाला. जँतसार गीतन में सब मिलाके एक्के स्त्री कथा सामने आवेला ई कथा जोड़ि-जाड़िके अइसन बनेले- विआहे के बाद एगो लइकी स्त्री बन जाले. ऊ पहली बार ‘देह’ के गिरफ्त में आ जाले. ‘देह की गिरफ्त’ में आवल स्त्री के जिनगी क सबला बड़हन त्रासदी हउए, एहिसे मुक्त भइल भी आसान नाहीं होला। एहि अवस्था क ई अभिशाप ह कि देह के संगे (बिअहुता लइकी विआहे बाद गवना भइले तक नइहरवे में रहत रहलीं, बाल विवाह के कारण अइसन परिपाटी उत्तर भारत के सामाजिक समीकरणन में पावल जात रहल ह.) केहू दुराचार की मंशा से ग्रसित हो सकेला. (कुँवार लइकिन के संगे अइसन कउनौं भाव के जिक्र नाहीं पावल जाला. भारतीय लोक मानस में कन्या के देवी रूप में स्वीकार कइल जाला. कन्या के प्रति धार्मिक विश्वासन क एगो लमहर श्रंखला जुड़लि हउए.) जइसन कि एहि जँतसार गीतन में मिलेला कदाचित नइहर में केहू के मन में दुराचार क मंशा जाग गइल त ओके (स्त्री के) मरे के पड़ेला. गवना के बाद जब ऊ ससुराल पहुँचेले त गवनहरू दुलहिन के रूप में उतरे से पहिले ही पति का वियोग पावेले. अबहिन इ स्त्री घर पहुँचबे करेले कि पति प्रवास के खातिर निकल पड़ेला, मानों जइसे एहि बात क इन्तजार होत रहल कि कब पत्नि घरे में पइठे अउर पति घर से जाये। ई बात दुसर ह कि ओहि स्त्री क सबसे अधिक फिकिर इहे पति करेला, बाकिर इ चिन्ता ओके जीवन संघर्षन से निजात दियवले खातिर नाकाफी हउए। जाये से पहिले किछू वेवस्था पत्नि से कहि के जा सकेला- चरखा कतिह अउर दिन कटिह. अधिक से अधिक अपना महतारी के ताकीद करिके जा सकेला- पत्नि के खाये के दूध भात दीह अउर पहने के पटोरवा दीह. जदि ओकरा स्त्री बाल बयस क ह तब पति जात जात कुछ चीन्हा छोड़ि जाला (परदेस जात के समय कपड़ा लत्ता पर गोबर क निशान छोड़के गइले क परिपाटी क लोक साहित्य में पता चलेला, गोबर क निशान आसानी से छूटे वाला नाहीं होला. सरल समाज के प्राप्य साधनन में इ सबसे आसान भी रहत रहल होई), जेकरे सहारे बादि में पति पत्नि एक दूसरा के चीन्ह सकें.
पति के जइते ही तरह तरह के शोषण के दौर शुरु हो जाला, सास, ननद, जेठानि के हाथे शारीरिक मानसिक शोषण के भयानक दौर शुरू हो जाला जवन कबहू कबहू त ओहि स्त्री क परान तक ले लेला अउर ओकरे जगह पर कउनौ दूसर स्त्री घर ले आवल जाले. अइसन समय में पति क छोड़ल निशानी काम आवेला, नाहीं त ओकरा जगह दुसरकी स्त्री आसानी से खपि जा सकेला. ससुर या भसुर या देवर के द्वारा एकरा शारीरिक शोषण क सम्भावना बनल रहेला । बारह बरिस बाद पति के लवटले पर शुरू होला एगो नवका सिलसिला-”रामा बरह बरिस पर अइलनि बगिया में गोनिया गिरवलन हो राम/रामा नगर बोलाइ भेद पुछलें धनिया कबने रंग वे हो राम/बाबू राउर धन हथवा क पातरि मुँहवाँ त जोति जगे हो /रामा बड़े रे पुरुखवा क धियवा तीनों कुलवा रखली हो राम/उहवाँ से गोनिया उठवलें दुअराआई उतरलें हो राम/रामा चेरिया बोलाई भेद पुछलें धनिया कबने रेगवें हो राम/बाबू राउर धनि ऍंगुठा मोरि चललीं घुँघुटवा काढ़ि बइठली हो राम/बाबू बड़े रे सहेबबा की धियवा तीनहुं कुलवा तरली हो राम/उहवाँ से गोनिया उठवले ऍंगन गोनि डाले हो राम/रामा मइया ले दउरलीं पिढ़इया बहिनि लेइ पनिया हो राम/रामा माई बोलाई भेद पूछेलें धनिया कबन रंगवे हो राम/बेटा तोरि धनि भरली बिरोग नजरि निचवां रखली हो राम/बेटा देहवा त गइलीं झुराइ मुँहवा जोति बढ़लीं हो राम/बेटा बड़ेरे सजनवां क धियवा तीनू कुल रखली हो राम/उहवाँ से गोनियां उठवलनि कोठरिया में गोनि डाले हो राम/रामा सूतल धनियां जगवलनि जाँघे बइठवलनि हो राम/रामा बहिंयां पकरि भेद पूछलें कहुन धनि कुसल हो राम/परभू रउरा बिन पनवा न खइलीं सोपरिया नाहिं तुरलीं हो राम/परभू अंगना मोरा लेखे रन बन दुअरा सपन भइले हो राम/सामी सेजिया त लोटे कारी नागिन त रउरे दरस बिनु हो राम ।”
बहिन, माई, गाँव गिराँव के लोगन से अपना स्त्री क बारे में पूछताछ कइला के बाद ही इ विदेसिया पत्नि क मुँह देखे बदे तइयार होला.। जदि एहि में कउनौ प्रतिकूलता पावल गइल त इ स्त्री के जिनगी पर फेरो बनि आई . सम्भवत: कउनौ भी तरह के प्रतिकूलता के निराकरण जँतसरिया स्त्री की समझ में ईहै आइल कि सबक सहिके अपना मुंह बन्द रखे के चाही. सहनशीलता की प्रतिमूर्ति क मिथ क निर्माण एही परिस्थितियन क देन हउए. प्रतिकूलता के हालातन में ओकर जीयल दुस्वार हो जाला. शपथ अउर दिव्य क प्रथा अइसने ही समय में थोपल जा सकेला. ”तोहरी तिरियवा बेटा गरबे गुमनिया जाइ सुतेलीं धवरहर हो राम/गोड़वा धोवत बहिनी लागेले चुगुलिया भइया भौजी से लेहुन किरियवा हो राम/मोर पछुअरवा बढ़इया भइया मितवा रे धरम चइलिया चीरि लावहु हो राम/मोरे पिछुअरवा लोहार भइया मितवा रे धरमी कढ़इया गढ़ि लावहु हो राम/मोरे पिछुअरवा तेलिया भइया मितवा रे धरम के तेल पेरि लावहु हो राम/मोरे पिछुअरवा कोहरवां भइया मितवा रे नइहरे खबरिया जनावहु हो राम/जाइ कहिह मोरे बाबा के अगवाँ रे तोरी धियवा चढ़ेली किरियवा हो राम/आजु एकदसिया बिहान दुवदसिया तेरस के लेइहें किरियवा हो राम/आगे आगे आवेला घीउ के गगरिआ हो पीछवा से आवे बीरन भइया हो राम/जितले बहिनियाँ नइहर चलि जइहें हरले पर भरवा झोकाइबि हो राम/बरि गइली अगिया त भभकी करहिया रे बहिनि रे ठाढ़ि किरिया दिहली हो राम।” पति, ससुरारि क लोग अउर भाई के साथे नइहर भी इ कहत हाजिर हउअ कि जदि तुहि दिव्य जीत जइबू तब त ठीक हउए नाहीं त तोहके भाड़ में झोंकवा दिहल जाई. एही दबावन के बीच ओहि स्त्री के खउलत कराही में ठाड़ कइ दिहल जाला.
ऊपर के कथा में प्रवासी हो गइले पुरुष के चलि गइले के बाद बची रहल स्त्री के ऊपर दू प्रकार क संकट आसानी से देखल जा सकेला. 1. पारिवारिक हिंसा के रूप में दिखाई पड़े वाला संकट, 2.स्त्री की देह पर आइल संकट. स्त्री के प्रति यौन हिंसा के भी दू तरह के सन्दर्भ पावल जाला 1- घर के भीतर के लोगों द्वारा कइल जाये वाली यौन हिंसा, 2- घर के बाहर के लोगों द्वारा कइल जाये वाली यौन हिंसा. हिंसा के एगो अउर रूप देखल जाला ऊ ह प्रथा अउर परम्परा के नामे पर कइल जाये वाली हिंसा, जेकरा शिकार केवल प्रवासी क स्त्री ही होले.
अइसन दुःखन के कहनी सुनला भर से भोजपुरी क्षेत्र के स्त्री क कण्ठ से इ गीत फूटेला कि मोरँग मोरँग मों सुनीला मोरँग न जानी हो राम / अरे रामा मोरा पिया चले मोरँग देसवा त हम कइसे जीअबि हो राम”
पति के विदेसिया हो गइला के बाद जवन स्त्री जँतसारन में लउकेले ओकरे जिनगी क एक प्रकार के दुखन क चरचा हम ऊपर कइलीं हं. एक दूसर तरह क दुख ओकरे जिनगी में पावल जाला ऊ भी कम महत्वपूर्ण नाहीं हउएं. इनके हम स्त्री क भावात्मक दमन emotional suppression कहि सकेलीं. ओहि से पहिली उम्मीद कइल जाला -ए राम घींचि बान्हे आंचरवा; त बाबा कुलवा रखिह हो राम।”. ई पवित्रता का आग्रह ओकरे मन पर अइसन प्रभाव डालेला कि ओकरी जिनगी बीमार मन की शिकार हो जाला. पत्नि क पवित्रता, सतीत्व जेकरा सीधा सम्बन्ध कुल अउर वंश के मरजाद रखला से हउए, पर ई प्रवास ओहि पर बड़ा संकट खड़ा कइ देला. एकरा से भी जियादा संकट ऊ सामाजिक मानसिकता खड़ा करेला जे ई मान के चलेला कि स्त्री त चरित्रहीनता करे के ताक में बइठल रहेले. एहि पूरा संवेदना वृत्त के एहि तरह से भी समझे के चाही कि कई जँतसार गीतन में घरे के लोगन के द्वारा दुराचार क शिकार बनावे क प्रयास ओकरे मन क एतना आतंकित मनस्थिति में ले आ देला कि जवना क जबाव स्त्री जान देकर देले.
एहि स्त्री क चरित्र के पहिचाने के किछु वस्तुगत लक्षण निर्धारित कइल रहला- पीयर दिखे के चाही, कुरूप दिखे की चाही, हँसि बोल नाहीं सकेले, सिंगार नाही कइ सकेले, खुश नाहीं दिख सकेले. जदि केहू से इहि सब छीन लिहल जाइ त ओकरे जिनगी क कउन मतलब हो सकेला. समाज इहि में कउनौ तरह क फिसलन बरदास्त नाहीं कइ सकेला. इ देख के कहल जा सकेला के पति क प्रवास स्त्री के जिनगी में कइसन कइसन कष्ट लेके आवेला.
एगो बात अउर हउअ के एहि गीतन क स्त्री बिना सन्तान के पावल जाले. इहे नाहीं जन विसर्जन के अउर दूसर साहित्य में भी स्त्री बिना सन्तान वाली ही पावल जाले जइसे सन्देश साहित्य में. इ बात निरर्थक नाहीं हो सकेला. सन्तान होएके बाद स्त्री क प्रस्थिति बदलि जाले. एकर कइ एक कारण हउएं. काम काज क टाइप, उमिर बढ़ले से बदलल प्रस्थिति, पारिवारिक आर्थिक संरचना, सन्तान से भावात्मक लगाव आदि ओकरे पति के दुवारा से प्रवासी नाहीं होवे ला, एहि से ओकरा के कहानी जँतसार के मनोभूमि से बाहर हो जाला. सन्तान भइला के प्रसंग जँतसार के परिशिष्टि में आवेला.
इ गीत उ दरपन हउए जेहि इ देखल जा सकेला क उ स्त्री क मन प्रवास क कइसन अनुभव करेले. राही क बारे में, पति के रहले के जगह अउर परिस्थिति क बारे में, ओकरा जिनगी क बारे में ऊ जानल चाहे ले. इ जानकारी क कई अलग अलग स्रोतन के आधार पर ऊ आपन समझ बनावेले. पूरब क ओर जाये क बात या दक्षिन के खोजे क बात ओकरे स्पष्ट भौगोलिक समझ क द्योतक नाहिं कहे जा सकेलें, काहे कि दिशा के अलावा अउर कउनौ सन्दर्भ उ कम ही सुमिरेले पर जब जगह क नाम लेहे तो साफ साफ बोलेली – मोरंग अउर उहाँके नवरंगिया सब जानेलें . मोरंग से लाइल गइल नवरंगिया बाग क संस्कृति क एहि गीतन में एक महत्व हउए. ई मोरंग जँतसरिया स्त्री के मन में भीतरे चुभेले. नारायनी नदी क अगम पानी एहि स्त्री के मन में नदी के पार करे समय पति के जिनगी पर मड़रात खतरा के नाई प्रभाव छोड़ेले. ओकरे मन में अपना पति क एक छवि बइठेले ओकरे लम्बे लम्बे बालन , हाथे में गुरदेलिया, लोटा डोरी. इह छवि स्थानीय लोगन के छवि से अलग हउए. एहि स्त्री क इन्तजार विकट हउए- कहिके गइले पियवा जे छव रे महीनवा; आरे बीति गइले बारहो बरिस रे बिदेसिया। दिनवा गनत मोरे ऍंगुरी रे खिअइली; आरे बटिया जोहत नयना लोर रे बिदेसिया। इ एक अनपढ़ स्त्री के मन के तरह तरह से तोड़ेले, ओकरे खातिर बारह वियोग लेके आवेले.
एगो जरूरी बाति इ उ हउए की प्रवास क नाते इ स्त्री के आर्थिक जिनगी कइसन हो जाला ? ओकरे पति क कइल गइल इन्तजाम कारगर नाहीं हो पावेला. ओकर लगावल बाग तक झुरा जाला. ओकरा क आर्थिक विपति के दिन में ओकरा भाई बाप तक रास्ता काट के जाला, केहु ओकरा मदद् करे के तैयार नाहीं होला. संयुक्त परिवार के आर्थिक तंगी क राजनीति एहि के पति के आमदनी के लेये खातिर त हर समय तइयार रहेला पर एहि के पेट परदा पाले खातिर एगो चरखा पकड़ा देला. इ जिम्मेदारी उठायेके तइयार नाहीं होला. एहि स्त्री के इ दुख त बा, के ओकरे जिम्मेदारी के बखत सबकेहु मुँह फेरि लिहलस, पर इ का दुख नाहीं बा के ओकरे चरखा के सहारे जिनगी काटे के पड़ति बा. एहि में ओकरा जिजीविषा दिखाई पड़ेला.