स्त्री-वस्तुकरण की प्रक्रिया और राधा का विकास

सामान्य

स्त्री-वस्तुकरण की प्रक्रिया और राधा का विकास

‘राधा’ का नाम सामने आते ही एक ऐसी स्त्री सामने आती है जो ब्रज की होकर भी ब्रज की स्त्रियों से कहीं भी मेल नहीं खाती। बिना आत्मा की ऐसी स्त्री जो मात्र ‘तन'(देह) तक सिमट कर रह गयी है, जिसका बिना पूछे जिस काव्यशास्त्रीय सन्दर्भ में चाहो प्रयोग कर लो। ‘राधा’ को ‘श्रीराधा’ और ‘राधा’ दोनों बनाने के प्रयासों ने अन्तत: ऐसी प्रक्रिया को अन्जाम दिया जो स्त्री को वस्तु बनाकर अपने लिए उपयोग में लाने में सफल रही। स्त्री के वस्तुकरण की प्रक्रिया सदियों से विद्यमान है। तरह तरह से पितृपक्षीय विचार सृष्टियां स्त्री को वस्तु बनाने की कोशिश में न जाने कितने प्रयास करती आयी हैं। ऐसा ही एक प्रयास ‘राधा’ के विकास के रूप में हमारे सामने है। राधा के सम्बन्ध में कम से कम तीन पक्ष ऐसे हैं जो राधा की निर्मित त्रिविमीय तस्वीर को हमारे सामने लाते हैं। एक आयाम वह है जो सदियों लम्बी समय रेखा में साहित्यकार का मन रच रहा था, दूसरा मध्ययुग का दार्शनिक, चिन्तक और धर्माचार्य तैयार कर रहा था और तीसरा वह जिसे हिन्दी के आधुनिक चिन्तक आलोचक ने व्याख्यायित किया। ये तीनों कड़ियां एक दूसरे के साथ बहुत गहरे जुड़ी हैं। तीनों ही पितृपक्षीय हैं। राधा को इस रूप में तैयार करने के निहितार्थ किसी भी माइने में सराहनीय नहीं कहे जा सकते क्योंकि इन्होंने अन्तत: स्त्री जाति को वस्तु बनाने का प्रयास कर अपने अपने उल्लुओं को सीधा करने का प्रयास किया। लेकिन हमारे लिए भाषाई साक्ष्य के रूप में, सांस्कृतिक तथ्यों के रूप में, साहित्यिक निर्मितियों के रूप में तमाम ऐसे साक्ष्य उपलब्ध हैं जो इन दुर्निवार प्रयासों की छाया को अपने भीतर से उद्धाटित करने की क्षमता रखते हैं। इन साक्ष्यों के आधार पर हम स्त्री इतिहास के उन अध्यायों को पढ़ सकते हैं जो अभी तक अंधेरों में रहे हैं। विशेष रूप में यहां उल्लेखित करना चाहती हूं कि राधाओं का सम्बन्ध जिस क्षेत्र से है आज आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के लगभग दो सौ वर्ष होने पर भी स्त्री अनुपात पूरे उत्तर भारत में सबसे कम वाले क्षेत्रों में से एक है जो इस बात को रेखांकित करता है कि सभी क्षेत्रों में स्त्री के प्रति रवैया सन्तोष जनक नहीं है चाहे वह सांस्कृतिक क्षेत्र को, धार्मिक क्षेत्र को अथवा बौध्दिक क्षेत्र।
आरम्भिक दौर में राधा की चर्चा एकाध पंक्ति, एकाध श्लोक फिर दो चार श्लोक और फिर नवी दसवीं सदी में एक स्वतन्त्र कथा के रूप में सामने आती है। किसी भेज्जल कवि का राधा विप्रलम्भ नाटक राधा पर लिखी पहली कथा डॉ.लाहा ने बतायी है। बारहवीं सदी में जयदेव का गीत गोविन्द पाया जाता है, राधा के विरह की करुण कथा। वल्लभाचार्य के समय से पहले राधा के कुछ ही सन्दर्भ पाये जाते हैं। कृष्ण कथा और कृष्ण के चरित्र को सामने लाने वाले भागवत पुराण में राधा नहीं है। वल्लभाचार्य और उनके आसपास के कृष्ण भक्ति सम्प्रदायों को राधा के इस रूप में विकास की क्या आवश्यकता थी? यह एक प्रमुख ऐतिहासिक सवाल है जिस पर गम्भीरता से विचार होना चाहिए। माना जाता है कि ”राधा का प्रथम प्रकाश संभवत: हाल की प्राकृत रचना गाहासतसई या गाथा सप्तशती में हुआ जो प्रथम शताब्दी की रचना है।” यह बात मैनेजर पाण्डेय , दासगुप्ता, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि विद्वानों ने समान रूप से स्वीकार की है। इससे पूर्व राधा शब्द ऋग्वेद में बहुत बार आता है और ऋग्वेद के भाष्यकार अक्सर उसे समृध्दि और धन के रूप में ग्रहण करते हैैं। मेरा विचार है कि धन या समृध्दि या ऐश्वर्य के अर्थ में भी राधा (रा:+धा=रा को धारण करने वाली, यह स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होता है।) सामान्य धन या समृध्दि का सूचक नहीं है धनवान या समृध्दिवान स्त्रियों के सन्दर्भ का सूचक है, जो कि निजी सम्पत्ति के विकास प्रकरण के दौरान समृध्दि वाचक शब्द बन गया है। उदाहरण के रूप में ‘स्त्रोतं राधानाम् पते गिर्वाहो वीर यस्य ते। विभूतिरस्तु सूनृता।’ स्पष्ट है राधा स्त्री के बहुवचन को राधानाम् या राधाओं कहा जायेगा। ‘कथा राधाम सखाय: स्तोम मित्रस्यार्यम्ण:। महि प्सरो वरुणस्य।’ ‘उदीरय प्रतिमा सूनृता उषश्चोद राधो मघोनाम्।’ आ धा योषेव सुनयुर्षा यााति प्रभुज्जती। जरयन्ती वृजनं पद्वदीयति उत्पातियाति पक्षिणं। तव राध: सोमपीथाय हर्षते । अपामिव प्रणवे यस्य दुर्धरं राधो विश्वायु शवसे अपावृतम। उक्त सभी सन्दर्भों में राधा को व्यक्त करने वाले शब्द(राधानाम्, राधाम, राधो, राध: आदि) अपनी प्रकृति में बहुवचन हैं, जाति वाचक संज्ञा के सूचक हैं। धन या समृध्दि को कहीं भी धनों या समृध्दियों जैसे बहुवचन में प्रयोग नहीं किया जाता(मुद्रा को अवश्य ही बहुवचन में प्रयोग में लाया जाता है यथा मुहरें, स्वर्ण मुद्रायें)। महाभारत में राधा कर्ण की पालक माता के लिए प्रयोग में आया है। कर्ण एक सन्दर्भ में यह विश्वास दिलाता देखा जाता है कि वह सूत पुत्र और राधा पुत्र के नाम से जाना जायेगा, न कि कौरवों के मित्र या पाण्डवों के शत्रु के नाम से। ध्यान देने योग्य बात है कि जब कर्ण पिता के लिए उसकी जाति(सूत) का सम्बोधन व्यक्त करता है तो माता के लिए भी जाति(राधा) का सम्बोधन ही प्रयोग में लायेगा अन्यथा भाषा दोष पूर्ण हो जायेगी। और जैसा कि दूसरे सन्दर्भ भी बताते हैं कि तब तक राधा जाति सूचक शब्द है। कर्ण माता साफ शब्दों में कहती है कि पुत्र हम कुरुओं और पाण्डवों में से नहीं है। राधायें इन मुख्य धारा की सामाजिक संरचनाओं से अलग हैं। देखा जा सकता है कि गाहा सतसई के समय तक भी वह जाति वाचक संज्ञा ही है।”मुहुमारुएण तं कहण गोरअं राहिआएँ अवणेन्तो/ एताणं वलबीणं अण्णाणं वि गोरअं हरसि॥” दो प्रकार की स्त्रियां वल्लभियां और अन्य। राधिकाओं को ही वल्लभियां कहा गया है और वल्लभियों का अर्थ है राधिकायें या राहिआएं। यह जाति वाचक संज्ञा कब व्यक्तिवाचक संज्ञा में बदल गयी देखना काफी दिलचस्प है और राजनीतिक भी। उक्त दो उदाहरणों से साफ तौर पर देखा जा सकता है कि ऐतिहासिक विकास के संश्लिष्ट स्वरूप के बावजूद हाल के समय तक जिन स्त्रियों को ऋग्वैदिक काल में राधा कहा जाता उनके लिये वही सम्बोधन प्रचलित था।
राधायें मातृ सत्तात्मक समाजों के वृत्त में कहां पर हैं इस पर गम्भीर विवेचन की आवश्यकता है। यह निर्णय लेना इसलिए कठिन है क्योंकि राधा जाति वाचक है और पूरी जाति की पूजा मातृपूजा का कोई उदाहरण अभी तक नहीं पाया गया है और साथ ही राधा के साथ कहीं भी मातृ भाव का कोई भी अवशेष नहीं पाया जाता है। राधा जाति से सम्बन्धित कौन मातिृकायें रही यह अभी स्पष्ट नहीं है। डी.डी.कौशाम्बी ने मिथक और यथार्थ में मातिृकाओं के सम्बन्ध में गम्भीर साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं जिनमें तुलसी, वृन्दा, पूतना आदि के साथ सौ से अधिक मातिृकाओं की चर्चा की है लेकिन उसके आधार पर यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि राधाओं से सम्बन्धित मातिृकायें कौन सी है कौन सी नहीं हैं। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि राधायें ऐतिहासिक रूप से विजेता जातियों से सम्बध्द नहीं हैं (क्योंकि ये कभी पटरानी का दर्जा पाने के योग्य नहीं समझी गयी चाहे वे कृष्ण की परकीया रही हो अथवा स्वकीया)। इनकी सामाजिक संरचना की पहचान वैदिक से भागवत तक के इतिहास में खोजी जा सकती है। एक बात साफ है कि जो स्त्रियां (राधायें) वैदिक साहित्य में इन्द्रों के साथ मैत्रिक सम्बन्ध योजना में देखी जाती है उन्हें कृष्ण के साथ महत्व पाने में कम से कम छठवीं सदी तक का समय लगा। इस प्रक्रिया में कितने तरह के सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव हुए, यहां तक कि स्वयं इन्द्रों को भी कृष्णों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी और फिर कालान्तर में ये दोनों भी व्यक्तिवाचक संज्ञा में बदले। यह ‘स्त्री इतिहास’ सम्बन्धी समस्या के समाधान के लिए एक महत्वपूर्ण तथ्य है जो पितृपक्षीय भूमिकाओं के कुछ सन्दर्भों को उजागर करता है।
राधा के विकास के सम्बन्ध में दो महत्वपूर्ण थीसिस विद्वानों ने दी हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ”1.राधा आभीर जाति की प्रेमदेवी रही होगी जिसका सम्बन्घ बालकृष्ण से रहा होगा। 2. राधा इसी देश की किसी आर्यपूर्व जाति की प्रेमदेवी रही होगी, बाद में आर्यों में इनकी प्रधानता हो गयी होगी और कृष्ण के साथ इनका सम्बन्ध जोड़ दिया गया होगा।” द्विवेदी जी न तो इस देवी के पाये जाने का कोई साक्ष्य देने की जरूरत महसूस करते है, न ही आर्यों के साथ इसके जोड़े जाने के समय और परिस्थितियों के खुलासे की आवश्यकता महसूस करते हैं। उनकी यह पूरी की पूरी थीसिस अनुमान (ऐसा रहा होगा) पर आधारित है। एक और महत्वपूर्ण बात हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि ”राधा की भक्ति का नया रूप दक्षिण से आता है।” राधा की भक्ति का पुराना रूप कौन सा प्रचलित था इसके बारे में आचार्य द्विवेदी के पास कोई प्रमाण नही हैं। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि वह कौन सी ऐतिहासिक आवश्यकता थी कि आचार्य द्विवेदी को राधा के विकास को बिना किसी साक्ष्य के इस तरह से रेखांकित करना पड़ा? इस आवश्यकता को आधुनिक भारतीय बौध्दिक परिदृश्य के विकास में अन्तर्निहित उन तथ्यों के साथ जोड़कर देखना होगा जो परम्परा के आधुनिकीकरण को लेकर द्वन्द्वग्रस्त थे। इन्हीं तत्वाें के कारण आधुनिक युग में भी स्त्री के वस्तुकरण की प्रवृत्ति को बल ही मिला। विध्दानों ने ‘हाल’ की भाषा को आभीरों की भाषा के समान या मिलाजुला माना है। गाथा सप्तशती की में राधा कहीं से भी प्रेम की देवी नहीं लगती है। इस तथ्य को ‘हाल’ के ऊपर दिये गये उदाहरण मेें देखा जा सकता है। जहाँ भी प्रेम प्रसंग में नायिका देखी नहीं कि उसकी छवि पर राधा का आरोप कर उसे देवी कह दिया जाय तो क्या उसे प्रेम की देवी मान लिया जाय? डॉ. दासगुप्ता कहते हैं कि लगता है ‘छठी शताब्दी के अन्दर ही राधाकृष्ण का उपाख्यान प्रेमगीत और तुकबन्दियों के रूप में आभीर जाति की छोटी सी परिधि का अतिक्रमण करके विशाल भारत के भिन्न भिन्न अंचलों में फैल गया था’। हम यहां दो सवाल उठाना चाहते हैं एक-आज भी देश के विभिन्न अंचलों में राधा के सम्बन्ध में प्रचलित तुकबन्दियों में राधा को किसी पूजनीय भाव में नहीं व्यक्त पाया जाता है और देश की धर्मभीरु जनता में यह क्षमता नहीं रही है कि किसी भी देवी देवता को लेकर पूज्य से अश्लील तक का सफर वह आसानी से पार कर सके। दूसरा- यह कि जब हाल के यहाँ ‘राहियाएं या राधिकाएं’ पाया जाता है तो फिर उसे प्रेम की देवी ‘राधा’ कैसे कहा जा सकता है? छठी शताब्दी पूर्व के ‘राधाकृष्ण के आभीर उपाख्यान’ का स्रोत क्या है? इन बातों का खुलासा करने में दासगुप्ता कोई रुचि नहीं दिखाते। डॉ.शशिभूषण दासगुप्ता के अनुसार ”राधावाद शक्तिवाद के विकास का परिणाम है।” इससे इस बात का पता नहीं चलता कि राधा के विकास के पीछे कौन सी शक्ति है, दूसरी बात वे कहते हैं कि ”प्राकृत नायिका ही राधा में रूपान्तरित हुई।” कोई भी आसानी से पूछ सकता है कि संस्कृत भाषी परम्परा को अपने शक्तिवाद के लिए प्राकृत भाषी आभीर स्त्री(नायिका) को देवी बनाने या देवी के रूप में ग्रहण करने या देवी के रूप में विकसित करने की कौन सी आवश्यकता थी? दूसरे यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि राधा प्रसंग में विरह ही एक मात्र भाव है जो साहित्यकारों का लक्ष्य रहा है। राधा के विरह में क्या परिभाषित करने की परिकल्पना कवियों के मन में व्याप्त रही? एक तरफ विरह तन्त्र दूसरी तरफ राधा का विकास ये दोनों आपस में सम्बध्द हैं और सामाजिक प्रक्रियाओं के स्त्री विपक्षी होने की कहानी कहते हैं। वस्तुत: यह स्त्री के निर्मितीकरण (conditioning) की राजनीति का दबाव है जो पितृपक्षीय विचारसरणियों को इस तरह से विवेचन प्रस्तुत करने के लिए विवश करता आया है। भक्तिवाद का पूरा ढ़ाँचा तब तक स्त्री के प्रति मध्ययुगीन व्यवहार को अनुमन्य नही बना सकता जब तक कि राधा जैसी संरचना का विकास न कर डाले और मध्ययुगीन संस्कृति से संघर्ष की इच्छा और शक्ति दोनों का अभाव तो उसमें पहले से हैं ही ।
राधा के विकास के सन्दर्भ में मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं कि ” भागवत पुराण दक्षिण भारत की रचना है। भागवत पुराण में राधा का अभाव है। सम्भवत: राधा उत्तर भारत के मानस की सृष्टि है।…..आठवीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में राधा के स्वरूप से अपरिचित था।” दूसरी बात वे कहते हैं कि ”भागवत धर्म की मानवीय प्रवृत्तियों के कारण शक, यवन एवं आभीरों ने उसे अपना लिया और वे अपने को वासुदेवक कहने लगे।” जब उन्हीं की मान्यतानुसार ‘श्रीकृष्ण नवीं शताब्दी ई.पू. में प्रसिध्द थे’ और इस तर्क वृत्त के अनुसार निश्चित ही इन्होंने(आभीर आदि ने) श्रीकृष्ण को भागवतों से स्वीकार किया और अपनी देवी को उसके साथ जोड़ा होगा। आभीरों का आगमन पहली सदी से बाद का नहीं माना जाता है। क्या पहली सदी से आठवीं सदी तक दक्षिण के साथ सम्प्रेषण इतना बाधित रहा कि राधा(यदि कहीं से भी वे कृष्ण के साथ महत्वपूर्ण सम्बन्ध रखती थी तो) का नाम उनको सुनाई नहीं पड़ा? यह बात तर्क पूर्ण नहीं मालूम पड़ती। मैनेजर पाण्डेय इस झमेले से निकलने का सरल रास्ता बताते हैं ”राधा निश्चय ही प्रारम्भ में लौकिक प्रेम देवी रही होंगी।” लौकिक प्रेम देवी और अलौकिक प्रेम देवी का विभाजन तर्क वे स्वयं और अकेले ही जानते हैं अथवा लौकिक-अलौकिक का अन्य अर्थ वे ग्रहण करते हों तो पता नहीं। बहरहाल पाण्डेय जी के तर्क से साफ तौर पर यह सामने आता है कि ‘अलौकिक देवता(कृष्ण) के किसी खास आकर्षण के कारण लौकिक प्रेम देवी (राधा) उसकी दिवानी हो गयी’ उन्हें राधा और कृष्ण के इस मिलन में वे सामाजिक सरोकार नहीं दिखाई देते जिनमें सत्तावान कृष्णों सें प्रेम करना राधाओं की मजबूरी है। पाण्डेय जी लिखते हैं कि ”कृष्ण राधा की आस्था है और राधा कृष्ण की कामना।” मजबूरी को आस्था का नाम देना पितृपक्षीय नजरिये का परिणाम है। जहां तक भागवत की कथा में राधा के न पाये जाने का सवाल है जब यह कृष्ण कथा दक्षिण भारत के ज्ञानपिपासुओं ने उत्तर भारत से प्राप्त की होगी तब उस कथा में राधा नहीं रही होगी क्योंकि यह भी बहुत सम्भव है उत्तर भारत में भी राधा को कभी देवी ही न माना गया हो। हमें इसका कोई साक्ष्य नहीं मिलता कि राधा नाम की कोई देवी कहीं थी। आभीरों की सांस्कारिक संकुल संरचना में कोई भी अवशेष इस बात को संकेतित नहीं करता कि राधा नामक देवी सम्बन्धी कोई पूजा अर्चना या स्मृति है। यह भी कि माताओं (मातिृकाओं) की अर्चना संरचना में काम या प्रेम या श्रंगार को प्राय: स्थान नहीं दिया जाता रहा है। भागवतोपरान्त विकसित राधा की संरचना निश्चित रूप से एक नये तरह की परिघटना है जो कम से कम नये तरह के सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य की मांग पर निर्मित है। भक्ति काव्य से पहले जितने उदाहरण राधा के पाये जाते हैं उनमें राधा को कामकेलि कुपिता राधा के रूप में चित्रित किया गया है। इस राधा को भक्ति के दर्शन में कृष्ण काव्य परम्परा इसीलिए ढ़ाल पायी क्योंकि उनकी मांग को राधा का यही स्वरूप पूरा कर सकता था जिसमें उस दर्शन के अनुकूल ढ़ाले जाने की सम्भावनायें थीं। राधा यदि अपने इतिहास में जैसी हम देख पा रहे है वैसी न होती तो शायद कृष्ण काव्य उसका वस्तुकृत उपयोग न कर पाता।
ब्रज क्षेत्र के कुछ सांस्कृतिक तथ्यों का अध्ययन राधा के सम्बन्ध में बेहद महत्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध कराता है। ब्रज क्षेत्र होली के लिए प्रसिध्द है और यह होली राधा कृष्ण कथा का हिस्सा भी है। होली के बहुत सारे पक्ष हैं और हो सकते हैं पर कुछ ऐसे हैं जो आज सीमान्त हैं लेकिन स्त्री इतिहास की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। होलिका दहन के प्रचलित आख्यान से अलग एक तथ्य यह भी है कि स्त्रियों द्वारा कुछ ऐसे कलातथ्यों का निर्माण किया जाता है जो किसी युध्द के अवशेष जैसे हैं जिनमें एक ढाल की आकृति होती है, एक गोलरी जो किसी सिरस्त्राण (मुढ़ासा) जैसी होती है और एक बैलगाड़ी नुमा आकृति। ये कला तथ्य स्त्रियों द्वारा गोबर से निर्मित किये जाते हैं और घर के भीतर जलाये जाने वाली होली के लिए प्रयोग में आते चले आ रहे हैं (ऐसा केवल ब्रज क्षेत्र में ही पाया जाता है), इनमें से कुछ को स्मृति चिन्ह के रूप में दरबाजों पर टांगा भी जाता है। होलिका प्राय: चौराहे पर दहन की जाती है जहां कि मातिृकाओं के निवास स्थान हैं (चतुष्पथ निकेतना, चतुष्पथरता) और किसी मातिृका होलिका को जिन्दा जलाये जाने की कथा उसके साथ सम्बध्द है। भारतीयता की सहिष्णुता की भूरि भूरि प्रसंशा की जाती है लेकिन उसकी निर्दयता एक जिन्दा जलाई गई स्त्री की चिता पर खुशी मनाने और उस चिता की आग पर अन्न भूनकर आपस में बाँटने में देखी जा सकती है। लेकिन स्त्रियां इससे अलग ढाल, गोलरी और बैलगाड़ीनुमा आकृतियों से निर्मित ढ़ेर को (जिसे घुलघुली कहा जाता है) जलाती हैं। दूसरा यह कि यह एक मात्र ऐसा अवसर होता है जब राधाओं से सम्बन्धित माने जाने वाले क्षेत्रों में स्त्रियां लाठियों द्वारा पुरुषों पर प्रहार करती हैं अन्तत: पुरुषों को भागना पड़ता है। इस अवसर पर लाठियां और ढ़ाल दो ही अस्त्रों का प्रयोग होता है और एक ढ़ालनुमा कलातथ्य जिसे ढाल कहा जाता है, को हम जलाये जाते हुए भी देखते हैं। बहुत सम्भव है कि ये कलातथ्य किसी ऐेसे संघर्ष की स्मृतियां हैं जिसे स्त्रियों ने जीता था और यह बरसाने की लठामार होली उसी का नाटय अवशेष है। जिन लोगों को इन राधाओं ने अपने स्वत्व की लड़ाई में परास्त किया वे बैल गाड़ियों से आये थे, जिन्होनें सिर पर मुढ़ीसा या मुढ़ासा बांधा हुआ था जिनका उद्देश्य स्त्रियों को मारना नहीं था क्योंकि बचाव के लिए ढ़ाल पाया जाता है मारने के लिए कोई हथियार नहीं। ये स्त्रियों पर कब्जा करना चाहते थे। अपनी जीत की खुशी में स्त्रियों ने इनके छीने हुए अथवा भागते समय छूट गये अस्त्र शस्त्रों को इकट्ठा कर जलाया होगा। बरसाने की लठामार होली में ‘कृष्णों के पीताम्बर’ छीन लेना, उनका भागना और फिर लौटने के चुनौती देते जाना देखा जा सकता है और स्त्रियों द्वारा फिर न आने की चेतावनी देना। ये सब तथ्य उस इतिहास कथा के ही अवशेष मालूम पड़ते हैं। ब्रज के गाँव गाँव में यह लठामार प्रचलित रही है। पुरुष स्त्रियों की देह पर अधिकार करने की इच्छाओं को खुले तौर पर प्रकट करते हैं और स्त्रियां लाठियों से इसका प्रतिरोध करते हैं। दूसरे यह कि ऐसा अपनी स्त्रियों के साथ(जो कभी स्वकीया का रूप था) नहीं दूसरों की स्त्रियों (जो कभी परकीया के रूप में जानी जाती होगीं) के साथ होता है। हम इस पूरे सन्दर्भ से जो बात सामने लाना चाहते हैं वह यह कि वैदिक राधाओं का व्यक्तित्व कहीं भी इस तरह की नहीं पाया जाता कि जिसमें वे मजबूर दिखें वे प्राय: मित्रवत सम्बन्धों में जीती हैं। इतिहास के प्रवाह में कृष्णों का बढ़ता प्रभुत्व राधाओं के साथ जोर जबरदस्ती, राधाओं से देह के अधिकार को छीनने की कहानी कहता है जिसका वे यथा सम्भव प्रतिरोध भी करती हैं। अष्टाध्यायी की रचना करते समय पाणिनी ने एक सूत्र निर्मित किया ‘राधो हिंसायाम्’। इसका वैयाकरणिक महत्व जो भी हो पर इस सूत्र की निर्मित के पीछे जो सामाजिक प्रक्रिया कार्य कर रही है वह यह बताती है कि राधाओं और हिंसा के ऐतिहासिक सम्बन्ध का अनुभव पितृपक्षीय शास्त्र रचना में विभाव की भूमिका में दिख रहा है। हिंसा और हनन अलग अलग कृत्य हैं। हनन जान से मारने का द्योतक है जबकि ंहिंसा शारीरिक आघात तक सीमित है। राधाओं के साथ हनन को नहीं हिंसा को जोड़ा गया है और उक्त पूरा घटना व्यापार इस बात को साबित करता है कि राधायें लाठी का प्रयोग जान से मारने के लिए नहीं बल्कि आत्म सम्मान और आत्मरक्षा के लिए ही करती रही है।
भक्तियुग में राधा के विकास में निम्बकाचार्य और वल्लभाचार्य का विशेष योगदान है लेकिन साहित्य में राधा के प्रभाव वाली रचनायें वल्लभ सम्प्रदाय का ही परिणाम रही खासकर अष्टछाप का। वल्लभाचार्य भी उसी दक्षिण भारत से आते हैं जहाँ भागवत पुराण की रचना हुई मानी जाती है। उस दक्षिण में कहीं भी राधा की आराधना नहीं पायी जाती। उत्तर भारत में भी राधा का बारहवीं सदी से पुराना कोई ऐसा रूप नहीं मिलता जहाँ वह पूजनीय हों। भक्ति को रस के रूप में स्वीकार किये जाने की परिघटना रूप गोस्वामी जीवगोस्वामी के समय की ही है साथ ही नायिका भेद की विषद व्याख्या में भी उज्ज्वलनीलमणि का महत्वपूर्ण योगदान है। राघवन तो अकब्बरशाह की श्रंगार मंजरी (तेलगू में रचित) को नायिका भेद के सम्बन्ध में अधिक प्रभावकारी मानते हैं। अर्थात हिन्दी में नायिका भेद के ये दो स्रोत हैं जो एक बंगाल से आता है दूसरा दक्षिण भारत से और ये कुल मिलाकर 360 तरह की नायिकायें यौन चेष्टाओं के आधार पर ब्याख्यायित करते दिखते हैं। दोनों ही भक्त हैं और नायिका भेद के पुजारी भी। (भक्ति के आधार में भक्तों के बीच भेदों का संहार प्रमुख है जबकि नायिका भेद चेष्टा मात्र के आधार पर भेदों की झड़ी लगा देता है।) उज्ज्वलनीलमणि के तो नायिका भेद सम्बन्धी विवेचन का आधार ही राधा हैं। वल्लभाचार्य दो नई बातें सामने लाते हैं- बाल कृष्ण की आराधना और राधा का विकास। यह बड़ी गम्भीर बात है कि वात्सल्य और श्रंगार को मिलाकर भक्ति दर्शन की जो संरचना तैयार की गई वह किस सामाजिक माँग अथवा आध्यात्मिक माँग का परिणाम है और यह भी कि ब्रज की जनता ने इसे स्वीकार करने में अरुचि दिखाई और कई बार विरोध भी किया, यह क्या सन्देश देता है? कम से कम जनता की मांग और इस भक्ति योजना में तालमेल नहीं था। वात्सल्य प्रेम का उद्धाटन तब तो समझ में आता कि वात्सल्य की सामाजिक इच्छा को बल मिलता पर यहां पूरी की पूरी श्रंगारिकता बंजर है। इस श्रंगार (प्रेम) का सृजन से कोई रिस्ता नहीं। रोमिला थापर लिखतीं है कि ”लोकप्रिय स्तर पर कृष्ण और उसकी प्रिय गोपी राधा की उपासना इस विचार से की जाती थी कि उनकी उपासना से जनन क्षमता बढ़ सकती है। इस जनन क्षमता सम्प्रदाय को एक परिष्कृत रूप तब मिला जब कृष्ण के लिए राधा के प्रेम की व्याख्या इस रूप में की गई कि उनका यह प्रेम आत्मा का परमात्मा से मिलने का ही एक रूप था।” मातृत्व(जनन क्षमता) के लिए उपासना उसको करनी है जिसे मां बनना हो, सांस्कृतिक तथ्य बताते हैं कि मातृत्व के लिए अधिकतर उपासनायें मातिृकाओं की जाती रही है। युगल उपासना में जनन क्षमता के बजाय पुत्र प्राप्ति की आकांक्षायें भले ही पायी जाती हों। इसे जनन क्षमता के लिए उपासना कहा जाना किसी भी माइने में सही नहीं ठहरता। भक्तियुग की उपासना का उद्देश्य तो भक्ति मात्र है, श्रंगार का ध्येय श्रंगार भर। भक्त भगवान के लिए है। नायिका नायक के लिए। भले ही कृष्ण को करोड़ों कामदेवों को परास्त करने वाला माना गया, और राधा को रति से भी सौन्दर्यमयी माना गया, पर आमजन में इनकी उपासना का यह सन्दर्भ शायद ही कभी कारण बना। वैसे यह भी माना जाता है कि उपासना के क्षेत्र में (कम से कम ब्रज क्षेत्र में)राधा और श्रंगार का समावेश विटठलनाथ की देन है। बारहवीं सदी के बाद के कृष्ण भक्ति के तीनों प्रमुख आचार्यों में से मध्व के सम्प्रदाय में राधा नहीं है, निम्बकाचार्य और विष्णुस्वामी ने राधा को स्थान दिया पर सीमित। जयदेव और विद्यापति की परम्परा के गीतों को चैतन्य ने जब कीर्तन और भक्ति का विषय बनाया तभी से राधा उपासना का मुख्य विषय बनी। ब्रज भाषा की कृष्ण भक्ति परम्परा को राधा से अवगत कराने वाले विटठलनाथ द्वारा अपने सात पुत्रों के लिये सात गद्दियों का निर्माण यह बताता है कि इन्होंने धर्म के क्षेत्र में जो मनसबदारी आरम्भ की उससे और इनके अन्य क्रियाकलापों से वल्लभचार्य का कोई विरोध तो नहीं ही था। साहित्यिक और ऐतिहासिक स्रोतों में उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह आसानी से कहा जा सकता है कि भक्ति युग में पैदा हुए इस वात्सल्य और श्रंगार के योग से निर्मित इस भक्ति दर्शन में तत्कालीन सत्तावान वर्ग की जीवन पध्दति की गहरी छाया है। कृष्ण के वात्सल्य, बाल लीला और बाल पराक्रम में उस समय के कम उम्र में बनने वाले राजा, उनके जीवनयापन की महिमा और उनके द्वारा अपने पराक्रम क बल पर जीती जाने वाली जंगों की छवि साफ देखी जा सकती है जिससे तत्कालीन सत्तावर्ग में चल रहे प्रसंगों को न्यायपूर्ण ठहराया जाता है तो दूसरी तरफ राजवर्ग के अन्त:पुरों में स्त्रियों के साथ इस बालक राजा द्वारा किये जा रहे सभी प्रकार के क्रियाकलापों को मान्यता मिलती है। दर्शन को इस रूप में सामने लाकर वे शासक वर्ग के सब सहयोंगों के पात्र हो गये और कृष्ण भक्ति परम्परा यदि कालान्तर में राजाश्रयी हो पायी तो उसके लिए भी यह दर्शन ही जिम्मेदार रहा। हिन्दी साहित्य के बृहद् इतिहास भाग 5 के रचनाकारों ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि ”बल्लभ सम्प्रदाय और राधाबल्लभ सम्प्रदायों की सेवा पूजा पध्दति में चर्या बाहुल्य देखकर कुछ विद्वानों को उसके ऊपर मुगलकालीन विलास वैभव का भ्रम हुआ था। यर्थाथ में पांचरात्र संहिताओं के चर्या भाग में इन विधियों की प्रचुरता के साथ वर्णन हुआ था और परवर्तीकाल में विस्तार प्राप्त हुआ।” कालान्तर में यह भी कहा जा सके कि मुगलों में जो चर्या बाहुल्य है उस पर पांचरात्र संहिताओं का प्रभाव है तो कोई आश्चर्य नहीं होगा? अनुवंशिकी भले ही पीढ़ी अन्तरालों में पैदा हो सकने वाले लक्षणों का अनुसंधान करने पर जोर देती हो पर समाज विज्ञानों में ऐसी परिकल्पना अभी तक लागू नहीं है वहां पारस्थितिकी, परिस्थिति और परम्पराओं के सीधे सम्पर्क अधिक महत्वपूर्ण हैं। वैसे भी पांचरात्र संहिताओं में राधा कहीं नहीं है। ज्ञानामृत सागर संहिता नामक एक समय संदिग्ध रचना है जिसके द्वारा बाद में पांचरात्र परम्परा में राधा को शामिल करने का प्रयास किया गया है।
वल्लभाचार्य और कृष्ण भक्ति शाखा ने अपने दर्शन और विचारों के जरिये एक ऐसा कल्पनालोक खड़ा करने का प्रयास किया जिसमें वे अपने सपनों की दुनिया को साकार होता देख सकें।वृन्दावन को उस लोक का कर्म क्षेत्र चुना गया और तत्कालीन केन्द्रीय सत्ता को सन्दर्भ बिन्दु। कृष्ण के इर्द गिर्द निर्मित इस दुनिया में मातृत्व सबसे निचले स्तर का कर्म है और वात्सल्य भक्ति सबसे निचले स्तर की भक्ति। परकीया प्रेम भक्ति के उच्चतम स्वरूप का परिचायक है और राधाभाव भक्ति के सर्वश्रेष्ठ रूप का उदाहरण। यदि तत्कालीन संस्कृति से इसकी तुलना की जाय तो बड़ी गहरी समानतायें देखने को मिलती हैं। हमारा सवाल यह है कि इसमें स्त्री की हालत क्या थी। यही हालत राधा आदि के जरिये बयान होती है। यहां राधा स्त्री के व्यक्तित्व-अवमूल्यन की जीवित प्रतिमा है। गीतगोविन्द की राधा को कृष्ण के साथ मान करने का अधिकार है चाहे वह कम समय के लिये ही सही। कृष्ण राधा के क्रोध की परवाह करता है। विद्यापति में राधा छोटी(कम उम्र की) होकर भी ‘दुर्जय मानिनी मान तोहार’ की स्थिति रखती। लेकिन कृष्ण भक्ति परम्परा उसके व्यक्तित्व से वे सारे लक्षण छीन लेती है जो कम से कम उसके व्यक्ति के होने के संकेत तो देते थे। महाभाव की परिकल्पना प्रेमिका के उस आदर्श को निर्मित करती है जिसमें स्त्री स्वयं को इच्छा मुक्त कर ले। इस इच्छा मुक्तता के परिणामों को इस बात में देखना चाहिए कि विकास के आधुनिक दर्शनों में इच्छा को ही विकास की रीढ़ के रूप में देखा गया है और यह महाभाव है कि स्त्री से उसकी इच्छा छीन कर उसके हिस्से के विकास की सम्भावनाओं पर ही विराम लगाने का प्रयास करता है। उसके वस्तु बनने में ही उसकी इयत्ता निश्चित करता है। कृष्ण भक्ति परम्परा के लोक जागरण की यह कैसी भूमिका है जो स्त्री से उसकी आत्मा ही छीने ले रही थी?
वल्लभ सम्प्रदाय ने अपनी भक्ति निर्वाह के लिए जो संरचना तैयार की वह न केवल बहुवल्लभीवाद की समर्थक थी बल्कि कहीं से भी ब्रज की लोक संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। सांस्कृतिक संकुल में मातिृकाओं की पूजा और सामाजिक संरचना में माँ के महत्व देने वाली संस्कृति के समक्ष यह सम्प्रदाय वात्सल्य और श्रंगार को लेकर आया। कम से कम इससे यह साफ तौर पर जाहिर होता है कि इनका उद्देश्य अपनी भक्ति के माध्यम से ब्रज की लोक संस्कृति से ताल मेल बिठाना नहीं था और बिठा भी नही पाये। तत्कालीन सत्ता की संरचना अवश्य ही इस प्रकार की थी कि वल्लभ सम्प्रदाय की साधना संरचना उससे मेलखाती थी। यदि वल्लभ सम्प्रदाय के पूरे यूटोपिया को ध्यान से देखा जाय तो आगरा की सत्ता के समानान्तर वृन्दावन, रत्नजड़ित पूरा का पूरा तामझाम। हरम की तर्ज पर हजारों स्त्रियां। बादशाह की जीवन प्रक्रिया के टक्कर की अष्टयाम सेवा। झरोखा दर्शन के तरह के मन्दिरों के पट खुलना बन्द होना। सब कुछ और उससे इक्कीस। मेरे विचार से वल्लभ सम्प्रदाय ने राधा कृष्ण की आराधना का जो स्वरूप निर्धारित किया उसके पीछे इस धर्मसत्ता की स्थापना को देखा जाना चाहिए, जो कम से कम तत्कालीन राजसत्ता के साथ सहयोगी भूमिका से ही खड़ा हो सकती थी। यह भी कि बाद में यदि शासकों ने इस तरह की भक्ति को अपनाया तो उसका कारण यही था। तत्कालीन राजसत्ता ने स्त्री को परकीया रूप में ही अधिक महत्व दिया। यदि वल्लभ सम्प्रदाय और कृष्ण भक्ति परम्परा परकीयत्व को अस्वीकार करती तो यह राजसत्ता से सीधे सीधे टकराहट होती। हालांकि परकीयत्व पर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने व्यापक फलक पर लिखते हुए यह दिखाया है कि ”भारतवर्ष में परकीया प्रेम बहुत पुराने जमाने से एक खास सम्प्रदाय का धर्म सा था।” लेकिन वे इसे धर्म सा से अधिक नहीं कह पाते हैं साथ ही जिन आधारों पर वे इसे साबित करते हैं उनका सम्बन्ध ब्रज क्षेत्र और ब्रज संस्कृति से नहीं है। इसलिये जो यह तर्क दिया जाता है कि कृष्ण भक्तों ने प्रति संस्कृति खड़ी की या जनता के मुरझाये मनों को हरा करने लिए(आचार्य शुकल) इस तरह की भक्ति का ढांचा खड़ा किया तो इस तर्क में कोई दम नहीं है।
साहित्य में राधा को निर्मित करने का सन्दर्भ बहुत विस्तृत फलक घेरता है। बारहवीं सदी से उन्नीसवीं सदी तक राधा को बार बार रचा गया है। जयदेव से लेकर हरिऔध तक राधा के विविध रूप रचे गये हैं। लेकिन राधा की भक्तिकालीन और रीतिकालीन संरचनायें ही अपने प्रभाव को व्यापक बना पायीं। भक्ति काव्य और रीति काव्य की राधा में एक सातत्य पाया जाता है। रीतिकाव्य के रचनाकारों ने स्वयं ही कह दिया कि ‘आगे के सुकवि रीझिहैं तो कविताई न तो राधा कन्हाई सुमिरन को बहानौं है।’ जो राधा कन्हाई सुमिरन भक्ति काव्य में था वही यहाँ भी है। जिस तरह रीति काव्य में राधा कन्हाई सुमिरन काव्य का एक मात्र लक्ष्य नहीं है उसी तरह भक्ति काव्य में भी राधा का वर्णन मात्र लक्ष्य नहीं है। इस लक्ष्य की विवेचना होनी चाहिए। लोक में कभी भी बल्लभ सम्प्रदाय और पुष्टि मार्ग सराहा नहीं गया। ब्रज में आज भी पुष्टि बनाना जिन अर्थों में प्रयुक्त होता है वह इन सम्प्रदायियों की लोक में जो छवि थी उसे ही व्यक्त करता है। पुष्टि बनाना सेहत बनाने के लिए प्रयोग में लाया जाता है, और पोष्टी (पुष्टि मार्ग पर चलने वाले ) उनको कहते हैं जो निकम्मे रहकर खाते पीते और अपनी सेहत को मजबूत करते चले जाते हैं। दूसरी बात कि राधा सम्बन्धी कोई पूजा पाठ या सांस्कारिक तथ्य ब्रज के लोक में नहीं पाया जाता है। यहां तक कि राधाष्ठमी के अवसर पर बरसाने में लगने वाले मेले आदि का आयोजन भी बहुत बाद की देन है। तीसरी बात कि ब्रज के गीत राधा के बहाने ब्रज की स्त्री के दु:ख दर्द को व्यक्त करते हैं। ‘वंशी बारे ने घेर लई, अकेली पनियां गई।’ पितृपक्षीय छल कपट और स्त्री की करुणा को बहुत बार इन गीतों ने व्यक्त किया। चौथी बात यदि कृष्ण भक्त कवियित्रियों की रचनाओं को सरसरी तौर से भी देखा जाय तो यह पाते हैं कि ”कैसे जल लाऊँ मैं पनघट जाऊँ/होरी खेलत नन्द लाड़िलो क्यों कर निबहन पाऊँ/वे तो निलज फाग मदमाते हौं कुल बधू कहाऊँ/ जो छुवें अंचल रसिक बिहारी धरती फारि समाऊँ।(बनीठनी)। न तो पानी भरे बिना निस्तार है और न ही पनघट की घटनाओं का विरोध करने की क्षमता। भयानक संकट। धरती में समाने के अलावा क्या विकल्प है? पुष्टि मार्गियों और अन्य कृष्ण भक्ति सम्प्रदायों की वैचारिक संरचना इन स्त्रियों की भाव संवेदना से कम से कम उस स्तर तक मेल नहीं खाती जहां कृष्ण विलास शक्ति के अवतार होते हैं और ऐसा करके वे लोक मन में अनिवार्य भय का संचार बनते हैं। ब्रज मानस को समझना हो तो उक्त पहलुओं को ध्यान में रखना होगा उसके बाद ही ब्रज में विकसित भक्तिधारा और उसमें राधा की भूमिका या कृष्ण भक्ति के लक्ष्य के बारे में बात सम्भव है।
एक तर्क प्राय: आलोचक देते देखे जाते हैं कि यह सब वल्लभाचार्य, उनके अनुयायियों तथा कृष्ण भक्ति सम्प्रदायियों का भक्ति दर्शन है और सब कुछ भाव प्रधान है, वास्तविक जीवन से इसका कोई लेना देना नहीं है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भी बार बार यह दुहाई देते हैं कि इस सब पर लौकिक विचार मत करना। ऐसा करके कुछ हाथ नहीं लगेगा। यह भाव जिस विभाव से सम्बध्द है वह स्त्री के लिए समाज में कौन सा स्थान निर्मित करता है? यह भाव संश्लिष्ट सम्प्रेषण प्रक्रिया द्वारा आदर्श हमारे सांस्कृतिक विवेक का निर्माण करता है। रीति काव्य में स्त्री को जो स्थान मिला क्या वह इसी भाव की परिणाम नहीं है? डॉ.देवीशंकर अवस्थी लिखते हैं कि ‘भारतीय परिवार का नैतिक आदर्श बहुबल्लभवादी नहीं है, मनोविज्ञान की दृष्टि से प्रेम की परम निष्ठा एक के ही प्रति हो सकती है।’ यह तर्क वे राधा को सर्वश्रेष्ठ भक्त मानने के सन्दर्भ में देते हैं। स्त्री के लिए परम निष्ठा और पुरुष के लिए परम अनिष्ठा, यह कैसा प्रेम का नैतिक आदर्श है? बहुबल्लभीवाद को राधा की तरह स्वीकार करते चले जाने में स्त्री की महानता को स्वीकार करते चले जाने को ही मेरे विचार से पितृपक्षीय रवैया कहते हैं। वे राधा के सन्दर्भ को लेकर भक्ति काव्य की भूमिका के बारे में कहते है कि ‘किसान की लड़की दासी से उठकर सामन्त या बादशाह की प्रेमिका बन जाय यह बड़ी उपलब्धि है।’ कैसी उपलब्धि है जबकि सामन्त या बादशाह का अन्त:पुर वा हरम पहले से ही ऐसी ही हजारों प्रेमिकाओं से भरा पड़ा हो ? क्या पाया आखिर उस किसान बालिका ने? अपने व्यक्तित्व का सम्पूर्ण परित्याग।
राधा को काव्य में व्यापक फलक पर स्थान देने वाले जयदेव उसे ऐसी स्त्री के रूप मंआ सामने लाते हैं जो सामन्ती विलासिताओं की शिकार है। साहित्य और साहित्यशास्त्र में विरह को जिस तरह महत्व दिया गया वह अपने आप में स्त्री के प्रति क्रूरताओं के बढ़ते ग्राफ को दिखाता है। विरह में भी मान का पहलू इस दृष्टि से और भी विचारणीय है जो स्त्री की हैसियत दो टके की साबित कर देता है। विरह पर विचार करना यहां इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि राधा का साहित्य में पदापर्ण जिस भाव में हुआ वह विरह ही है। राधा चिर विरहिणी है। डॉ नित्यानन्द तिवारी रीतिकाव्य के अध्ययन के सम्बन्ध में यह बात प्रस्तावित करते हैं कि रीति काव्य में कुछ पढ़े जाने योग्य है तो वह खण्डिता की स्थिति है, उसका दु:ख है। खण्डिता विरहिणी का ही एक रूप है। विरह के शास्त्रीय कारणों में से यदि मरण को निकाल दिया जाय तो शेष सभी कारण पुरुष द्वारा स्त्री की इच्छा पर प्रश्नवाचक और कई बार खड़ी पाई लगा देने का परिणाम है। क्यों और नहीं मध्ययुग में सत्तावान के दण्ड से निकलने वाले वे शब्द हैं जिन्होंने राधा के व्यक्तित्व को निगलने में कुछ उठा नहीं छोड़ा। क्या इस पर विचार नहीं होना चाहिए कि आखिर विरह वर्णन की परम्परा ने स्त्री को रीति साहित्य की राधा जैसे दायरे में कैसे समेट दिया? विरह और विरह तन्त्र(विरह शास्त्र) दो अलग अलग बातें हैं। विरह में स्त्री या पुरुष की करुणा के सामाजिक ऐतिहासिक कारण्ा और मानवीय पहलू हमेशा उपस्थित हैं जबकि विरह तन्त्र प्रायोजित तौर पर स्त्री को विरह का अनुभव कराकर अपने आपको गौरवान्वित समझता है। विरह तन्त्र का प्रायोजित विरह एक ऐसी वीभत्स स्थिति की कामना करता है जिसमें स्त्री के दु:ख और करुणा के भीतर से आनन्द की सृष्टि वह अपने लिये कर लेता है। इस विरह तन्त्र का आधार मात्र और मात्र यौनता आधारित मानसिक उत्पीड़न ही देखने में आया है। राधा के रूप में स्त्रीत्व के अनुभव के मानमर्दन का ऐसा उत्सव विरह तन्त्र ही दे सकता था।
राधा का चरित्र वर्णन करते समय हिन्दी आलोचकों ने कुछ खास मुद्रायें अख्तियार की। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल राधा को इस लायक भी नहीं समझते कि राधा पर दो लाइन अलग से लिख सकें हां वे राधाकृष्ण के सम्बन्ध को ‘रंगरहस्य और प्रेमसंगीतमय गहरी धारा’ अवश्य कहते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि सूर का काव्य जीवनोत्सव का काव्य है। यह कैसा जीवनोत्सव है कि एक बालक एक युवती की नीबी में हाथ डाल देने में कोई संकोच या दबाव महसूस नहीं करता और एक स्त्री इतनी अक्षम दिखने लगती है कि उसमें एक बालक को रोकने की क्षमता नहीं है? एक तरफ सूफी दर्शन सल्तनत में पनप रही विलासिता का विरोध कर रहा है दूसरी तरफ ज्ञानमार्गी धारा ब्रह्म को जमीन पर उतार लाने को बेताब है वहीं इन पितृपक्षीय विलासिताओं को जीवनोत्सव कहा जाना कैसे सम्भव है? आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी राधा के वर्णन में भाव प्रवाह में निरन्तर कहते जाते हैं ‘सूरदास की राधा कई अवस्थाओं में पायी जाती है। उनका बालरूप भी वर्णित है, किशोरी और तरुणी रूप भी।…..उन्होंने राधा का एक सम्पूर्ण चित्र दिया है।…..महाभाव केवल राधा में ही सम्भव है।’ वे लिखते हैं ”सूरदास की यह सृष्टि अद्वितीय है। विश्वसाहित्य में ऐसी प्रेमिका नहीं है-नहीं है।” यह प्रेम कैसा है जिसकी प्रशंसा वे कर रहे हैं उन्हीं के कुछ वाक्याशों में देख सकते हैं। विद्यापति की राधा ईषददि्भन्नयौवना हैं, जयदेव की राधा पूर्णविलासवती, प्रगल्भा और चण्डीदास की राधा उन्मादमयी, मोम की पुतली। …..सूरदास की राधा तीन लोक से न्यारीसृष्टि है- अपूर्व अद्भुत और विचित्र। विलासिनी नहीं है। परकीया नहीं है। स्वर्गीय प्रेम है, वासना से रहित निर्मल विशुध्द।इस प्रेम में चिन्ता नहीं है, आशंका नहीं, भीति नहीं। सूरदास की राधा मानिनी है दारुण मानिनी। पर उध्दव के आने पर उस बरसाने की चोरटी ने कुछ नहीं कहा। वह दो कदम आगे न बढ़ सकी। आचार्य द्विवेदी राधा के इस विवेचन में सूरदास पर पहुँचते ही धार्मिक भीति से घिर जाते हैं और राधा के व्यक्तित्व की महिमा इस बात में खोजने लगते हैं कि उसने पितृपक्षीय आकांक्षाओं के अनुकूल किस सीमा तक अपने को, अपनी इच्छाओं को, अपनी आवश्यकताओं को और सम्पूर्णत: अपने होने को मिटाया। हालांकि ये सब बातें विद्यापति, जयदेव और चण्डीदास में भी इसी आकांक्षा से निर्धारित हैं, उसका व्यक्तित्व कृष्ण की सामन्ती इच्छाओं के आगे निरीह और वेबस होता दिखता है पर इस निरीहता और बेबसी का दु:ख राधा में है लेकिन सूरदास की राधा में यह दु:ख भी नहीं है। वह भावहीन निर्जीव सत्ता के रूप में सामने आती है। सवाल यह है कि क्या सूरदास राधा को ऐसी बनाते हैं अथवा द्विवेदी जी इसका महिमामण्डन करके उसे ऐसा बना देते हैं। एक प्रसंग की चर्चा यहाँ इस सवाल का जबाब देगी। सूरदास ने उध्दव प्रसंग में लिखा कि ”जब संदेसा कहन सुन्दरि गवन मौं तनि कीनि।/खसी मुद्रा चरन अरुझी गिरी भुवि बलहीन।/कंठ बचन न बोलि आवै हृदय परिहस भीन।/नैन जल भरि रोइ दीनों ग्रसित आपद दीन।/उठी बहुरि सम्हारि भट ज्यों परम साहस कीनि।” द्विवेदी जी पाठ करते हैं कि राधा परम मानिनी है। इतनी दृढ़ मानिनी कि मान के कारण दो कदम आगे न बढ़ सकी। यही वह दृष्टि है जो स्त्री के दु:ख और व्यक्तित्व का शास्त्रीय प्रतिमानों के दबाव में अवमूल्यन कर डालती है। सूरदास जिस रूप का वर्णन करते हैं उसमें राधा जमीन पर गिरती है, बोल नहीं निकलते, ऑंसुओं से रोने लगती है और परम योध्दा के बराबर साहस करने के बावजूद उठ नहीं पाती। इसमें कौन सा मान है? राधा किस तरफ से मानिनी लग रही है?
मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं कि ”सूर की राधा की सहज अनुरक्ति, स्वच्छन्द प्रकृति, अदम्य जीवनशक्ति, तथा अनुपम सौंदर्य मूर्ति में मनस्विनी प्रेयसी और असीम आत्मशक्ति सम्पन्न वियोगिनी का जो उदात्त संयोग हुआ है, उससे उनका चरित्र लौकिक होकर भी लोकोत्तर बन गया है।” पाण्डेय जी जिन उपमानों का प्रयोग राधा के चरित्र को व्यक्त करने में करते हैं वे सबके सब राधा के चरित्र को ऐसा बनाते हैं जैसी वह है ही नहीं। सहज अनुरक्ति-जबकि मैंने ऊपर दिखाया है कि वह सामन्ती इच्छाओ के आगे कितनी बेबस है, स्वच्छन्द प्रकृति-जबकि राधा परम एकनिष्ठ है(हाँ ऐसा कहने से कृष्ण के चरित्र की स्वच्छन्दता पर अवश्य कुछ पर्दा पड़ता है), अदम्य जीवनशक्ति-स्त्रियों की विवशता को यही नाम दिया जाता रहा है, अनुपम सौन्दर्य मूर्ति- सूरदास की सभी गोपिकायें दैहिक सौन्दर्य में एक ही टक्कर की हैं। लेकिन पाण्डेय जी का सौन्दर्य प्रतिमान इस बात से बनता है कि ”कामिनी के कमनीय सौन्दर्य की सफलता प्रिय को सुखद और प्रिय लगने में ही है।…..रति केलि प्रेमसाधना की सिध्दि है, चरम उत्कर्ष है।” यही तो सम्भवत: रीतिकालीन कविता का 1.कृष्ण की बाल सखी- सम प्रेम है दोनों के मन इस प्रेम यात्रा में सहयोगी हैं। जबकि सूरदास राधा को सामने लाते हैं ‘खेलत हरि निकसे ब्रजखोरी/ कटि कछनी पीताम्बर बाँधे हाथ लये भौरां चक डोरी।’कछनी और चक भौंरी बताते हैं कि उम्र अधिक नहीं है, लड़कपन है। ऐसे में राधा दिखाई देती है ‘नैन बिसाल भाल दिए रोरी/नील वसन फरिया कटि पहिरे, बेनी पीठि रुलति झकझोरी।’ राधा की उम्र कृष्ण से इतनी अधिक है कि नन्द उसे कृष्ण का उत्तरदायित्व सौंपते हैं और कृष्ण है कि राधा की नीबी में हाथ डाल देता है। ऐसे क्षणों में कृष्ण ‘जदुराइ’ की उपमा धारण करते हैं। कृष्ण का यह कर्म निश्चित रूप से तत्कालीन सामंती सम्प्रभुता की उच्छ्रखंलता को बयान करता है। इससे अगले पद में कथा का अगला चरण ‘तुव परस तन ताप मेंटौं, काम द्वन्द्व गवाँइ’ तन ताप मिटाने के प्रस्ताव के साथ कृष्ण एक सांस्कृतिक सामाजिक सन्दर्भ को सामने ला रहे हैं जिसमें स्त्रियों के प्रति दमनात्मक रवैया साफ पता चलता है। इसमें कैसा सम प्रेम और कैसा सहयोग? ब्रज की ग्रामीण क्षेत्र में आज भी प्रभुत्व सम्पन्न परिवारों के सभी उम्र के पुरुष प्रभुत्वहीन (आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक किसी भी रूप में) परिवारों की स्त्रियों के साथ कुछ इसी तरह के सम्बन्ध रखते हैं। क्या इसे भी समप्रेम का नाम देना होगा? पाण्डेय जी ने राधा को प्रेममयी युवती, रासेश्वरी, रसेश्वरी, सर्वेश्वरी, स्वकीया, कामिनी, रसनागरी, रति रस निमग्ना, रतिसिध्दा, मानिनी, परम वियोगिनी, पराशक्ति विशेषणों में बाँधते हैं फिर राधा की कथा के समापन में पाण्डेय जी लिखते हैं कि ”भक्तिकाल का उदात्त आत्मवाद रीतिकाल के मोहक देहवाद में परिवर्तित हो गया था। कवि तन द्युति के तीव्र आलोक से ही चमत्कृत हो गया, कामिनी की कामकला पर ही लुब्ध और मुग्ध हुआ।” उदात्त आत्मवाद का अर्थ सामाजिक सरोकारों से परे खोजा जाय जब तो ठीक है अन्यथा पाण्डेय जी की यह टिप्पणी उनकी राधा सम्बन्धी उक्त विवेचन से तालमेल नहीं बिठा पाती है। यही वह समस्या है जिसकी ओर मैं विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करना चाहती हूँ कि मध्य युगीन साहित्य के स्त्री सन्दर्भों की पहचान में आधुनिक हिन्दी आलोचना का रवैया रीति साहित्य के प्रतिमानों से बहुत प्रभावित रहा है। इसका उदाहरण राधा सम्बन्धी विवेचन हैं जिसमें राधा के दु:ख को तो भक्त की करुण पुकार (अनुरक्ति और भक्ति की चरम परिण्ाति है) कह दिया गया और दैहिक क्रिया कलापों के विवरणात्मक आनन्द पूर्ण चित्र बनाये गये।
आधुनिक हिन्दी आलोचना में कृष्ण भक्ति और राधा सम्बन्धी अध्ययन बड़ी भारी संख्या में हुए है। इन सभी अध्ययनों में सामान्य रूप में राधा को भक्त और भक्ति के दायरे में ही देखा गया है। ये सभी प्रकारान्तर से राधा के व्यक्तित्व के अवमूल्यन के हिमायती ही हैं। राधा के रूप में आदर्श भक्त की परिकल्पना सब के केन्द्र में बनी रही है। साहित्य को सामाजिक अध्ययनों के नजदीक ले जाने वाले अध्ययनों से यह आशा थी कि वे इस परिकल्पना से अलग रवैया अख्तियार करेंगे तो उनका पक्ष भी हम ऊपर देख चुके हैं। राधा का विकास पितृपक्षीय सरोकारों की एक ऐतिहासिक आवश्यकता जैसी लगती है जिसके बिना वे स्त्री का उपयोग अपनी सत्ता और वर्चस्व को बनाये रखने के लिए शायद नहीं कर पाते। वस्तुकृत स्त्री (राधा) का रीतिकालीन उपयोग यह बताता है कि ऐसी सत्ता और वर्चस्व अपने आप में बंजर और अल्पजीवी ही हो सकते हैं।

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  1. कल्पना जी, धन्यवाद. आपको पसन्द आया, यही लेखन की सार्थकता और लेखक की ऊर्जा का स्रोत है. मुझे आपकी टिप्पणी और अपने लेखन में एक ही स्वर सुनाई देता है.

  2. “स्‍त्री का वस्‍तुकरण और राधा का विकास”
    वाह अनुराधा! बहुत सटीक, अदभुत और लाजवाब है तुम्‍हारा यह विवेचन। मध्‍ययुगीन काव्‍य में स्‍त्री की छवि को लेकर अब तक हिन्‍दी आलोचना में जो विवेचन सामने आया है उसकी गहन पड़ताल करते हुए आप जिस तार्किक ढंग से इस ठोस निष्‍कर्ष तक पहुंची हैं कि “मध्‍ययुगीन साहित्‍य के स्‍त्री संदर्भों की पहचान में आधुनिक हिन्‍दी आलोचना का रवैया रीति साहित्‍य के प्रतिमानों से बहुत प्रभावित रहा है” और प्रक्रिया में चाहे आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल हों या हजारीप्रसाद द्विवेदी या मैनेजर पाण्‍डेय, साहित्‍य को सामाजिक अध्‍ययन के नजदीक लाने का दावा करने वाले ये ऐसे सुधी आलोचक भी उस पित्रीसत्‍ता वादी रवैये से बहुत भिन्‍न नहीं है और उनके ये विवेचन राधा(स्‍त्री) के व्‍यक्तित्‍व के अवमूल्‍यन के हिमायती साबित हुए हैं। मैं आपके इस निष्‍कर्ष के सहमत हूं कि “वस्‍तुकृत स्‍त्री का रीतिकालीन उपयोग यह बताता है कि ऐसी सत्‍ता और वर्चस्‍व अपने आप में बंजर और अल्‍पजीवि ही हो सकते हैं।“ मुझे यह भी जरूरी लगता है कि आपका यह विवेचन हिन्‍दी के जागरूक पाठकों के बीच व्‍यापक रूप से पहुंचना चाहिए, तभी इस पर एक सार्थक बहस खडी हो पाएगी। ऐसे तार्किक और सार्थक विवेचन के लिए मेरी हार्दिक बधाई !
    – नंद भारद्वाज

  3. “स्‍त्री का वस्‍तुकरण और राधा का विकास”
    वाह अनुराधा! बहुत सटीक, अदभुत और लाजवाब है तुम्‍हारा यह विवेचन। मध्‍ययुगीन काव्‍य में स्‍त्री की छवि को लेकर अब तक हिन्‍दी आलोचना में जो विवेचन सामने आया है उसकी गहन पड़ताल करते हुए आप जिस तार्किक ढंग से इस ठोस निष्‍कर्ष तक पहुंची हैं कि “मध्‍ययुगीन साहित्‍य के स्‍त्री संदर्भों की पहचान में आधुनिक हिन्‍दी आलोचना का रवैया रीति साहित्‍य के प्रतिमानों से बहुत प्रभावित रहा है” और प्रक्रिया में चाहे आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल हों या हजारीप्रसाद द्विवेदी या मैनेजर पाण्‍डेय, साहित्‍य को सामाजिक अध्‍ययन के नजदीक लाने का दावा करने वाले ये ऐसे सुधी आलोचक भी उस पित्रीसत्‍ता वादी रवैये से बहुत भिन्‍न नहीं है और उनके ये विवेचन राधा(स्‍त्री) के व्‍यक्तित्‍व के अवमूल्‍यन के हिमायती साबित हुए हैं। मैं आपके इस निष्‍कर्ष के सहमत हूं कि “वस्‍तुकृत स्‍त्री का रीतिकालीन उपयोग यह बताता है कि ऐसी सत्‍ता और वर्चस्‍व अपने आप में बंजर और अल्‍पजीवि ही हो सकते हैं।“ मुझे यह भी जरूरी लगता है कि आपका यह विवेचन हिन्‍दी के जागरूक पाठकों के बीच व्‍यापक रूप से पहुंचना चाहिए, तभी इस पर एक सार्थक बहस खडी हो पाएगी। ऐसे तार्किक और सार्थक विवेचन के लिए मेरी हार्दिक बधाई !

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