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मीरां तू न गई मेरे मन से

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(मीरा पर लिखा हुआ यह स्मरण कथा मई 2012 में छपा है)

 मीरांबाई  को हुए पाँच शताब्दी से अधिक समय बीत गया पर मीरांबाई  को पढ़ने की, पढ़े जाने की कोशिशें तेज से तेज होती गईं। नितान्त धार्मिक परकोटे को तोड़कर मीरां का होना सामाजिक और राजनीतिक चिन्तन वृत्तों में फैलता गया, यह सुखद भी है और उदाहरणीय विषय भी कि मध्ययुग में भी स्त्री ने अपनी भूमिका को चुनौती की तरह स्वीकार कर इतिहास के दर्दनाक हर्फों में निशानदेही को गूंथ छोड़ा। वर्तमान चुनौतियों में मीरां का बार बार याद आना या याद में बने रहना यूँ ही नहीं है। मैंने मीरां पर सात-आठ साल पहले स्त्री की नजर से सोचा था तब भी तमाम तरह की आस्थायें मन पर हावी थी उनका असर था लेकिन अब उनसे और एक बार थोड़ा सा मुक्त होकर मीरां के बारे में कुछ कहने की कोशिश इस लेख में है। यह वस्तुतः मीरां के पदों की व्याख्या-(अ)व्याख्या का ही एक अंश हैं।

हिन्दी में कविता की व्याख्या का एक अकादमिक ढ़ाँचा प्रचलित है जो अर्थ और रूप की विशेषताओं के खिचड़ी ढ़ाँचे से मिलाकर तैयार किया गया नितान्त ऊबाऊ अधिक रहता है अथवा प्रगतिशीलता के झोंक में कुछ सामाजिक राजनीतिक मतवादों के आरोपण के जरिये परम्परा की खोज (क्रान्ति की परम्परा) का अभियान इसे रचने लगता है। पर मीरा की कविता या किसी भी कविता की व्याख्या के ऐसे अभियान अधिक कारगर नहीं कहे जा सकते क्योंकि अभी तक इन व्याख्याओं के पढ़ने सुनने वाले एक बड़े समूह में साहित्य के सामान्य आस्वाद की प्रवृत्तियाँ विकसित करने में भी सफलता नहीं मिली है। आस्वाद की सहज, सुगम प्रवृत्तियों के विकास की आरम्भिक शर्त है कि साहित्य को तमाम आग्रहों से परे जीवन से जोड़कर जीवन के तरीके से देखा जाय। मीरां पर अकादमिक तरीके से बात किये जाने के नतीजे हम देख चुके हैं कि उसका स्त्रीत्व निरादृत होकर भक्ति में घुटकर रह जाता है। भक्ति का पूरा अभियान भी कहीं न कहीं ऐसे आग्रहों का शिकार है जो जीवन से विमुख करके जरूरी पहलुओं का गला घोंट देता है। इसलिए मीरां का उससे अलग पढ़ा जाना मीरां को मीरां के रूप में पढ़ा जाना जीवन की खोज का ही एक अभियान है, शायद यह साहित्य के लिए सबसे जरूरी भी कहा जाना चाहिए। तमाम तरह की उलझाव भरी भूलभुलैया जैसी या मुहावरे में जलेबी झानने जैसी व्याख्यायें ऊब का कारण बनती हैं और आस्वाद प्रक्रिया के सामान्य चरणों को भी पूरा नहीं होने देतीं। भक्ति के बारे में एक बात और – भक्ति के लिए भक्ति एक आदर्श वचन है, हर भक्ति के लिए कुछ दूसरे आग्रह उत्तरदायी बनकर व्यावाहारिक रूप तैयार करते हैं। मीरां के यहां भक्ति कहीं भी भक्ति के लिए कदाचित नहीं है, किसी विवशता से मुक्त होने की पुकार भक्ति का आश्रय भर ले रही है। मीरां की कविता में “भक्ति” के नियम कायदों का कहीं भी निर्वाह नहीं मिलता।

राधा कृष्ण की भव्य मूर्तियाँ। भक्ति का भव्य प्रदर्शन। पर कई बड़े मन्दिरों से लेकर धार्मिक सम्मिलनों तक में कोई मीरा पाँच सौ साल में आधी अधूरी भी नहीं जनम पाई- न चौबारों में, न मन्दिरों में, न सीढ़ियों पर। इन लीला भूमियों में ऐसी बन्जरता। कहते हैं कि मीरां का अभिशाप है। मरते मरते जरूर उसकी आत्मा में कोई टीस रही होगी कि ‘इन कठकरेजियों ने मेरे जीते जी तो मेरी फजीहत की सो ठीक पर मरते मरते भी भक्ति में धकेल दिया। मेरे पदों को भजन कहकर गाते हैं और मेरे प्रेम को भक्ति बताते हैं।’ काश ऐसा कोई वक्तव्य मिल जाता तो कितने ही शोध ग्रन्थों की आधार शिला बन जाता। लब्बोलुबाब यह कि भक्ति का कोई मीरां और न पैदा कर पाना एक गम्भीर तथ्य है जो भक्ति की सीमा बताता है। मीरां की कविता की एक सामान्य भावभूमि है प्रेम- spirit के आधार पर किया गया प्रेम, पर इसमें spirituality के सिद्धान्त बनाने में समस्या है। इसमें कोई अधिभौतिकता नहीं है अधिभौतिकता के आग्रहों का कारण अलग है। मीरां का प्रेम बार-बार दासी का रूपक रचता है। बार-बार कृष्ण की दासी बनने या होने की क्या जरूरत हैॽक्या कृष्ण के साथ दासियों के प्रेम का कोई आख्यान कहीं हैॽ दास्य भक्ति की कृष्ण भक्ति में कोई अच्छी स्थिति नहीं है, वहां तो सख्य भाव शिरोमणि है। जो भी हो प्रेम का जो प्रतिरूप कृष्ण भक्ति ने तैयार किया उसमें दासत्व एक बड़ी बाधा है, पर फिर भी मीरां की spirit में यह दासी बनना समा गया है। यह दासी भाव प्रेम करने की शर्त है, इससे अलग रूप में वहाँ प्रेम नहीं मिलता। मध्ययुग में दासी के प्रेम की एक कहानी अनारकली की है, शहजादे सलीम को क्यों किसी राजकुमारी में वह योग्यता नहीं दिखायी देती जो दासी अनारकली में है। दास होने का मुहावरे में एक अर्थ है- अमुक बात पर हम तुम्हारे दास हो गये या गुलाम हो गये। यह अपने सर्वस्व का प्रतिदान करने का agreement है। कदाचित राजकुमारी या  रानी के साथ तमाम तरह की मर्यादायें, वर्जनायें, सुविधाएं और अहं के ढ़ाँचे के प्रारूप इस तरह जुड़े रहते हैं कि वह इस तरह का agreement नहीं कर सकती। वे प्रेम के उस स्वरूप को स्पेस नहीं देती जिसे मीरां ने प्रेम माना और कहा ।

(1)        अखयाँ तरशा दरसण प्यासी

मग जोवाँ दिण बीताँ सजणी णैण पड्या दुखरासी

डारा बैठ्या कोयला बोल्या, बोल सुणाया री गासी

कड़वा बोल लोक जग बोल्या, करस्याँ म्हारी हाँसी

मीराँ हरि के हाथ विकाणी, जणम जणम री दासी।।

आँखें ‘दर्शन’ की प्यासी हैं, दिन रात रास्ता देखने से आँखों में दुख इकट्ठा हो गया है। डार पर बैठी कोयल की आवाज (प्रेम की चर्चा का आभास भर) सुनने भर से गले में फाँसी दिये जाने का अहसास होता है। जग कड़वा बोलता है, मेरी हँसी उड़ाता है। मीराँ हरि के हाथ बिक कर जनम जनम के लिए दासी बनी हुई है। भक्ति के इस पूरे आख्यान में भक्त के लिए तब तक कोई स्पेस नहीं है जब तक कि दासी पर भक्त का आरोपण न कर दिया जाय, प्रेम को दास्य भक्ति न कह दिया जाय और जीवन पर मतवाद हावी न हो जाय। दासी के जीवन में कड़वे बोल सहना, बिकना, जरा सी चुगली लगने पर फाँसी दे दिया जाना जीवन के व्यापार हैं और इस जीवन के मध्ययुगीन प्रारूप की यह बिडम्बना है कि यही प्रेम की आश्रय बनने को बाध्य है। इस बाध्यता ने दासी जीवन के इतिहास में केवल अनारकली को जरा सा जगह दी बाकी सब को तो पता नहीं कहा दफना दिया। इस बाध्यता में प्रेम के पलड़े में कोई बराबरी नहीं है, बराबरी का प्रेम तब होता जब राजकुमारी से प्रेम होता- सत्ता, शक्ति और वर्चस्व के सरोकार बराबरी  पर हिचकोले खाते कभी इधर तो कभी उधर। बीसलदेव रासो की राजमती में यह क्षमता है कि वह वीसलदेव को यह जबाव दे सके कि ‘ गरब म करि हो सइंभरि वाल। तो सारिषा अवर घणा रे भुआल।।’  फिर भले ही वीसलदेव उलगांड़ा होकर छोड़कर क्यों न चला जाय। दासी का प्रेम पुरुष की इस ग्रन्थि को सहलाने का, तुष्ट करने सबसे आसान साधन है।

मीरां की दासता वास्तविक दासता नहीं है, यह निर्णय इस बात का मोहताज है कि मीरां का आख्यान राज महल के मजबूत दीवारों के भीतर जन्मा। मीरां की कविता कहती है कि उसके साथ होने वाले व्यवहार में और दासी के साथ होने वाले व्यवहार में गहरी साम्यता है। इस बात में कोई गुन्जाइश नहीं कि मीरा प्रेम की गहन अनुभूति में जीवन जीती है, प्रेम उसके लिए मनोविनोद नहीं है। यहीं यह बात उन संकेतों को छोड़ती है जहाँ स्त्री के लिए दासी होकर ही प्रेम सम्भव है भले ही उसमें इस बात के खतरे क्यों न हों कि या तो मनोविनोदक उसे मनोविनोद के खाते में खींचकर विप्रलम्भ श्रंगार कह लें या तो भक्ति को ताबेदार उसे दास्य भक्ति में निपटा डालें। मध्ययुगीन राजसत्ता के आख्यान के दासी प्रकरण की एक बड़ी वास्तविकता के रूप में इस बात को रेखांकित किया गया कि उस दौर में दासी पूँजीनिवेश का पसंदीदा क्षेत्र है। दासियों का कुशलतम बेड़ा अच्छा खासा आर्थिक लाभ देता है पर उस बेड़े में राजसत्ता की चूलें हिलाने का कौशल, साहस और क्षमता हो। इस माइने में विद्रोह की छोटी सी चिन्गारी के लिए दासी का जीवन एक रोल मॉडल बन सकता है और राजकुमारी दासी बनने की कल्पना में राजसत्ता से विरोध के अहसास की तुष्टता पा सकती है।[1] मीरा के लिए  राज्य से विरोध का सवाल विद्रोह के रूप में भले ही न हो पर राजसत्ता के दमन की कसक उसे विरोध के समीकरण में ले जाती है और दासी उसके चरित्र में सन्दर्भ बन जाती है। यही सन्दर्भ प्रेम और विरोध की धार के रूप में उनकी कविता का विषय बन जाता है। मीरां मध्यकाल की अकेली स्त्री है जो राजसत्ता से विरोध को प्रकट करने के लिए दासी की क्षमता से ताकत पाती हैं और प्रेम के ही क्षेत्र में सही खुले तौर पर स्वयं को दासी की जगह ले जाती है। इस दासीत्व में वे सभी दुख भी शामिल हैं जो दासी जीवन के लिए थे।

(2)         तनक हरि चितवाँ म्हारी ओर।

हम चितवाँ थें चितवो णा हरि, हिबड़ों बड़ो कठोर।

म्हारी आसा चितवणि थारी, ओर णा दूजो ठौर।

ऊभ्याँ ठाड़ी अरज करूँ छूं करता करता भोर।

मीराँ रे प्रभु हरि अविनासी देस्यूं प्राण अँकोर।।

हाय पुरुष हया का ऐसा दृश्य कहाँ से ढ़ूढ़ लायी मीरा। दूल्हा चारपाई पर बैठा हुआ है, रस्मो रिवाज का दौर तारी है। मारे हया के आँखें उठाकर किसी की तरफ देखने का साहस उस दूल्हे में नहीं है और कोई छोटी नटखट बालिका का अदम्य साहस उसे टटोलने लगता है- ए दूल्हा थोड़ा सा हमारी तरफ भी देखो न। दूल्हा है कि और ज्यादा शरम के मारे जमीन में गढ़ जाता है। कहाँ से आया होगा उस लड़की में यह साहस और कहां चली गई होगी उस शूरमा की शूरता। यह एक गम्भीर सवाल है, मजाक का विषय नहीं। मीरा उस छोटी लड़की का हस्तान्तरण तो नहीं बनती पर उसमें वही साहस फला फूला है जो नहीं मानता दैन्य, नहीं रख पाता चुपचाप देखते रहने का धैर्य। वह प्रत्याशा रखता है कि उसका हरि उसे भी देखे। उसकी अधीरता में वही निश्छलता है जो लड़की के व्यवहार में मजाक का माहौल रच डालती है और मीरा के व्यापार में भक्ति। प्रेम भी निश्छल है, देह भी। देह का छल सत्ता की देन है, चाहे वह किसी भी किस्म की सत्ता क्यों न हो। मीरा इस माइने में देह की निश्छलता को बचाकर सत्ता से प्रतिवाद करती है। एक स्त्री कथन के रूप में ‘थोड़ा सा हमारी तरफ देखो- देह की तरफ, दशा की तरफ या भाव की तरफ। हरि का हिय बहुत कठोर है कि स्त्री लगातार स्नेह से देख रही है पर हरि ऐसा करने से प्रतिरोध करता है, प्रतिकार करता है (णा- प्रतिकार वाचक है)- जानबूझकर अथवा मजबूरी होगी कोई- पर स्त्री के प्रति यह व्यवहार दर्दनाक इस माइने में है कि इससे वह स्त्री निर्लज्ज ठहरने लगती है और बेहया, बेशर्म होने के दाग उसके दामन पर चिपकने लगते हैं। स्त्री की “आशा” और “मजबूरी” दोनों ही उस चितवन पर निर्भर हैं। क्या अधिकार है किसी को किसी की आशायें चूर चूर करने का। एक चितवन के लिए रात रात भर खड़े रहकर मनुहार की भोर होने को है पर उसने देखा ही नहीं। यह भोर कुठाराघात है उसकी आशा पर, स्त्री पर कुठाराघात करके हरि को अविनासी बना देने वाली है। भक्ति ने यही किया, भगवान ने भी यही किया कितनों की आशाओं पर बज्रपात करके अपने हरि और भक्तिवाद का ढ़ाचा अजर अमर कर लिया।

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(3)         हे मा बड़ी बड़ी अंखियन वारो, साँवरो मो तन हेरत हँसिके

भौंह कमान बान बाँके लोचन, मारत हियरे कसिके

जतन करों जन्तर लिखि बाँधों, ओखद लाऊँ घँसिके

ज्यों तोकों कछु और बिथा हो, नाहिन मेरो बसिके

कौन जतन करों मोरी आली, चन्दन लाऊँ घसिके

जन्तर मन्तर जादू टोना, माधुरी मूरति बसिके

साँवरी सूरत आन मिलावो ठाढ़ी रहूँ मैं हँसि के

रेजा रेजा भयो करेजा अन्दर देखो धँसिके

मीराँ तो गिरधर बिन देखे, कैसे रहे घर बसिके।।

मध्ययुग में स्त्री के द्वारा लिखा गया स्त्री के साथ किया गया ऐसा संवाद साहित्य में विरल पाया जाता है। लेकऑफ[1] “स्त्री की भाषा” पर बात करते समय स्त्री की भाषा के दायरे को विषय बनाती है और सीमित सन्दर्भों वाली, कम आत्मविश्वास वाली, संशयशील भाषा में स्त्री को ढ़ूढ़ती है। मीरां के इस संवाद में स्त्री भाषा का, स्त्री संस्कृति का, स्त्री अन्तरमन का एक लेखा जोखा है। लेकऑफ की नमूना स्त्री पितृपक्ष के, व्यवस्था के नियमों से बँधी हुई ‘निर्मित’ स्त्री है, मीरां इसका अतिक्रमण करती है। साँवरो किसी भी तरह नाम का नहीं देह का पर्याय है, उसके हेरने में जिसके तन को हेरा जा रहा है उसके साथ सम्बन्ध की बू आती है। ‘हेर’ गायों के झुण्ड को कहा जाता है और हेरना गायों पर नजर रखने को। कम से इसमें इस बात का बोध निहित है कि नजर रखने वाले की प्रस्थिति भारी है और  कसिके मारने का बिम्ब आग्रह उसकी उस क्षमता का बोध करा देता है। देखने के लिए बहुत सारे शब्दों को प्रयोग होता है जिनमें से हेरना सबसे अधिक दुस्साहसी है, बलात् का बोध कराता ही है।

एक स्त्री का दुःख है कि बड़ी बड़ी आँखों वाला उसकी देह को हेरता है और इतना ही नहीं उसके साथ घातक संकेत(मारत हियरे कसिके-प्रहार) करता है। इसके उपचार के लिए दूसरी स्त्री उससे पूछती है कि- क्या प्रयत्न करूं- जन्तर लिखि बाँधू(ओझाकर्म), औषधि लाऊँ(भेषज कर्म), चन्दन लाऊँ(देशज कर्म)। फिर पहली स्त्री प्रत्युत्तर करती है- जन्तर मन्तर जादू टोना (बेकार हैं)- क्योंकि ये सब सुन्दर पुरुष के बस में हैं उसमें इन्हें बेकार करने की क्षमता है। ऐसा करो उस साँवरी सूरत से मेरा मिलन करा दो, मैं हँस करके उसकी प्रतीक्षा करूँगी। उसके लिए करेजा तार तार हो रहा है, फट रहा है विश्वास नहीं तो मेरे भीतर झाँक कर देख लो। उसके देखे बिना घर में बैठा नहीं रहा जाता। नाम की छाप को आत्मकथ्य के रूप में पढ़ें तो यह मीरा का अपना दुःख है और यदि छाप ही रहने दें तो मध्ययुगीन स्त्री का। कई एक सवाल उठते हैं कि उसके हेरने की शिकायत भी और उससे मिलन में ही उसके हेरने का उपचार भी- क्या कहीं भक्ति के लिए बताये जाने वाले समतुल्य उपादानों में अँटता है यह मान- अनुमान। एक स्त्री का यह “निर्लज्ज” निवेदन भक्ति की चादर को तार तार कर देता है कि हाय यह कुलच्छिनी इस तरह संयोग भी सोचती है और कहती है।  रीतिकाल के दूती प्रकरण पर तमाम नैतिकतावादी आग्रहों के तहत छीः थूः होती रही पर इस मीरां को देखिए कहती है – साँवरी सूरत आन मिलावो। कितना बड़ा “धर्म संकट” है कि सामन्तों के लिए नायिकाएं जुटानेवाली कुट्टिनी, दूती की तर्ज पर यह स्त्री तो अपनी सहेली से ही दूती प्रसंग रच रही है। इस माइने में मीरां स्त्री को पितृपक्ष के तमाम दुराग्रहों से मुक्त करके जीती जागती देह, हँसता रोता मन और सोचती समझती बुद्धि युक्त रूप में देख रही है।

(4)        हेरी म्हां दरदे दिवाणी म्हारां दरद न जाण्यां कोय।
घायल री गत घाइल जाण्यां, हिवडो अगण संजोय।
जौहर की गत जौहरी जाणै, क्या जाण्यां जिण खोय।
दरद की मार्यां दर दर डोल्यां बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरा री प्रभु पीर मिटांगां जब बैद सांवरो होय॥

मध्ययुग में जीवन के कुछ ही महत्वमान प्रसंग माने गये- युद्ध, भक्ति, व्यापार और इनसे जुड़े कुछ आनुसंगिक कर्म जैसे भेषज, रत्न परीक्षा आदि। सोच समझ के अन्तरजाल को महत्वमान रूप में व्यक्त करने के लिए इन्हीं से सम्बन्धित शब्दावली का प्रचलन हो चला। यह भाषाई विकास का एक महत्वपूर्ण प्रसंग है। मीरा की कविता में भक्ति की प्रवचन शैली और वार्तालाप की शैली एक हो गयी। भक्ति का नैतिक- उपदेश में बात करने वाला तरीका वैसा ही था, उसी तरह के उदाहरणों से अपनी बात कहने की कोशिश करता था जैसी मीरा के यहाँ है। लेकिन अन्तर्वस्तु और मन्तव्य का फर्क उनकी कविता और भक्ति में फाँट को दिखाता है। दरद का दिवानापन सूफी में भी है और मीरा में भी है लेकिन सूफी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई इसे जानता हैं या नहीं पर मीरां को फर्क पड़ता है। उसके लिए यह महत्वपूर्ण है कि- दरद ण जाणें कोइ- यही पीड़ा है। भक्ति कभी प्रदर्शन का विषय कम से कम भक्तिकाल में नहीं थी। कबीर का भी मानना था कि अपना चरखा कातो और भजन करो। मीरां यहीं भक्ति की धारा का अतिक्रमण कर निहायत स्त्री की बोली बोलने लगती है। इस दुःख की बराबरी में मीरां कुछ दूसरे प्रसंग लेकर आती है- सैन्य मामलों में या युद्ध में हार- जीत को सब जानते हैं पर उस घायल सैनिक के दर्द का क्या जो अपने ह्रदय को बड़ी कठिनाई से संजोकर उस दर्द को बर्दास्त करता है। यह उस जमाने में हासिये के सवालों को देखने का अकेला नजरिया है जो मीरा में पाया जाता है। जौहर करने वाली स्त्रियों ने मध्ययुग में सत्ताओं के सम्मान में कितना बर्दास्त किया ये तो वे स्त्रियां ही जान सकती है जो हार में “स्त्री” को जला बैठे वे क्या जान सकते हैं। दरद न जानने वालों को आइडेन्टीफाइ करने के प्रसंग में ये दो उदाहरण पर्याप्त सन्दर्भ मुहैया कराते हैं- सत्ता के सम्मान के लिए काम आये सैनिकों और मर गई स्त्रियों का दर्द न जानने वाले राजन्य। ये भला मीरां का दरद क्यों जानने लगे। दरद की मारी दर दर घूमती है- इन दरों में वे तमाम प्रसंग सिमट जाते हैं जो दरद को जानने के आधार बन सकते हैं पर यहाँ भी कोई दरद निवारक नहीं मिलता। उसका विश्वास दृढ़ से दृढ़तर होता जाता है कि उसके दरद के दिवानेपन की पीड़ा को एक ही वैद मिटा सकता है – साँवरा। न यहाँ कोई भक्ति है न कोई श्रंगार। एक स्त्री का अपने को समझे जाने की पीड़ा है, उसकी इच्छा के सम्मान का आग्रह।

(5)        साजन घर आओनी मीठा बोला॥
कदकी ऊभी मैं पंथ निहारूं थारो, आयां होसी मेला॥
आओ निसंक, संक मत मानो, आयां ही सुक्ख रहेला॥
तन मन वार करूं न्यौछावर, दीज्यो स्याम मोय हेला॥
आतुर बहुत बिलम मत कीज्यो, आयां हो रंग रहेला॥
तुमरे कारण सब रंग त्याग्या, काजल तिलक तमोला॥
तुम देख्या बिन कल न पड़त है, कर धर रही कपोला॥
मीरा दासी जनम जनम की, दिल की घुंडी खोला॥

‘निसंकता और शंका’ का सवाल वह भी सुख के मामले में जरूरी सन्दर्भ तैयार करता है यह बताने के लिए कि मीरां की इस कविता का आश्रय कौन है। पति या ईश्वर के मामले में शंका की कोई गुंजाइश तभी बनती है जब ईश्वर की भक्ति परकीयत्व को आधार बनाये और पति बहुपतित्व की योजना में हो। तन वारना कम से कम भक्ति काव्य की भक्ति का उपादान नहीं है और बहुपतित्व राजपुताने में मध्ययुग में प्रचलित नहीं था। तब यह सीधे सीधे प्रेम के किसी रूप का अभिकथन है। सीधे सीधे एक स्त्री अपने प्रेम के आश्रय को आमंत्रित करती है जो कि गुप्त प्रेम के किसी भी प्रारूप में फिट नहीं बैठता। भाषा की संरचना बताती है कि उसमें जनविसर्जनों के फलस्वरूप जन्म ले रही नई भाषा का हस्तक्षेप हो रहा है- ‘कदकी’- राजस्थानी नहीं है- मेरठ के आसपास की भाषा है, आयां- पंजाबी प्रकार का अनुस्वार लिए हुए है, दित्व में भी – सुक्ख में यही बात है। पद के आख्यान में भी आवाजाही का हस्तक्षेप है। इस माइने में पंथ निहारती स्त्री की समस्या वही समस्या है जो पीछे छूटी स्त्री की समस्या है- देह के दमन से पैदा हुई समस्या।‘आयां ही सुक्ख रहेला’ एक विकल्पहीन स्थिति है इस स्त्री की। स्याम कह देने से स्याम ईश्वर नहीं हो जाता स्याम के एक हेला देने पर तन- मन न्यौछावर है। आने का सबसे उत्तम समय है- रंग का समय, रंग के बने रहने का समय- विलम्ब रंग की आतुरता को नष्ट कर देगा। जिस रंग की आकांक्षा है उस सब को- जिसमें काजल-तिलक-तमोला शामिल है- आँख, माथा और होंठों का श्रंगार शामिल है को उस प्रिय की आशा में ही त्याग रखा है, छोड़ रक्खा है। छूटी हुई स्त्री का चित्र – व्याकुलता में – प्रतीक्षा में कपोलों पर हाथ रखकर एकटक पन्थ निहारती हुई। न जाने कितनी स्त्रियां इस दंश को झेलती हैं मीरां की तारीफ इसमें है कि वह अपने दिल की इस घुंडी पर खुलकर बात करने का साहस रखती है। संदेश रासक की हीरोइन भी इसी हालात से गुजर रही है और भिन्न शैली में अपनी देह के कारण मन पर बीत रही पीढ़ा को सन्देश बाहक से कहती है। दोनों में फर्क है कि मीरां अपनी स्थिति को कहती है और अब्दुल रहमान दूसरे की स्त्री को। दूसरे की स्त्री के बारे में ऐसा कह देना कोई बड़ा कमाल नहीं है, अपनी हालात को बयां करना बहुत कठिन है। सच से सामना के चक्कर में कितनों को आत्महत्या करनी पड़ी यही भारतीय समाज का आइना है- झूठ के नींव पर खड़ा महल। मीरां इससे नहीं डरती। साहस तो देखो उसका।

(6)        मन थें परसि हरि के चरन

सुभग सीतल कँवल- कोमल , जगत – ज्वाला- हरण।

इण चरण प्रह्मलाद परस्याँ इंद्र- पद्वी- धरण।।

इण चरन ध्रुव अटल करस्याँ सरण असरण सरण।

इण चरन ब्राह्मांड भेंट्याँ नखसिखाँ गिरि भरण।।

इण चरण कालियाँ णाथ्याँ, गोपी लीला करण

इण चरण गोबरधन धार् याँ गरब मधवा हरण

दासी मीरा लाल गिरधर अगम तारण तरण।।

मीरां के लिए भक्ति एक विषय है लेकिन भक्ति के लिए नहीं स्त्री जगत की ज्वाला का हरण करने लिए- जिसके सन्दर्भ सुभग सीतल कँवल कोमल के विपक्ष में निर्मित हैं। कुछ असुभग है, कुछ अशीतल है, कुछ अकवँल है और कुछ अकोमल है जिसके परिप्रेक्ष्य में इनको पाने का सहारा भक्ति उसी इन्टेंशन के साथ लेती है जिसके साथ प्रह्लाद, ध्रुव लेते हैं। मीरां की आकांक्षा भी किसी पदवी की है जिसके लिए हरि की शरण में निरालम्ब मन आश्रय ले रहा है। जो भक्ति में निःस्वार्थता की बलात् स्थापना करता है वह कुछ और नहीं भारतीय मानस की हिप्पोक्रेटिक ग्रन्थि है। पदवी के माइने  संस्थागतता में ही खोजे जायं तो उस लक्ष्य को पहचाना नहीं जो सकता जो मीरां चाहती है या प्रह्लाद चाहता है या ध्रुव चाहता है। ये गैर संस्थागत पदवियों के आकांक्षी हैं। कालियाँ गोपियों के लिए लीलाभूमि मुहैया नहीं होने देता और मधवा का बल कहर बनकर ब्रजजनों पर टूटता है और एक अन्य पाठान्तर में गोतम स्त्री को बलात्कृत करता है। मीरां की आकांक्षाओं के लिए ये सन्दर्भ बराबर बाधाओं से तादात्म्य स्थापित करते हैं। अपनी हार के क्षणों में हजारों की हार घुलमिल सी जाती है। स्त्री मन को क्या चाहिए एक खुला और निर्भय माहौल जहाँ अपनी हाँ को हाँ और ना को ना कह सके। इसी तनाव में उसे भक्ति याद आती है। उसे ऐसा लाल (माई का लाल) गिरधर चाहिए जो इस तरण(ताल) अगमता से मुक्ति दिला सके, यही उसकी भक्ति है।

(7)        राणाजी थें जहर दियो म्हे जाणी।

जैसे कंचन दहत अगिनि में, निकसत बारावाणी।

लोकलाज कुल काणि जगत की, दइ बहाय जस पाणी।

अपणै घर का परदा करले, मैं अबला बौराणी।

तरकस तीर लग्यो मेरे हियरे, गरक गयो सनकाणी।

सब संतन पर तन मन वारों चरण कँवल लपटाणी।

मीरां को प्रभु राणि लई है, दासी अपनी जाणी।।

यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि जहर खाकर मानव शरीर जिन्दा नहीं रह सकता अब बचने के दो ही विकल्प बचते हैं, या तो कोई चमत्कार या तो कोई अर्थ भेद। चमत्कार एक अव्याख्येय पद है, जिसके होने न होने से लेकर उस कार्यप्रणाली तक की कुल इयत्ता इतनी ही है कि यह किसी बड़े सत्य पर पर्दा डालकर अर्थ भेद की सृष्टि करता है। लोक में बोलचाल में जहर देने को अक्सर अभिधार्थ में ग्रहण नहीं किया जाता। दूसरी महत्वपूर्ण बात इस सन्दर्भ में यह कि दिव्य प्रकरणों में जहर दिये जाने को शामिल किया गया है और ये दिव्य मुख्यतः स्त्री की ‘सामाजिक सच्चरित्रता’ को साबित करने के लिए क्रूरतम विकल्प थे और प्रकारान्तर से जगत की ‘कुल की काणि’ को अक्षुण्य साबित करने के उपाय । पर मीरां खुले रूप में कहती है कि मैं जानती हूँ कि तुमने जहर दिया या तुम्हारा प्रस्ताव मेरे लिए जहर की तरह है – मेरी सोच, मेरे कर्म, मेरे प्रेम को कटघरे में खड़ा किया। प्रेम के बारे में ही कहा जाता है कि तपन से निखरता है। सोने की अगिनि परीक्षा और सीता की अगिनि परीक्षा में इतना फर्क है कि सोना बारहबान का हो जाता है पर सीता  प्रतिष्ठा तो पा लाती है पर संदेह के अभिशाप से कभी मुक्त नहीं हो पाती- यह स्त्री होने का दंश है कि उसकी प्रस्थिति सोने से भी कम है। मीरा भी जहर के बावजूद कभी संदेह के दायरे से बाहर नहीं हो पायीं। मीरां के मामले में जहर का रूपक अपने भीतर क्या समाये हुए है यह एक गम्भीर मसला है। ‘अवरु ण आवे म्हारी दाय’ ‘जेठ बहू को नातो नाहीं’ ये दो सपाट कथन हैं। यह स्पष्ट करने के बाद फिर मीरां पूछती है – राणा जी थे क्यांने राखो म्हासे बैर। एक पद में कहती है कि ‘सूनी सेज जहर ज्यूं लागे’। राणा के साथ किसी तरह के सम्बन्ध की परिकल्पना मीरां को स्वीकार नहीं भले ही गहणा गाँठी, काजल टीका, उनके शहर में बसना सब कुछ छोड़ना क्यों न पड़े। दूसरे किसी के साथ सम्बन्ध राणा को स्वीकार नहीं है इसलिए सेज जहर की तरह लगती है। अब जहर और अमृत की व्याख्या की जा सकती है। यदि सूनी सेज (संयोग की वास्तविकता का लोप) जहर है तो संयोग का स्वप्न अमृत है। ‘माइ म्हाणे सुपणा मां परण्याँ दीनानाथ।’ यह कोई आसान सा सवाल नहीं है कि मीरां गाने लगे ‘मेरे तो गिरधर गुपाल दूसरो न कोई’। यह दूसरा होने का दबाव स्त्री पर बहुत भारी पड़ता है।

मीरां पर यह आरोप है कि  जगत की ‘लोक की लज्जा और कुल की मर्यादा’(व्यक्ति या परिवार की नहीं) को उसने पानी की तरह बहा दिया इसलिए दिव्य के जरिये उसे अपने इस अपराध से मुक्त होने का अवसर दिया जाता है। इस सन्दर्भ में यह कयास का विषय है कि वह जहर क्या रहा होगा पर इतना तय है कि मीरां से प्रेम के विरुद्ध होने का आग्रह तो इसमें अवश्य ही जुड़ा होगा- प्रेम की मृत्यु का दुराग्रह। मीरां की कविता इसको नकारती है- अपने घर का परदा करले मैं अबला बौराणी। विश्वनाथ त्रिपाठी इस परदे के पीछे घर की औरतों में प्रचलित व्यभिचार की परिकल्पना कर डालते हैं।[2] यहाँ मीरां की समूची कविता के भीतर कहीं भी किसी भी स्त्री पर इस तरह के आरोपण के कोई सन्दर्भ नहीं मिलते तो यहां इस तरह के आग्रह का कोई आधार नहीं बनता। मीरां व्यभिचारिणी नहीं है प्रेम करने वाली स्त्री है। प्रेम को व्यभिचार में मिला देने से बड़ी समस्या होती है – प्रेम के प्रति दुराग्रहियों को क्रूरता करने की खुली छूट मिलती है- जैसा कि तमाम राजनीतिक संगठन इस छूट को लेकर आये दिन नंगा नाच करते दिख जाते हैं। मीरां का परदे का आग्रह बताता है कि राणा का घर और मीरां का घर दो अलग अलग पहचानें हैं और तथाकथित विधवा मीरां उस संयुक्तता पर प्रहार करती हैं जो उसके पति के परिवारी जनों ने उस पर आयद कर रखी है, परदा उस दीवार का पर्याय है जो संयुक्तता को एकल घर(परिवार) में बदलकर राणा के घर के लिए मीरां के कृत्यों को उत्तरदायी होने से मुक्त करता है।

(8)        आवत मोरी गलियन में गिरधारी

मैं तो घुस गयी लाज की मारी।

कुसुमल पाक केसरिया जामा ऊपर फूल हजारी

मुकुट ऊपर छत्र विराजै, कुण्डल की छवि न्यारी

केसरी चीर दरियाई को लहँगो ऊपर अँगिया भारी

आवत देखी किसन मुरारी छिपि गई राधा प्यारी

मोर मुकुट मनोहर सोहै, नथली की छवि न्यारी

गल मोतिन की माल विराजे चरण कमल बलिहारी

ऊभी राधा प्यारी अरज करत है सुणजो किसन मुरारी

मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, चरण कमल पर वारी।।

प्रत्यक्ष तौर पर राधा और कृष्ण का रिश्ता संस्थागत वैवाहिक संरचना में नहीं अँटता पर ऐसी कोई तो बात थी कि ‘लोक-लाज और कुल-काणि’ की दुहाई देने वाले समाज में यह प्रेम का उदाहरण अपनी जगह बना पाया, लोगों के मन में पसन्द का स्थान ले पाया। यह स्वीकार हर एक ऐसे मामले के लिए इसी तरह से स्वीकार का आधार नहीं कही जा सकता। राधा और रधिया पर न जाने कितनी लड़कियों के नाम मिल जाते हैं। राधा के इस स्वीकार में राधा के वैधव्य को विस्मृत भले ही कर दिया हो पर राधा कृष्ण की पत्नी नहीं है यह सबको याद है और कृष्ण की प्रेमिका तो है ही। मीरां को राधा के कृष्ण का केवल इतना आसरा है कि वह मीरां के प्रेम के प्रकार को अपने उदाहरण के आधार पर वैधता(मानसिक) प्रदान करता है। यदि राधा और मीरा का प्रेमी एक ही होता तो कहीं तो राधा के साथ सौतिया डाह ( जैसा की भारतीय स्त्री के मिथ निर्माण में अवश्यम्भावी माना गया) का अहसास दिखता। गिरधारी के गलियों में आने के प्रसंग से शुरू हुआ कथा क्रम कब राधा के प्रेम के तुलना कवच में घुसकर अपने को व्यक्त करने लगता है पता ही नहीं चलता या कहा जाय कला का आश्रय यहीं कहीं है। पाक, जामा, मुकुट, छत्र, कुण्डल, चीर, लहँगा और अँगिया में कृष्ण राधा की छवि से अधिक गिरधर मीरां की छवि है। सब कुछ परम्परागत वैभवशाली पहनावा।

(9)        घर आंगण न सुहावै, पिया बिन मोहि न भावै॥
दीपक जोय कहा करूं सजनी, पिय परदेस रहावै।
सूनी सेज जहर ज्यूं लागे, सिसक-सिसक जिय जावै॥
नैण निंदरा नहीं आवै॥
कदकी उभी मैं मग जोऊं, निस-दिन बिरह सतावै।
कहा कहूं कछु कहत न आवै, हिवड़ो अति उकलावै॥
हरि कब दरस दिखावै॥
ऐसो है कोई परम सनेही, तुरत सनेसो लावै।
वा बिरियां कद होसी मुझको, हरि हंस कंठ लगावै॥
मीरा मिलि होरी गावै॥

पिया परदेश रहता है और स्त्री उसके इन्तजार में है। पिय की अनुपस्थिति में घर आँगन अच्छा नहीं लगता, नहीं सुहाता। दीपक जलाने को मन नहीं होता। सूनी सेज जहर लगती है। सिसकियाँ भरते भरते ही प्राण निकलते रहते हैं। आँखों में नींद नहीं आती। लगातार रास्ता देखती रहती है, दिन रात बिरह सताता है। मन की अकुलाहट कहने में नहीं आती। किसी ऐसे परम सनेही की तलाश है जो सन्देश ला सके, वह समय कब आयेगा जब मेरा हरि मुझे हंस कर गले से लगायेगा, मीरां उसके साथ मिलकर होरी गायेगी। एक स्त्री की साधारण सी इच्छा है, प्रिय के साथ एक प्रेम भरी जिन्दगी अपने घर के भीतर जीना। पति का परदेश विरह का कारक बनता है, उसके कारणों का कोई सन्दर्भ मीरां के यहाँ नहीं आता कि वह क्यों परदेशी है। जहाँ तक हरि का सवाल है भारतीय स्त्री को बार बार यही बताया –सिखाया जाता रहा है कि उसका हरि उसका पति होता है। पति के कंठ से लगने की, होरी गाने की इच्छा में निश्चित रूप में स्त्री अभिव्यक्ति की वह बोल्डनेस है जो “स्त्री” गढ़ने के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करती है। ऐसे घनीभूत भाव की बहुत सारी कविताएं हिन्दी में मिल जायेंगी खासकर रीति काव्य में लेकिन वे पुरुषों द्वारा कृत्रिम स्त्रीमन के कृत्रिम चित्रण हैं और अधिकतर परकीयत्व को आधार बनाते हैं, मीरां की अभिव्यक्ति स्त्री का कथन होने के नाते अधिक महत्ववान है। यदि मीरां की कथित जीवन गाथा से इसे जोड़ दें तो वैधव्य के बाद स्वकीयत्व को पुनः स्थापित करने की इच्छा और स्वीकृति मीरां के यहाँ विधवा पुनर्विवाह के आन्दोलन से तीन सौ साल पहले ही दिख जाती है।

(10)      नैणा लोभाँ अँटका सक्या ना फिर आय

रूम रूम नख सिख लख्याँ ललक ललक अकुलाय

म्ह ठाड़ी घर आपणैं, मोहन निकळ्या आय

बदन चन्द्र परगासता, मन्द मन्द मुसकाय

सकळ कुटुम्बी बरजता, बोल्या बोल बणाय

नैणा चंचळ अटक ण मान्या परहत गयाँ बिकाय

भलो कह्या कांई बुरा कह्यां री कब लयो सीस चढ़ाय

मीरां से प्रभु गिरधर नागर बिना पल रह्यो ण जाय

पृष्टभूमि है कि आँखें लोभ में फँस गई तो फिर लौट नहीं सकीं। फँसने पर उन्होंने क्या देखा- रोम रोम में नख से शिख तक और अधिक देखने की ललक और अकुलाहट बढ़ती गई। भक्ति में यहीं ऐसे स्वाद का पर्याय कह दिया जायेगा जो कि एक बार भक्ति के चक्कर में पड़ा तो वहीं का होकर रह गया पर जगत और देह के सन्दर्भ में बात और है। आँखें तो उसी में फँसी हुई ही थी कि एक घटना और घट गई- अपने घर में खड़ी थी कि मोहन साक्षात उपस्थित हो गया- चमकता हुआ चेहरा, मन्द मन्द मुस्कुराहट (हँसता हुआ नूरानी चेहरा)। इसमें तो कोई बरजने जैसी बात थी नहीं पर कुटुम्ब ने बरजना(बरसना) शुरू कर दिया, तरह तरह की कहानियाँ बनाकर बोल बोलना शुरू हो गया। एक तरफ कुटुम्ब दूसरी तरफ पराये हाथ बिके हुए नैन जो किसी तरह अटक मानने के लिए राजी नहीं है। कोई भला कहो या बुरा कहो सब स्वीकार है पर मेरी हालात तो यही है। मुझसे अपने गिरधर के बिना एक पल भी रहा नहीं जाता। स्त्री के द्वारा अपनी इच्छा का ऐसा खुला और सरल स्वीकार हिन्दी में दूसरा नहीं मिलता है। इस बात के कथा बनने का सबसे महत्व का विषय है वर्जना। ये निर्लज्ज आँखें अपने होने से आँखे फेर लेतीं तो वर्जना को नंगा नाच दिखाने का अवसर न मिलता और न ही बनाई हुई बातें सुनने को मिलतीं। फिर यह बिकने का प्रकरण- कोई भी वस्तु मुफ्त में दे दी जाय तो दान कहलाती है जो कि धर्म कर्म का मामला है और उसके एवज में कुछ ले लिया जाय तो खरीद फरोख्त के दायरे में आती है और यह नितान्त भौतिक व्यापारिक और जागतिक मामला है। आँखें बेचने के एवज में मीरां ने क्या लिया होगा-  यही तो है जो परिजनों की आँख में खटकता है और मीरां कहती है कि ये फालतू की बातें बनाते हैं। स्त्री के मन की यह घुमावदार गली उन तमाम तरह के दबावों का परिणाम है जिनका डर उसके इन्द्रियबोध तक पर पहरा देता है कि वह क्या सूँघ सकती है, क्या देख सकती है, क्या चख सकती है आदि।

(11)     जोगी मत जा मत जा मत जा, पांइ परूं मैं तेरी चेरी हों

प्रेम भगति को पैड़ो ही न्यारो हम कूं गैल बता जा

अगर चँदण की चिता रचाऊँ अपने हाथ जला जा

जल बल भई भस्म की ढेरी, अपने अंग लगा जा

मीराँ कहे प्रभु गिरधर नागर जोत मैं जोत मिला जा

जोगी को रुकने का आह्वान उसके जोगी मार्ग और मीरां के प्रेम भगति मार्ग  में भिन्नता से पैदा होता है। यह प्रेम भगति वही नहीं है जिसे हिन्दी साहित्य के इतिहास प्रेमाभक्ति की संज्ञा दी गई। प्रेम भगति के लिए कौन गैल है यह तो मीरां उस जोगी से पूछ रही है। उसको चेतावनी भी दे रही हैं कि तुम्हें जाना है तो चले जाना पर पहले मुझे मार डालो- मेरी चिता को अपने हाथ से जला दो फिर चले जाना। इतना ही नहीं तुम जो राख मलते हो अपने शरीर पर तो देखो मैं जल कर भस्म का ढ़ेर हुई जाती हूँ मुझे अपनी देह पर मल लो फिर चले जाना। मेरी जोत बुझने को है मुझे कोई तो ऐसी विश्वास की जोत दे दो। जिस तरह का झगड़ा वे जोगी से कर रहीं हैं उसमें दाम्पत्य की छवि मिली हुई है। जिद, करुणा और विवशता जिस तरह से क्रमवार उभरती है उसमें मीरां की थकान का अहसास होता है। न राजसत्ता से विरोध है न कुल से कलह। पैरों में गिरकर जोगी को रोकने के लिए नितान्त विवश मीरां। बड़ी त्रासद स्थिति बनती है मीरां की – जिसके लिए राणा की हुँकार को शेरनी की मांनिद खुलकर मीरां ने सहा चाहे किसी भी दबाव में या कारण वश -वह जोगी हो कर निकल जाय और उसको पैरों में गिरकर रोकने लिए निवेदन करना पड़े।


[1] रॉबिन लेकआफ, लैन्गुएज एण्ड वोमेन्स प्लेस, आक्सफोर्ड प्रेस

[2] विश्वनाथ त्रिपाठी- मीरां का काव्य- पृ.82


[1] मोहम्मद हबीब, उत्तर भारत में नगरीय क्रान्ति, मध्यकालीन भारत, सं. इरफान हबीब, पृ. 29


‘सतीप्रथा, भक्ति काव्य और हिन्दी मानसिकता’

सामान्य

‘सतीप्रथा, भक्ति काव्य और हिन्दी मानसिकता’
अनुराधा
भारतीय ‘हिन्दू स्त्री’ की मनोसंरचना सदा सुहागिन रहने के आर्शीवाद और सुहागिन (पति के जीवित रहते) मरने की मनोकामना के बीच निर्मित होती है। कहीं न कहीं इस सांकृतिक तथ्य में सती किये जाने का भय और जीवित जलाये जाने की पीड़ा एक सामाजिक-ऐतिहासिक सच्चाई के रूप में अन्तर्निहित है। उसके लिये सबसे बड़ा दु:ख ताउम्र इस आतंकित करने वाली मन:स्थिति का बना रहना है। हर क्षण वह इससे निजात पाना चाहती रही है। अपने इतिहास में उसने इस दु:स्वप्न से बचने के लिये सिंदूर और सिंधौरे के साथ न जाने कितने टोटके विकसित किये हैं।
इक्कीसवीं सदी में जब सभ्यता और संस्कृति विकास की नई ऊँचाइयों पर पहुँची दिखती है आज भी स्त्रियां सदियों पुरानी ‘स्त्री के प्रति क्रूर और बर्बर’ कर्मों और उनकी स्मृतियों से मुक्त नहीं हो पायी है। एक तरफ नये नये तरह के क्रूर प्रसंगों का विकास तो दूसरी तरफ तरह तरह से पुराने प्रसंगों का लौट कर आना स्त्री के प्रति दोहरी बर्बरताओं का बायस बन गये हैं। इनके बीज खास तरह की मानसिकता में सन्निहित हैं। सती पूजा और ‘सती’ की घटनाओं का बार बार दुहराया जाना यह सवाल उठाता है कि वैज्ञानिक विचारधारा, शिक्षा का प्रसार और समृध्द कानून व्यवस्था भी इसको खत्म करने में असफल क्यों है?
सती प्रथा की जड़ें पितृपक्षीय मानसिकता में है। उन्नीसवीं सदी के पूर्वाध्द के एक पुरुष कवि की नजर जब नवजात कन्या पर पड़ती है जो कि जच्चागृह के कोने में जलाई गई आग को देख रही है, तो वह सोचने लगता है कि बच्ची आग हर्षित होकर इसलिये देख रही है कि आगे चलकर उसे सती होना है। स्त्री मानसिकता को ढालने वाली इस मानसिकता की बलिहारी है जो स्त्री के जन्म लेते ही उसके भविष्य की रूपरेखा अपने स्याह मनसूबों से इस तरह तैयार कर देता है कि उसे जिन्दा जलाये जाने सें ही उसकी गौरव गाथा लिखी जा सकती है। यह ‘सती’ का प्रतिमान लम्बे समय से हमारे मानसिक संवेगों को प्रभावित करता रहा है। ‘सती-मइया’ की पूजा, सती स्थलों पर लगने वाले मेले और समय समय पर बार बार होने वाली सती की घटनायें वर्तमान में भी यह बताती है कि यह प्रतिमान आज भी मानसिक संवेगों पर दबावकारी भूमिका अदा करता है। आखिर इसको प्रतिमान बनाने के पीछे का सच क्या हैं? ध्यान देने की बात है कि उक्त कविता का समय वह समय (उन्नीसवीं सदी के पूर्वाध्द) है जब सती प्रथा उन्मूलन एक्ट लागू किया गया था। हिन्दी प्रदेश का इस तरह के मानवतावादी प्रयासों के प्रति क्या रूख रहा होगा अनुमान किया जा सकता है। हिन्दी मानसिकता को इस पृष्ठभूमि पर समझने की जरूरत है।
पितृपक्षीय मानसिकता में निर्मित हुए हिन्दी के आधुनिकबोध ने अपने बनाये गये दायरे में प्राय: ऐसे रवैये अख्तियार किये जिनसे समंजन और सहअस्तित्व (विरुध्दों के सामंजस्य) को ही बनाये रखा जा सके चाहे भले ही इसके लिये जरूरी से जरूरी मुद्दे का दबाना ही क्यों न पडे। हिन्दी साहित्य और आलोचना का क्षेत्र इससे पूरी तरह प्रभावित रहा है। मसलन स्नातक और परास्नातक स्तर पर कबीर की पढ़ाई जाने वाली अनेकों व्याख्यायें कभी भी मन में इस तरह नहीं बैठती थीं कि उन पर भरोसा किया जा सके, हमेशा यही लगता था कि इन कविताओं (स्त्री परक कविताओं) का बताया जाने वाला अर्थ अपनी अर्थवत्ता के अनुरूप नहीं है, कुछ बात ऐसी है जो सामने नहीं आ पा रही है। इन कविताओं में व्यक्त करुण प्रसंग आध्यात्मिकता के कठोर आवरण को जगह जगह से चीर डालते थे तो कई बार प्रगतिशीलता के धरातल पर तैयार तथाकथित लौकिक वैचारिक सन्दर्भ भी हास्यास्पद लगने लगते थे। आखिर वे कौन से खतरे थे जिनसे सावधान होकर हमारे चिन्तकों ने स्त्री के प्रति बर्बर रवैयों पर इतना कठोर आवरण डाला और सामाजिक-सांस्कृतिक अध्ययन के क्षेत्र में लगातार तथ्यों को झुठलाते रहे। ऐसे ही पहलुओं पर विचार करना इस लेख का मुख्य विषय है। भक्तिकाव्य में ‘सतीप्रसंग’ और ‘सूर प्रंसग’ तत्कालीन मानसिकता के आदर्श हैं जिनकी उम्मीद क्रमश: स्त्री और पुरुष के जीवन से की जाती रही है। डॉ.हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है ”यदि भक्त के आत्मबलिदान की झलक कहीं दिख सकती है तो वह सती और सूर में ही दिखती है।” तत्कालीन राज व्यवस्था की(न कि समाज व्यवस्था की) उथल पुथल इस बात को भले ही उचित ठहरा दे कि पुरुषों के लिये ‘शूरता’ का आदर्श महान कर्म था (हालांकि वीरता को व्यवसायिक सन्दर्भों में देखा जाना अधिक न्यायप्रद है न कि मानवता के लिये त्याग के रूप में और यह भी कि सैनिकों द्वारा स्त्रियों के प्रति किये गये अत्याचारों के तथ्यों से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है), लेकिन स्त्री के लिये ‘सती’ को आदर्श के रूप में स्वीकार करने को उचित ठहरा पाना आसान काम नहीं है। यह निश्चित रूप से मानवता के प्रति, स्त्री जाति के प्रति जघन्य अपराध है और यह अपराध इन भक्त कवियों से भी हुआ। हालांकि सती प्रसंग का सबसे मजबूत तर्क यह रहा कि ‘पति के प्रेमवश स्त्रियां सती होती थीं और ऐसा करने पर उन्हें आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त होता था’ लेकिन यहां यह बड़ी आसानी से पूछा जा सकता है कि क्या उस समय होने वाले विवाह प्रेम विवाह थे और परिवार के भीतर पति का प्रेम इतना प्रगाढ़ था कि वह पत्नि को जल मरने के लिए प्रेरित करता था? प्रेम बराबरी पर आधारित मूल्य है तब क्या प्रेम में कभी किसी पुरुष के सती होने की बात सामने आयी? (शब्दकोषों में सती का पुल्लिंग शब्द तक नहीं पाया जाता है।) जबकि उस जमाने की लोक प्रेम-कथाओं में प्रेम के लिये जान देने में स्त्री पुरुष में भेद भाव नहीे पाया जाता। (इस तर्क से यह अर्थ कतई नहीं लगाया जाना चाहिये कि प्रेम प्रसंगों में आत्महत्या या हत्या (सती) के किसी भी प्रयास का समर्थन किया जा सकता है)बात साफ है कि सती के आदर्शीकरण में प्रेम के बजाय कुछ और अन्तर्निहित कारण हैं जिनकी छानबीन जरूरी है।
सती का आदर्श वैदिक साहित्य से ही निर्मित होना शुरु हो गया था। ऋग्वेद के सती सूक्त से शुरू होने वाले सती के साक्ष्य महाभारत में कृष्ण के आठ आठ पत्नियों के सती होने से होते हुए पूरे संस्कृत शास्त्रों, पुराणों, स्मृतियों तथा साहित्य में फैले हुए हैं। इन साक्ष्यों पर विवरणों में बात करना मेरे इस लेख का विषय नहीं है। डॉ.रामविलास शर्मा ने सती होने के कारणों पर लिखा है-‘भारत पिछड़ा हुआ देश है, यह साबित करने के लिये सती प्रथा का बार बार उल्लेख किया जाता है। यहाँ के शास्त्रों में और स्मृतियों में स्त्रियों को जो अधिकार दिये गये है, खास तौर पर पति के न रहने पर विधवा को जो अधिकार प्राप्त है…….इन अंशों को एक जगह एकत्र करके एक पुस्तिका रूप में छाप देना चाहिए….इसलिए उनका चिता पर पति के साथ जलना अनिवार्य नहीं था।’ उक्त तर्क देकर ‘शास्त्रों को घोर स्त्रीवादी’ मानने वाले शर्मा जी आगे इस पर चुप हैं कि फिर आखिर सती होती क्यों थी और सती करने के विधानों को इतना सजाकर शास्त्रों में क्यों बिठाया गया। रामविलास जी का एक और तर्क है कि ‘पश्चिमी विद्वानों खासकर विदेशी यात्रियों के वर्णनों में भारत की छवि को धूमिल करने की मंशा शामिल है इनके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों पर विश्वास नहीं करना चाहिये।’ शरत्चन्द्र तो पश्चिम के नहीं है। ‘नारी मूल्य’ रचना में शरत्चन्द्र लिखते हैं ” स्वामी की मृत्यु के बाद ही उसकी विधवा को एक कटोरा भाँग और धतूरा पिलाकर नशे में मदहोश कर दिया जाता था। जब वह श्मशान की ओर जाती थी तो कभी हँसती थी कभी रोती थी और कभी रास्ते में जमीन पर लेटकर ही सोना चाहती थी। यही उसकी हँसी थी और यही उसका सहमरण (सती) के लिये जाना था। इसके बाद उसे चिता पर बैठा कर कच्चे बांस की मचिया बनाकर दबाकर रखा जाता था क्योंकि डर रहता था कि शायद सती होने वाली स्त्री दाह की यन्त्रणा न सह सके। चिता पर बहुत अधिक राल और घी डालकर इतना अधिक धुंआ कर दिया जाता था कि उस यंत्रणा को देखकर कोई डर न जाये और दुनिया भर के इतने अधिक ढोल-ढक्के, करताल और शंख आदि जोर जोर से बजाए जाते थे कि कोई उसका चिल्लाना रोना-धोना या अनुनय विनय न सुनने पाये। बस यही तो था सहमरण।” शरतचन्द्र का यह विवरण सती होने के करुण प्रसंगों और सामाजिक नृसंशताओं के सामने लाकर भारतीयता के तर्क के सहारे सती के आदर्शीकरण की प्रवृत्तियों को नकारने को प्रेरित करता है। असल बात है कि ब्राह्मणमना प्रगतिशीलता की पूरी परम्परा छद्मों के सहारे पिछले ड़ेढ़ सौ सालों से लगातार समाज के पीड़ित तबकों के वास्तविक अभियुक्तों को बचा ले जाने में कामयाब रही हैं। खासकर हिन्दी की प्रगतिशील पीढ़ी कदाचित ही डॉ. शर्मा के विचारबिन्दुओं से बाहर निकल पायी है। सती होने के बारे में प्रगतिशील बुध्दिजीवी भी जो तर्क देते है उनमें मुख्य भूमिका परमार्थ लाभ के झांसों की है, सहयोगी भूमिका सम्पत्ति के अधिकार की।
नवजागरण के समाज चिन्तकों ने परम्परा के प्रति जो नजरिया अख्तियार किया वह भी कमोवेश इसी पितृपक्षीय भाव भूमि पर खड़ा दिखता है, जो अपना चेहरा सुर्खरू रखने के लिये लगातार झूठ का सहारा लेता रहा है। सती प्रथा के विरोध के आन्दोलनों का भी तर्क यही रहा कि हमारे यहां प्राचीन समय में सती जैसी कोई परम्परा नहीं रही, यह सब मुसलमान शासकों के आने के बाद अपनी मान मर्यादा की रक्षा के लिये उठाया गया कदम था, आखिर हतदर्प जाति क्या करती? (क्या ऐसी मन:स्थिति में अपनी स्त्रियों को जलाया जाना ही पितृपक्ष के दर्प-रक्षा का मात्र सहारा था? क्या कभी किसी स्त्री ने अपनी दर्प रक्षा के लिए अपने पुरुष को जलाया या हत्या की ? ) सती प्रथा विरोध के पुरोधा राजा राममोहन राय का मानना था कि ऐसा केवल बंगाल में होता है और थोड़े दिनों से ही हो रहा है। वे सती को एक तरह की आत्महत्या ही मानते थे, हत्या नहीं। आत्महत्या मानने में दोषी स्त्री ठहरती है, जबकि हत्या मानने में दोषी पितृपक्ष ठहरता है। (दोष किसका और दोषी कौन ठहराया जा रहा है?) अगर सती को आत्महत्या मानें तब भी तो इसके पीछे जिम्मेवार वह ‘स्त्री निर्माण प्रक्रिया’ है जो स्त्री के जहन में इस तरह की आत्महत्या के लिये प्रोत्साहन पैदा करती थी और वह ‘पितृसत्ता’ है जिसने सती की सिला पर अपने गौरव की नींव रख रखी थी। सती होने का निर्णय इस निर्माण प्रक्रिया, पारिवारिक प्रतिष्ठा और मृत्यु के आवेशित क्षणों में होता था और सती के निर्णय ले लेने के बाद स्त्री को इतनी मात्रा में भाँग पिलाते रहते थे कि वह लगभग अचेतावस्था में रहे और अपना निर्णय पर पुर्नविचार भी न कर सके, ऐसी अवसादपूर्ण अवस्था में आत्महत्या के लिये नशा कराने वाले और बहु प्रकारेण प्रोत्साहित करने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों को कानूनी तौर पर हत्या का दोषी मानने में ही न्याय है। जबरदस्ती हाथ पाँव बाँध कर सती कराये जाने के मामले तो सीधे सीधे हत्या के मामले हैं ही। सती होने के लिए स्त्री की हाँ और ना के अन्तर को समझा जाय तो जिस तरह ‘हाँ’ का उल्टा ना है उसी तरह ‘सती’ का उल्टा ‘कुलटा’ है। क्या ना कहकर कोई स्त्री कुलटा बनकर सामाजिक जिन्दगी जी सकती थी? इस द्वन्द्वपूर्ण मन:स्थिति में उसकी चुप्पी को ही उसके परिवारीजन हाँ घोषित कर उस स्त्री का निर्णय करार देते थे- ‘मौनम् स्वीकार लक्षणम्’। मान्य इतिहासकारों ने भी बाद में सती के सन्दर्भ में नवजागरणीय विमर्श के स्वर में अपना राग अलापते हुए थोड़े बहुत संशोधन के साथ वही बातें दुहराईं। राम शरण शर्मा ने अपने लेख ‘सती प्रथा के एतिहासिक पहलू’ में सती के विकास के कारण गिनाये हैं, गुप्ता काल के बाद सती प्रथा फैली, सती प्रथा केवल लड़ाकू समुदायों के अंतर्गत वर्ग-विभाजित, संपत्ति-आधारित एवं पितृसत्तात्मक समाज के ही कारण पैदा नहीं हूई बल्कि विधवा को आत्म-हत्या अनुष्ठान से प्राप्त होने वाले पुण्य में गहराई से गड़ी भावना के कारण भी उत्पन्न हुई।’ ये बीसवीं सदी के उत्तरार्ध्द का रवैया है। वही पुण्य भावना और वही आत्महत्या का तर्क जो स्त्री को मूर्ख और लालची साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता।
सती होने के इन गोल मोल तर्कों से कैसे सहमत हुआ जा सकता है? उदाहरण मिलते हैं कि बारह साल की लड़कियों को जिनका गौना तक नहीं हुआ होता था, हाथ पैर बांध कर जलती चिता में फेंक दिया जाता था। बर्नियर ने एक विवरण ऐसी घटना का दिया है ‘मैंने लाहौर में एक बहुत ही सुन्दर लड़की को जलते हुए देखा। मैं समझता हूं कि उसकी अवस्था बारह वर्ष से अधिक न होगी। वह लड़की उसी तरह चिता के निकट लायी गयी भय के कारण अधमरी सी मालूम होने लगी। वह काँपती थी और बिलख बिलख कर रो रही थी। इतने मैं तीन चार ब्राह्मण जिनके साथ एक बुढ़िया भी थी और जो उस लड़की को गोद में लिये थी आये और उसे चिता पर बैठा दिया, उसके हाथ और पैर बांध दिये, इस प्रकार उसे जीवित ही जला दिया।’ यह किस पुण्य की भावना है? और किस तरह की गयी आत्महत्या है? हठात् कबीर की कविता याद आती है ‘करो जतन सखी सांई मिलन की। गुड़िया गुड़वा सुपलिया, तजि दे बुधि लरिकैया खेलन की ।…….कहि कबीर निर्भय होइ हंसा, कुंजी बता द्यौ ताला खुलन की।’ गुड्डे गुडियों से खेलती लड़की के हाथ से खिलौना छीनकर उसे लाकर चिता में झोंक दिया जाता है और कहा जाता है कि यह पति से मिलने का रास्ता है (इस लोक में न सही परलोक में सही)। इस आग से बच निकलने के तरकीब के लिये निर्भयता की जरूरत है जो कबीर जैसे निडरों में भी नहीं है, उस नादान लड़की की तो बात ही क्या। सती की घटनाओं के एतिहासिक पहलुओं पर नजर डालें तो अधिकतर कम उम्र की नादान स्त्रियों के सती होने की घटनायें की मिलती हैं। दूसरे सती अकाल मृत्यु (बीमार, दुर्घटना, युध्द आदि के कारण) से मरने वाले पुरुषों के साथ ही किया जाता था। तीसरे सती होने वाली स्त्रियां हमेशा होने न होने के गहरे द्वन्द्व की शिकार होती थी जिसे शमन के लिए नशीले पदार्थोें का सेवन कराया जाता था। यह विश्वास कि अकाल मृत्यु के बाद आत्मा के लिए स्वर्ग दरवाजे के बन्द होते हैं। सती स्त्री अपने सतीत्व के बल पर उसे स्वर्ग में ले जा सकती है।यह माना जाता है कि भटकनेवाली आत्मायें घूम घूम कर अपने स्वजनों के पास आती हैं। स्वजनों को अपने कर्मों के कारण हमेशा यह भय रहता है कि यह आत्मा उसकों नुकसान न पहुँचाये उसके लिए यह जरूरी है कि उसे स्वर्ग तक पहुँचाया जाय। पितृसत्तावादी समाज में इसका एक मात्र रास्ता है कि उसकी पत्नि को उसके साथ सती कर दो ताकि वह अपने पति को स्वर्ग पहुँचाये और बाकी लोग उसके प्रकोप से बच सकें। यही वह गुत्थी है जो सती को जन्म देती है। अब इस विश्वास के ऐतिहासिक विकास पर मानवशास्त्रीय अनुसंधान की दरकार है। लेकिन एक बात कही जा सकती है कि मातृसत्तात्मक समाजों में यह विश्वास नहीं पनपा अन्यथा पुरुषों को जलाये जाने के मामले भी प्रकाश में आ सकते थे। सती होने के सम्बन्ध में लोक में एक और मत प्रचलित है कि सती को कोई जलाता नहीं था वह तो अपने सतीत्व की आग से स्वयं भस्म हो जाती थी। सती होने की घटनाओं को देखने के लिए सती स्थल पर हर किसी के जाने की अनुमति नहीं थी, खासकर स्त्रियां और बच्चे तो प्रतिबन्धित थे। सती होने के किस्से सती करके लौटने पर वही लोग सुनाते थे जो उस प्रक्रिया में संलग्न होते थे चाहे वे चिता के चारों ओर लाठियां लिए खड़े हो या आग लगा रहे हों या ढोल बजा रहे हों। समझा जा सकता है कि ये लोग अपने कर्मों के प्रति कितना झूठा प्रचार करते थे। यदि सारी घटना सच सच बयान कर दी जाती तो यह जानलेने के बाद कि चिता से भागती जलती हुई स्त्री को जबरदस्ती लाठियों के बल पर धकेलकर चिता में फेंक दिया गया है तो कोई भी स्त्री सती होने के लिए किसी भी शर्त पर तैयार नहीं होती।
सती होना या किया जाना व्यापक उपक्रम रहा है। यह व्यक्तिगत निष्ठा का सवाल शायद ही कभी रहा हो। या तो पारिवारिक प्रतिष्ठा का सवाल है या फिर सती होने से बच निकलने के बाद की दुर्दशा की मजबूरी। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। बर्नियर ने लिखा है कि ‘जो स्त्रियां चिता देखकर डरती और इस प्रकार भाग जाती हैं वे अपनी जाति वालों से मिलने या उनके साथ रहने की आशा कभी नहीं कर सकती क्योंकि वे लोग उसे बहुत बदनाम कर देते हैं। स्त्री इतिहास की ‘डाइन’ की अवधारणा के पीछे सती की घटना जिम्मेदार है, भागने वाली स्त्रियां पुन: लौटकर अपने सगे सम्बन्धियों से न मिल सकें इसलिये उसको इतना भयावह तमगा दिया जाना जरुरी कदम था और इसलिये भी कि सनद रहे। ‘डायन’ के रूप में प्रचलित नकारात्मक मान्यताएं कहीं न कहीं सती होने से किसी भी अवस्था में भाग जाने को रोकने के लिये स्त्री मानस को तैयार करने के तरीके थे। ‘डायन’ के साथ बच्चों को ही जोड़कर बातें प्रकाश में आती हैं। बच्चों वाली माँओं को भी सती कर दिया जाता था। यदि वह सती होने से भाग गयी तो उसकी ममता तो नहीं मर जाती। उसके स्तनों में दूध उतरना तो नहीं रुक जाता। बहुत सम्भव है कि उसके ममता और दूध उतरने के क्षणों में उसे बच्चों के संसर्ग की इच्छा जोर मारती हो और वह बच्चों को देखकर उनमें अपने बच्चों की छवि देखने लगती हो और कई बार भरे हुए दूध की पीड़ा से निजात पाने के लिए किसी छोटे बच्चे को अपना दूध पिलाने लगती हो। यही बात इसका आधार बनती है कि डायनें बच्चों को अपना दूध पिलाकर मार डालती है। हो सकता है कि अपने बच्चों को याद को वह दूसरे बच्चों के साथ कुछ क्षण बिताने में पूरा करती हो यही बात इसका आधार बनती है कि डायन बच्चों को बहला कर उठा ले जाती है। ‘डायन’ की इस परिकल्पना में स्त्री के दु:खों की वह कहानी छुपी है जिन्हें वह सिर्फ और सिर्फ जिन्दा बचे रहने के कारण भोगती है।
सती के ‘मिथ’ के विकास में ‘प्रदर्शनात्मक उपभोग’ का भी बड़ा योगदान है। जिस तरह ‘प्रदर्शनात्मक उपभोग’ में सामाजिक प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिये अमेरिका के उत्तर-पश्चिमी तट की जनजातियों में तो वर्ष भर की जी तोड़ मेहनत कर इकट्ठी की गई कमाई को सीधे सीधे आग तक लगा देना या लुटा देने की प्रथायें रहीं है। बाद के समाजों में जब स्त्री के अवमूल्यन के परिणाम स्वरूप उसे निजी सम्पत्ति के रूप में मान लिया गया तब उसी तरह धर्मशास्त्रीय तर्कों के सहारे उसको ‘प्रदर्शनात्मक उपभोग’ के लिये जलाया जाना ही सती की अर्न्तवस्तु है।(सम्पत्ति और सम्पत्ति के अधिकार दोनों में स्पष्ट भेद करना होगा और सती के मामले में ‘स्त्री के लिये सम्पत्ति के अधिकार’ जैसी बात कैसे हो सकती है जबकि स्त्री स्वयं निजी सम्पत्ति है।)परिवार अपनी साख को चरम पर पंहुचाने के लिये इस प्रथा का सहारा लेता रहा है। सती होने से दोनों कुल तरते है, दोनों की प्रतिष्ठा बढ़ती है, इसके लिये दोनों ही परिवार स्त्री के मानस में सती का आदर्श गढ़ते रहे है। (सती होने की संख्या में तब तब तेजी से बढ़ोत्तरी देखी जा सकती है जब जब व्यक्ति के रूप में स्त्री का अवमूल्यन हुआ है।) डॉ.विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने लेख ‘वर्णव्यवस्था, नारी और भक्ति आन्दोलन’ में लिखा है ”शासक के मरने पर केवल पत्नियां ही नहीं सती होती थीं, नौकर और चाकर भी जलते थे। परलोक में राजा को पान कौन खिलायेगा, हजामत कौन बनायेगा, कपड़े कोन धोयेगा? खाना कौन खिलायेगा? ब्राह्मण देवता भंडारी थे, उन्हें भी जलना चाहिये। लेकिन वे बच जाते थे। ‘(ध्यान देने की बात है कि यहां वे शासक वर्ग की विलासिता को सती का कारण बताकर उसका सूफियाना विरोध कर रहे हैं।) त्रिपाठी जी का तर्क मजबूत है कि जिसने इस लोक में श्रम न किया हो वह भला कैसे झेलेगा। लेकिन राजमहलों में रानियां भी उन सभी सुविधाओं का लाभ प्राप्त करती थीं। उनके लिये भी नौकर चाकर और रसोइयों की व्यवस्था होती थी और बहुत बार ऐसा होता होगा कि राजा जिन्दा रहता होगा रानी मर जाती होगी। क्या राजा के जिन्दा रह जाने पर परलोक में रानियों के लिये इन सुविधाओं की जरूरत नहीं रहती होगी? तो फिर रानियों के मरने पर उसके साथ कभी एक भी अनुचर जलाया गया हो इसकी चर्चा क्यों नहीं पायी जाती।(हां मरने के बाद परलोक में राजा तो राजा ही रहता हो पर रानी से उसकी रानी की प्रस्थिति छीनकर साधारण स्त्री मान लिया जाता हो तो अलग बात है) त्रिपाठी जी का दूसरा तर्क निराश्रितता का है-निराश्रित रह जाने पर भी लोग अपने आश्रयदाता के साथ जल मरते थे। ध्यान देने योग्य बात है कि किसी को भी आश्रय एक व्यक्ति का न होकर एक व्यवस्था का मिलता है और व्यक्तियों के मर जाने से व्यवस्थाओं का अन्त नहीं होता। एक राजा के मर जाने पर पहले उसका वारिस राज्य सभांलता था और बाद में राजा का अन्तिम संस्कार होता था। तब निराश्रितता का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि इसका क्रेडिट स्वामिभक्ति को दिया जाता तो अलग बात है। डॉ.लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने लिखा है कि वह जमाना ही अन्धविश्वास का था। काशी में एक दिन में जितनी स्त्रियां सती होती थी उससे अधिक पुरुष गंगा में करवट ले लेते थे। सती के रूप में स्त्री को जलाने वाले को अन्धविश्वास का शिकार कहकर क्लीनचिट दे दी जाती है। समझा जा सकता है कि हिन्दी आलोचना तर्कों का एक मनोहर जाल खड़ा करके किस तरह ‘पुरुष’ को बचा ले जाती है।
भक्तिकाव्य और मध्ययुग की व्याख्या करते समय स्त्री की स्थिति पर तरह तरह से चर्चा की जाती रही है। हिन्दी साहित्य में भक्त कवियो के सन्दर्भ में कवियों के स्त्री के प्रति रवैये को लेकर उन्हें कम और अधिक महान साबित करने के प्रयास ही किये गये। इस दौर के सबसे संजीदा व्यक्ति कबीर के काव्य का पाठ करते समय उसके स्त्री सम्बन्धी विभाव पक्ष को या तो समझा ही नहीं गया या फिर नकारा गया या फिर पितृसत्ता के लाभ के अनुरूप ग्रहण कर लिया। इन सब बातों में पितृपक्ष का स्त्रियों के प्रति रवैये का पता चलता है। कबीर की अनेक कविताएं हैं जिनको लोक-परलोक, वैवाहिक प्रेम, ईश्वर प्रेम और विवाह सम्बन्धी कुरीतियों (बाल विवाह, बेमेल विवाह आदि) से सम्बन्धित करके व्याख्यायित किया गया, जबकि असलियत में उन पदों में कुछ और ही बात है, हमारा पितृपक्ष हमें लगातार भरमाकर इस तथ्य से दूर ले जाता रहा है। प्रसिध्द पद ‘दुलहिनि मोरी गावहुं मंगलचार’ को ‘मंगलाचार’ शब्द पर जोर देकर सीधे सीधे विवाह उत्सव का गीत व्याख्यायित किया गया, परन्तु विवाह में ‘सरोवर के किनारे वेदी’ बनाने का विधान तो है नहीं और राजस्थान में सती के गीतों को ‘मंगलाचार’ कहते हैं। यहाँ यह बात उठाते ही व्याख्या खण्ड खण्ड हो जाती हैं। ‘सरोवर’ पर जोर देते ही अर्थ विधान ‘दुल्हन’ को ‘सती’ के लिये लायी गयी स्त्री में बदल देता है। तत्कालीन दौर के घुमक्कड़ इब्बन बतूता ने अपने यात्रा वृतान्त में लिखा है ‘तीन कोस चलने के बाद हम एक ऐसी जगह पहुचे जहाँ जल की बहुताइत थी और वृक्षों की सघनता के कारण अन्धकार छाया हुआ था। यहाँ चार गुम्बद (मन्दिर ) बने हुए थे और चारों में एक देवता की मूर्ति प्रतिष्ठित थी। इन चारों के मध्य एक ऐसा सरोवर था जहाँ वृक्षों की सघन छाया होने के कारण धूप नाम को भी न थी।…….इस कुण्ड के पास नीचे स्थल में अग्नि दहकायी गयी।…..पन्द्रह पुरुषों के हाथों में लकड़ियों के गट्ठे बंधे हुए थे और दस पुरुष अपने हाथ में बड़े बड़े कुन्दे लिये खड़े थे। नगाड़े नौबत और शहनाई बजाने वाले स्त्रियों की प्रतीक्षा में खड़े थे।……इतना कहकर वह प्रणाम करकर तुरन्त उसमें कूद पड़ी। बस नगाड़े, ढोल ,शहनाई और नौबत बजने लगी। उपस्थित जनता भी चिल्लाने लगी। कबीर के उक्त पद के काव्य संवेदन संसार इब्बन बतूता के वर्णनों के साथ पढ़ा जाय तो पितृपक्षीय दृष्टियों का वह कमाल उजागर हो जाता है जो कि काव्य संवेदना को रहस्यवाद का जामा पहनाकर स्त्री इतिहास के करुणतम पक्ष को भी जिन्दा दफन कर देता है, स्त्री के जिन्दा जलाये जाने के अनुष्ठान और विवाह के उत्सव दोनों में घालमेल कर डालता है। इसी तरह की कविता रैदास लिखते हैं। मंगलाचार है, भरतार है, मन्दिर है, पीतम है, करतार है, लेकिन वे सन्दर्भ गायब हैं जो कबीर की कविता के सती सम्बन्धी होने के पक्के प्रमाण देते हैं। दोनों कविताओं को साथ रखकर पढ़ा जाय तो अब तक तथ्यों की मनमानी व्याख्या करने वाली हिन्दी मानसिकता का रवैया और स्पष्ट दिखाई देगा।
भक्तिकाव्य में कबीर ही ऐसे कवि है जो सती की करुणा का अनुभव साहित्य को दे पाते हैं। लिखने को तो जायसी ने पद्मावत में सती खण्ड की रचना करते हुए लिखा है ‘लागीं कंठ आगि दै होरी। छार भई जरि अंग न मोरीं॥’ यह अनुभव सुने हुए वर्णनों का ही है जो कि पितृपक्ष सती के आदर्शीकरण के लिये करता था। राजस्थान उस समय में सती की चीत्कारों से कराह रहा था। धरती राख से काली और आकाश चिताओं की लपटों से लाल था। इसकी अतिशयता ने मुस्लिम शासकों को सती पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये प्रेरित किया। अकबरनामा में अबुल फज्.ल ने लिखा है कि सती को रोकने के लिये हर कस्बे और जिले में ईमानदार प्रेक्षक नियुक्त किये गये थे और सती होने के लिये राजाज्ञा लेनी आवश्यक कर दी थी। जबरन सती को रोकने के सख्त निर्देश थे। ‘जबरन सती’ शब्द पर विशेष ध्यान देना होगा। जो लोग पश्चिमी यात्रियों के विचारों का भारत की छवि धूमिल करने का दुष्प्रचार मानते हैं और सती प्रथा का स्वैच्छिक और पुण्यप्राप्ति का साधन बताते हैं उनसे ‘जबरन’ का अर्थ पूछना होगा। इस समय राजस्थानी में सती की घटनाओं को लेकर कविताऐं लिखी गयीं पर उन सबमें सती की प्रशस्ति और महिमामण्डन ही भरा हुआ है। स्त्री के भय, दु:ख और तनाव का कहीं नाम ही नहीं है। चमत्कार की लीला है कि राजस्थान की इतनी स्त्रियां जलकर अपनी पवित्रता का प्रमाण देती चली गयीं और उफ तक नहीं किया। भक्तिकाव्य और भक्ति आन्दोलन के विकास में ‘संस्कृतीकरण'(श्रीनिवासन की सामाजिक विश्लेषण की अवधारण) की प्रक्रिया के महत्व को जब तक तरजीह न दी जाय बात को पूरी तरह समझना कठिन है। निम्न जातियों में आया आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की रक्षा का भाव उन्हें उच्च जातियों में प्रचलित ऐसी प्रथाओं को महत्व देने और अपनाने के लिये प्रेरित करता है जो कि सामाजिक क्षेत्र में प्रतिष्ठा को बढ़ाती हैं। उच्चजातियों में सती का आदर्श प्रदर्शनात्मक उपभोग के जरिये उच्च प्रतिष्ठादायक रहा है। स्वाभाविक रूप में निम्नजातियों और निम्नवर्ग से आने वाला सन्तों का समूह इस ीपही मेजममउ हंपदपदह तपजनंस पर लहालोट है। आज सती कानूनी तौर पर प्रतिबन्धित है लेकिन किसी विधवा स्त्री को विधवा बने रहने के लिये (विधवा पुर्नविवाह रोककर) ‘लोक-समाज’ किस तरह का मायाजाल फैलाता है और उससे किस तरह अपनी प्रतिष्ठा के बढ़े होने का अनुभव करता है इसके आधार पर सती प्रकरण के प्रतिष्ठादायक प्रसंग को समझा जा सकता है। सन्तकाव्य में सती के प्रति अपार निष्ठा के पीछे यह भावना मानी जा सकती है, सभी सन्तों ने सती के आदर्श को समान रूप से जगह दी है। कबीर इस माइने में अलग हैं कि वे सती के रूप में प्रचलित अनाचारों से व्यथित हैं (पर उसका विरोध कहीं नहीं कर पाते)। कबीर सती के उस रूप से परहेज नहीं रखते जिसमें सती होने की इच्छा वास्तव में स्त्री क़े प्रेम की पराकाष्ठा हो,(साँई से लगन कठिन है भाई/……..जैसे सती चढ़ी सत ऊपर पिया की राह मन भाई।) लेकिन जबरदस्ती की सती की घटनाओं से उन्हें इत्तिफाक नहीं है।( और प्रेम की पराकाष्ठा पर आधारित सती एक आदर्श मात्र है, व्यवहार तो सारा का सारा या तो जबरदस्ती है या फिर मजबूरी)। कबीर के जबरदस्ती सती के प्रति रवैये को मुसलमान शासकों द्वारा इस तरह की सती की घटनाओं पर आलोचनात्मक विचारों के प्रभाव के रूप में भी देखा जा सकता है।
सती होने की घटनाओं का मध्यकाल में ऑंखों देखा हाल जानना है तो कबीर की कविता सुनाती है ‘सती जलन कूं नीकसी, पिउ का सुमिर सनेह। सबद सुनत जिउ नीकल्या भूलि गई सब देह।” घर से सती होने को निकली वह पति के प्रेम की तथाकथित प्रतिज्ञा में भूली हुई थी, ढ़ोल नगाड़ों की आवाज और सती के जयघोषों की भयावह आवाज से ही दम निकल रहा है, अब देह की सुध भला कैसे आ सकती है। जिउ निकलना कोई साधारण क्रिया कलाप नहीं है। पीड़ा को गम्भीर संकेन्द्रण यहाँ है। पूरे काव्यव्यापार का बलाघात इसी एक बिन्दु पर है। कबीर मर्मज्ञ डॉवासुदेव सिंह की सुनिये ”जीवात्मारूपी सती ने अनाहद नाद (बाद्य) के प्रोत्साहन से प्राण त्याग दिये।” हिन्दी मानसिकता का रवैया यहाँ साफ तौर पर देखा जा सकता है कि वह इस कविता में योगियों के अनाहद-नाद जो कि साधनावस्था में जीवात्मा और परमात्मा के मिलन की घड़ी में उत्साह बर्धक भूमिका अदा करता है, आनन्द की चरम स्थिति को व्यक्त करता है, के रूप में व्याख्यायित कर डालती है, जबकि यह कविता समाज में घट रही इतिहास की क्रूरतम और भयावह घटना से बनती है। यदि यह मान लें कबीर का मन्तव्य उस विशिष्ट दार्शनिक सत्य को उद्धाटित करना है तो कबीर के द्वारा अपनाया गया सती का यह ‘रूप-विधान’ निंदनीय है और यदि नही ंतो हिन्दी आलोचना के ऐसे प्रयास निंदनीय हैं जो खींचतान कर उसे दर्शन के ऐसे आयामों तक ले जाते हैं। पर कबीर की कविताएं पढ़कर कभी ऐसा नहीं लगता कि उन्होंने इतनी अमानवीयता पायी थी। फिर दोष सीधे हिन्दी आलोचना पर जाता है जो कि ऐसे क्रूरतम क्षणों में भी आनन्द की खोज कर लेती हैं। कबीर की विचारधारा पर ध्यान दिया जाय तो पता चलेगा कि वे न तो वैष्णव हैं, न सन्त हैं और न ही योगी। इन खानों से बाहर जाकर देखा जाय तभी उनकी कविता की समझ पैदा की जा सकती है। लोक की एक खास विशेषता है कि वह किसी विशिष्ट अवधारणात्मक पदावली को ग्रहण तो कर लेता है पर उसकी अर्न्तवस्तु के प्रति अवसर के अनुकूल व्यंग्यात्मक खिलवाड़ उन पदों के साथ करता है। कबीर के द्वारा ग्रहण विभिन्न अवधारणत्मक पदों में यही बात साफ तौर पर देखी जा सकती है।
कबीर की कविता पर सती प्रकरण को लेकर बात करना इसलिये जरूरी है क्योंकि अब तक का सोचविचार का पितृपक्षीय दायरा मध्ययुगीन साहित्य में अधिक से अधिक श्रंगार और मात्र कुछ धार्मिक आडम्बरों के विरोध भर को ही देख पाता है। ”धर्म के बाह्याडम्बर और शास्त्रीय जकड़बन्दी के प्रति संवेदनशील मन का विद्रोह ही भक्ति है।” उनके लिये भक्ति की शक्ति प्रेम की बराबरी और सघनता तक सिमटी है। इससे आगे वे यह नहीं देख पाते कि आधी आबादी कहां गयी? (जबकि प्रेम में स्त्री को भी बराबरी का हक होना चाहिए।) कबीर की कविता सती प्रसंगों को सामने लाकर यह दिखाती है कि देखो आधी आबादी वह जल रही है या जलायी जा रही है।’ विरह जलाई हौं जलूं, जलती जलहर जाउं। मो देख्या जलहर जलै, संतो कहाँ बुझाउं॥’ सती की घटना को जिस सरोवर के किनारे अन्जाम दिया जाता है यदि उस सरोवर के दूसरे किनारे बैठकर देखा जाय तो निश्चित रूप से जलने वाली परछाईं के कारण सरोवर भी जलता मालूम होगा। चारों तरफ आग ही आग दिखाई दे रही है। सती के लिए तो यह आग ही विभीषिका है। इससे साफ है कि कबीर अकेले हैं जो इस तरह की घटनाओं के साक्षी हैं वे समाज के ऐसे क्रियाकलापों से संवेदित होते थे। लेकिन हिन्दी आलोचना का कहना है कि ”यह साखी केवल विरहाग्नि की तीव्रता बताने के लिए की गई है और इसमें कोई अन्योक्ति नहीं।” इस तरह की आलोचना पध्दति ने अब तक के हिन्दी साहित्य के इतिहास को ऐसे ही मनमाने निर्णयों से भर दिया है जो कि कभी भी यह ध्यान नही रखते कि अपने ऐसे कृत्यों से वे परम्परा के साथ किस तरह से खिलवाड़ कर रहे हैं।
कबीर की कविता को सती के विरोध की कविता कभी नहीं माना जा सकता। वे भी अन्य कवियों की तरह अनेकों बार सती का महिमामण्डन पूरे मनोयोग से करते हैं। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि यदि सती की व्यथा का कोई अनुभव करता है तो भक्तिकाव्य में वे अकेले कवि हैं। यदि इन कविताओं का कालक्रम निर्धारित होता तो सती के प्रति उनके विचार के विकास को रेखांकित किया जा सकता था। बहुत सम्भव है कि किसी काल में उनके लिए सती एक आदर्श रहा हो और किसी अन्य समय में सती की घटनाओं को ऑंखों से देखने के बाद वे अपने इस आदर्श पर कायम न रह पाये हों। कबीर के ‘दुलहिनि मोरी गावहुं मंगलचार’ पद पर आचार्य परशुराम चतुर्वेदी कहते हैं कि यह दाम्पत्यभाव पूर्ण रचना है और ‘जोवन मदमाती’ स्त्री का उमंग प्रदर्शन है। इसके उलट भारतीय विवाह प्रणाली में विवाह के अवसर पर स्त्री का रोना एक स्वाभाविक सा उपक्रम हेै, जबकि सती होने के समय उसका रोना स्वीकार्य नहीें है, उसे उन्माद और खुशी का प्रदर्शन करना अनिवार्य है। विवाह और सती की प्रथाओं में स्त्री के साथ किये गये व्यवहार में बहुत कम अन्तर है। कुछ ही बातें हैं जो सती और विवाह के कर्मकाण्डों में अन्तर करती हैं। राजस्थानी साहित्य में यह मिलता है कि सती के समय गाये जाने वाले गीत ‘मंगलाचार’ के नाम से ही जाने जाते हैं। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जगह जगह के हिसाब से जिस तरह विवाह के कर्मकाण्ड अलग अलग हैं उसी तरह सती होने के रूप भी अलग अलग है। दक्षिण भारत में कोरोमण्डल के तट पर सती स्त्री को पति के साथ जलाया नहीं जाता, वहां के बारे में ट्रेवेनियर ने लिखा है कि वहां पति की चिता जल जाने के बाद उसके पास ही खास तरह से गङ्ढा खोद कर स्त्री को उसमें घुसने के लिये कहा जाता था और उसके घुसते ही गङ्ढे का फुर्ती से मुंह बन्द करके उस पर तब तक कूदा जाता था जब तक कि यह विश्वास न हो जाय कि अब वह मर चुकी होगी। उसे गङ्ढे में घुसने से पहले यह अहसास भी नहीं होता था कि उसके साथ क्या होने वाला है। मालवा में पान के बीड़े से शुरू होता है सती का मृत्यु उत्सव। मालवी का एक लोकगीत है ‘बावड़ लो नी बीड़ो पान को’। पान का बीड़ा लेने के बाद ‘स्त्री’ के लिये सती का प्रश्न प्रतिष्ठा का सवाल बन जाता है। विवाह के साथ घूंघट धारण करने वाली स्त्री का घूंघट सती का बीड़ा लेते ही हटजाता है (सिर उघड़ जाता है)। कबीर जब कहते हैं ‘तोको पीव मिलेंगे घूंघट के पट खोल रे….कहैं कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे।’ तो सती प्रकरण उसके ध्यान में है। जबकि हिन्दी आलोचना कहती है कि यह पद पर्दा प्रथा के विरोध को दिखाता है। एक पद है ‘मैं अपने साहब संग चली। हाथ में नरियल मुख में बीड़ा, मोतियन मांग भरी। लिल्ली घोड़ी जरद बछेड़ी, तापै चढ़ि के भली।’ यह सती होने के लिये ले जायी जाती स्त्री का चित्र है। इब्बन बतूता लिखता है कि चौथे दिन घोड़े लाये गये और वे तीनों बनाव सिंगार कर सुगंधि लगाकर उन पर सवार हो गयीं।उनके दाहिने हाथ में एक नारियल था जिसको ये बराबर उछाल रही थीं।….आगे आगे नगाड़े तथा नौबत बजती जाती थी। कई इलाकों (जैसे आगरा के आसपास) में एक झोंपड़ी में मृत पति को गोद में लेकर बिठा दिया जाता था, बाहर जलाने के लिये पर्याप्त साधनों के साथ तैयार मुद्रा में जन समुदाय होता था। जैसे ही वह अन्दर मशाल या दीया जलाती थी, बिना देर लगाये सारी सामग्री उस झोंपडी पर डालकर आग लगा दी जाती थी। नगाडे बजने लगते थे, लोग राम राम और सती का जयकार उसके जलने तक जारी रखते थे। जहांगीर के समय की ऐसी घटना का विवरण फ्रांस्सिको पैल्सर्ट ने अपने यात्रा वृतान्त में दिया है। कबीर की कविता में जो शून्य महल में दिया जलाने या मन्दिर में पिय के साथ सोने का जिक्र बार बार आता है उसका रहस्य इन सती की घटनाओं में निहित है।
मघ्ययुग में आये यात्रियों का साफ कहना है कि मुसलमान हिन्दुओं के रीति रिवाजों में दखल नही देते थे, (बर्नियर के अनुसार विपत्ति में पड़ने के भय से कोई मुगल ऐसी स्त्री की रक्षा नहीं करता ) ऐसा करके वे हिन्दू धर्माधीशों के साथ संघर्ष से बच जाते थे। धीरे धीरे समाज में इस सती प्रथा के द्वारा की जाने वाली स्त्री हत्या बहुत अधिक बढ़ गयी थी। फ्रांस्सिको पैल्सर्ट ने जहांगीर के समय में आगरा के आसपास हर दूसरे दिन सती होने की बात कही है और यह स्थिति तब की है कि इससे पहले अपने समय में अकबर ने इसे रोकने के तमाम सम्भव प्रावधान किये थे और जहांगीर ने इन सब को ज्यों को त्यों बदस्तूर जारी रखा। अकबर से पहले के शासक इस से निरपेक्ष थे। ऐसे में कबीर जैसे व्यक्ति के लिये सीधे तौर पर इन मामलों में हस्तक्षेप करना काफी कठिन रहा होगा। वैसे आंकडे भी यह कहते हैं कि सती की संख्या उसी इलाकों में अधिक तेजी से बढ़ी जहां मुसलमानों का राज्य में सीधा हस्तक्षेप नहीं था। कबीर की कविता सती का विरोध नहीं करती यह एक साबित तथ्य है, पर कबीर के यहां एक द्वन्द्व है। सती का आदर्श और जीवित स्त्री के जलाने के बीच द्वन्द्व। बहुत बार वे सती का समर्थन करते देखे जाते हैं और बहुत बार ऐसी घटना से बहुत आहत। मेरा उद्देश्य कबीर के समर्थन या विरोध से अधिक यह देखना है कि समाज में प्रचलित एक सामाजिक अनाचार के चित्रण भर का है। जिसका विभाव ऐसे सन्दर्भो से निर्मित होगा वही इनको सामने लायेगा और इनका सामने लाया जाना ही बहुत बड़ी बात है।
जायसी ने पद्मावत में सती का वर्णन किया है। रत्नसेन के मरने पर दोनों रानियाँ सती होती हैं। यह वर्णन सती के बारे में सुनासुनाया अधिक लगता है, इसमें प्रत्यक्ष का अनुभव नहीं मालूम पड़ता है। सती के लिये जाती हुई रानियों तक तो जैसी प्रथायें चलती थीं वैसा ही वर्णन है-पटोरी पहने, केश खोले हुए, ‘सिंदुर से माँग भरा सीस’ उघारे, खाट पर बैठकर सती होने गयीं। अन्त में लिखते है-‘लागी कंठ आगि दै होरी।छार भई जरि अंग न मोड़ी॥’ यह सती की ही महिमा है कि आग में जले भी और हाथ पैर भी न मारे, छटपटाये भी न। चमत्कार और महिमामण्डन। हिन्दी आलोचको का यह हाल है कि उनको इस करुण दृश्य में भी औरत का ‘औरतपन’ ही नजर आता है। जायसी के प्रसिध्द समीक्षक विजयदेव नारायण साही ‘पद्मावती नागमती सती खण्ड’ की समीक्षा करते हुए लिखते हैं कि ‘सहमरण तक सौतिया डाह बना रहा।’ जहाँ यह मान्यता बनी हो कि औरतों में अक्ल ही कहां होती है वहाँ इससे अधिक क्या उम्मीद की जा सकती है।
तुलसीदास रामचरित मानस में तत्कालीन जीवन का इतना बड़ा फलक उठाकर भी सती के प्रसंगों पर चुप लगा जाते हैं जो कि रामकथा के तुलसी के पहले के ग्रन्थों में पाया जाते हैं और तत्कालीन समाज में भी सती की घटनायें आये दिन होती रहती थीं। सुलोचना सती प्रसंग रामचरित मानस में नहीं है। सवाल है कि ऐसा क्यों? पार्वती और सीता के रूप में दो स्त्रियां अपने जीवित अथों में सती हैं, सीता की अग्निपरीक्षा सती से कुछ कम कारुणिक नहीं है। रामचरित मानस में सीता को पातिव्रत की शिक्षा देते समय अनुसुइया सीता को बताती है-‘पति प्रतिकूल जनम जँह जाई। बिधवा होइ पाइ तरुनाई।’ पवित्रता का वर्जनामूलक लोक उपदेश। राक्षस स्त्रियां तुलसीदास की नजर में सम्भवत: इस पैमाने पर सती नहीं हैं। सुलोचना सती प्रसंग रामचरित मानस में न आना कदाचित तुलसी के मन में राक्षस जाति के प्रति इसी रवैये का प्रतीक है, इसे तुलसी का स्त्री के प्रति उदार रवैये की संज्ञा नहीं दी जा सकती, क्योंकि पूरी रामचरित मानस में स्त्री के प्रति उनके उद्गार किसी से छिपे नहीं हैं। दूसरे यह कि तुलसी सती प्रकरण पर कोई पक्ष अख्तियार करने को तैयार नहीं हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि रामकथा पर लिखे संस्कृत के ग्रन्थों में तो रावण की पत्नि मन्दोदरी तक के सती होने का वर्णन मिलता है। कुल मिलाकर तुलसी की नजर में जगत में दो ही स्त्रियां सती हैं सीता और पार्वती, दोनों ही आग से गुजरती हैं, शेष सब तो ‘ताड़ना’ के अधिकार क्षेत्र में आती हैं। तुलसी की पॉलिटिक्स हमेशा अपने हित के अनुकूल सती की अवधारणा को राक्षसों को हीन साबित करने में कर ले जाते हैे। सती को वे मूल्य मानते हैं तथा स्त्रियों की प्रतिष्ठा के पैमाने के रूप में देखते हैं इस बात में कोई संदेह नहीं है।मथुरा के पास यमुना नदी पर बना सती घाट हजारों स्त्रियों की जिन्दा जलाये जाने की कहानी कहता है पर महाकवि सूरदास को किसी एक की भी आवाज नहीं सुनाई पड़ी। सती का प्रयोग कुछ जगहों पर सूर सागर में करते हैं पर उसका मन्तव्य अलग है। डॉ.मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है ”कबीर, जायसी और तुलसी के काव्य में स्त्री सामन्ती रूढ़ियों में जकड़ी हुई है लेकिन सूरदास के काव्य में स्त्री का सहज, स्वतन्त्र और तेजस्वी रूप मिलता है।….’सूरसागर’ में केवल एक जगह सतीप्रथा का उल्लेख है। वहां भी उस प्रथा की भर्त्सना ही है।” उदाहरण के रूप में वे इस पद को लाते है ”देख जरनि, जड़, नारि की, (रे) जरति प्रेम के संग/ चिता न चित फीकौ भयौ, (रे) रची जु पिय के रंग।” यहाँ हम दो बातें कहना चाहते हैं। एक पाण्डेय जी जो अर्थ लगाते हैं वह अनर्थ है। इस कविता का जिसकी पहली पंक्ति है ‘मन रे, माधव सौं करि प्रीति’, भाव मन को यह प्रबोध कराना है कि वह माधव से प्रीति करे। किस तरह की प्रीति करे? इसके लिए सूर की जिस तरह की शैली है उसमें एकनिष्ट प्रेम के जितने उदाहरण दिये जाते हैं सब गिनाते हैं और उसी में सती को एकनिष्ट प्रेम का उदाहरण बताते हैं और ‘जड़’ नारी के लिए नहीं (जैसा कि पाण्डेयजी मानते हैं) बल्कि मन के लिए लाया गया ‘सम्बोधन’ है। दूसरी बात यह कि सूरसागर में अन्य स्थानों पर भी सती प्रथा का उल्लेख है, सूर इसी भाव में सती का उदाहरण पेश करते हैं। मसलन ”रे मन निपट निलज अनीति/जियत की कहि को चलावै मरति विषयनि प्रीति/……………….. ……/देह छिन छिन होति छीनी दृष्टि देखत लोग/सूर स्वामी सौं बिमुख ह्वै सती कैसे भोग?” सती न होना निपट निर्लज्जतापूर्ण अनीति है। कैसे कह दूं कि सूरदास सती प्रथा के विरोधी हैं। समर्थक भी उस रूप में नहीं हैं। वे सती को भक्ति के लिये आवश्यक एकनिष्ठता की भावसाम्यता के रूप में लाते हैं। उद्देश्य भक्ति को महिमामण्डित करने का है न कि सती को। पर इससे सती भी महिमामण्डित होती है। सूरदास में सती का सन्दर्भ एक अन्य भाव के लिय मिलता है। उन्होने लिखा है ‘लरिकई ते करति ढ़ंग तब रहे सति भाउ। अब करति चतुराई जानैं, स्याम पढ़ाये दाउ॥’ ‘सती’ यहां भाव है जो कि पवित्रता को व्यक्त करता है। वैसे भी सूर और भक्तिकाव्य की कृष्ण काव्य परम्परा स्त्री के वस्तुकरण की प्रश्रय देने वाली है। सती वस्तुकरण की चरम परिणति है। फिर सती का महिमामण्डन न पाया जाना स्त्री को एक ऐसी प्रस्थिति मंह ले जाकर खड़ा करता है जहां से वह परकीयत्व के दरवाजे की और धकेली जाती है, दरबारों, मठों और वेश्यालयों की शोभा कारक बनती है। अगर यह परम्परा सती के आदर्श का महिमामण्डन करती तो रंगजी के मन्दिर में एकत्र विधवा समूह( जिन पर कि पुजारियों और महन्तों को दुराचार का दैवीय अधिकार था।) को वहां प्रश्रय नहीं मिल पाता। कृष्ण काव्य परम्परा में शायद ही कभी सती सवाल बनी हो क्योंकि वहां स्त्री को परकीया बनाकर कृष्ण की अंकशायिनी बनाया गया है, रासलीला का हिस्सा बनाकर।
भक्त कवियों में अन्य सन्त कवियों ने सती को आदर्श के रूप में स्वीकार किया है। खास बात है कि वे एक साथ दो आदर्श रखते हैं- सती और जोगिन। जोगिन होना भी एक बड़ा फेनोमिना है, उसके लिये पति का मरना या न मरना कोई सवाल नहीं है, स्त्री की सामाजिक असंतुष्टि इसका आधार है। सती होने से बच जाने वाली स्त्रियां भी जोगिन होती होंगी, क्योंकि अपने समाज परिवार में लौटना उनके लिये सम्भव नहीं था। आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि सास ननदें घर की स्त्रियों को जोगियों से बचने का उपदेश देतीं थी। यह चिन्ता यहां समझी जा सकती है (जोगियों से मिलने से सती के भाग जाने की सम्भावना पैदा होने का खतरा है, कोई आसरा तो हो सकता था, जोगिन होना कम से कम स्त्री को जीने का अधिकार तो देता है।)। सूरदास भी गोपियों के द्वारा जोगिन होने के विरोध का उपक्रम रचते हैं और कृष्ण काव्य के लिये स्त्री के परकीयत्व की भूमिका तैयार करते हैं। सती कोई एक स्त्री नहीं है, वह स्त्री के जलाये जाने की प्रथा का सामूहिक प्रतिबिम्ब है। उसमें उम्र, जाति, वर्ग, क्षेत्र और मन:स्थिति व परिस्थिति के अनेकों करुण प्रसंगों का समावेश है। कबीर की कविता इस सती के सामाजिक स्वरूप का बहुआयामी चित्र सामने लाती है। कबीर का एक पद है ‘सेजै रहूं नैन नहीं देखीं, बहु दु:ख कासौं कहूं हे दयाल।…….’ सती होने वाली स्त्री की हालत यह है कि उसने पति के साथ सेज पर रहना कभी नहीं देखा और सती होने जा रही है। सास उसके कारण दु:खी है (व्यवहार में पति के मरने का ठीकरा स्त्री के भाग्य पर फोड़ा जाता है और इसी आधार पर सास उसे अपने पुत्र के मरने का दोषी मानती है, इसीलिये दु:खी है।) ससुर की प्यारी है (पारिवारिक प्रतिष्ठा को बढ़ाने के कारक सती होनें का बीड़ा जो लिया है, यदि वह सती होने से इंकार कर देती तो ससुर के प्यार का पता चलता) और जेठ से तरस की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। ननद दु:ख को समझने वाली सुहेली हो सकती थी पर वह गरब की भरी है (उसकी भौजाई सती होकर ऐसा उदाहरणीय काम जो करने जा रही है जिसकी सदियों तक पूजा होगी)। देवर उपस्थित नहीं है, उसका विरह बहुत खटक रहा है (सम्भवत: ऐसी जाति की स्त्री सती हो रही है जिनमें देवर के साथ बिठाने की परम्परा रही है। ऐसा लगता है कि जानबूझकर देवर को अनुपस्थित कर दिया गया है। यह अनुपस्थिति उसे खटक रही है अगर होता तो शायद उससे कोई आशा बँधती और स्त्री बच जाती)। बाप माया के वशीभूत सबसे लड़ाई करता फिरता है। सगे भाई के सहारे जब चिता पर चढ़ूगी तब ही पति की प्यारी कहलाउंगी। दोस्तो सोचविचार कर देखो यह कैसा अवसर बन आया है।’ कबीर के यहां बहुत बार गौना होकर आने का चित्र आता है लेकिन गौने से जाती स्त्री को बन में ही डोली से उतार लिया जाता है बन के बीच वह गुहार लगाती है पर कोई नहीं सुनता। कबीर अपने सती प्रकरण पर कहते हैं –लिखा लिखी की है नहीं देखा देखी बात -(कौन सी बात?)-दुलहा दुलहिनि मिलि गये- फीकी परी बरात’। सती करने के बाद लौटने वाला हुजूम या बरात इसी भाव में लौटते हाेंगे। विवाह की बारात में दुल्हा दुल्हन के मिलने से फीकापन नहीं आता है, रंग और चढ़ता है। इसीलिए दुल्हा दुल्हन का अर्थ व्यंग्यात्मकता धारण कर लेता है और विवाह के दृश्य को चीरकर सती करके लौटता हुजूम सामने आ जाता है। हरि मोरा पिउ मैं हरि की बहुरिया। राम बड़े मैं तनिक लहुरिया।/किएउं सिंगारु मिलन कै ताई हरि न मिले जग जीवत गुसांई। /धनि पीउ एकै संग बसेरा, सेज एक पै मिलन दुहेरा। /धन्नि सुहागिनि जो पिउ भावै, कह कबीर फिरि जनमि न आवै।’ धन्नि सुहागिन से इस कविता में व्यंग्य होने का पता चलता है। यह लोक की शैली है। बेमेल विवाहोपरान्त सती होने पर दोहरा लाभ-पति मिलन और परम मोक्ष की प्राप्ति? जीवित रहते जिस पुरुष ने नहीं अपनाया उसे पाने की इच्छा। धन्य है वह हिन्दू नजरिया जो स्त्री को ऐसा झांसा देकर मार डालता है। आज तक की हिन्दी मानसिकता इस छोटी सी बात को नजरन्दाज कर कविता के भीतर की सती को गायब कर
वहाँ जीवात्मा और परमात्मा ले आती है। सती होना एक पारिवारिक निर्णय (हत्या) है न कि व्यक्तिगत (आत्महत्या)। कबीर लिखते हैं ‘दुलहिनि तोहि पिया घर जाना। काहे रोवो काहे गावो, काहे करत बहाना। काहे पहिरयो हरी हरी चुरियाँ पहिरयो प्रेम का बाना।’ हरी हरी चूंड़िया पहनना और प्रेम का बाना पहनना दो स्थितियां हैं। एक विवाह के अवसर पर पहना जाता है तो दूसरा सती होने के लिये जाती स्त्री का लिबास है। यहां ‘बहाना’ पर ध्यान देना चाहिए, जो कि सती न होने की इच्छा को और मजबूरी को दिखता है। जब निर्णय अपना न हो तो बहाना करने के अलावा सती से बचने का चारा ही क्या है? सती प्रथा के आरम्भ से ही सती के लिये विशिष्ट वेश का जिक्र मिलता है। हर्ष चरित में वाणभट्ट ने हर्ष की माता के सती होने के समय के ‘मरण प्रसाधन’ का वर्णन करते हुए लिखा है कि उसके शरीर पर लाल पट्टांशुक, गले में लाल सूत्र और अंगों पर कुंकुम का अंगराग था’ । कालान्तर में यह वेश विशिष्ट सोलह श्रंगार में बदल गया। लोक गीतों तक में सती के लिये आभूषणों तक की अनिवार्यता को रेखांकित किया जा सकता है। विशेष रूप से सजाये जाने से स्त्री के दिमाग पर एक अलग तरह का दबाव बनता है, वह अपनी आभा में स्वयं को दिव्य और विशिष्ट मानने लगती हैं। इस आभासीय विशिष्टता में ही सती होने और किये जाने के भेद को छुपा दिया जाता है। ‘हंसा संसय छूरी कुहिया,…… तासु बचन क्या लीजै।’ पद में सती के दारुण दृश्य का जैसा प्रभाव कबीर ने अनुभव कराया है कहीं नहीं मिलता। भूभुरि चिता का वह रूप है जिसकी आग अभी ठण्डी नहीं पड़ी है। चिता की राख को सरोवर में सिराने का विधान है जिसके परिपालन में इस भूभुरि में भी तड़फ उठती है(जलते समय की तड़फ की तो बात ही क्या), शेष धूरि(धूल- जो पहले सती हुई स्त्रियों की ठण्डी राख है) इसकी तड़फ पर हिलोरा मारती है। इतनी बड़ी संख्या में इस सती स्थल पर सती हुई हैं कि उनकी राख से सरोवर पट गया है, पानी सूख गया है, हंसों का उड़ जाना एक मजबूरी है। जब तक अपने जीवित थी उसे दो कौड़ी का नहीं समझा, जब जीवन की सम्भावना ही समाप्त हो रही है तो बचन (आशीर्वाद) ले रहे हो। हिन्दू परिवार व्यवस्था अपने सदस्यों के जीवन के विभिन्न चरणों का निर्धारण करती है। स्त्री पुरुष के सम्बन्ध भी बहुत हद तक इस परिवार व्यवस्था के नियमों के अधीन ही होते हैं। व्यक्तिगतता की भूमिका वहां नहीं होती है। सती किया जाना भी इन्हीं पारिवारिक नियमों के अन्तर्गत सम्भव होता है। जबकि सती होने वाली स्त्री पर इसका कारण थोपना इसके नियम को व्यक्तिगतता का जामा पहनाने की कोशिश है। ”साँई के संग सासुर आई।/संग न सूती स्वाद न मानी, गयो यौवन सपने की नाँई।/……. अरघा दे लै चली सुहासिनि, चौके राँड़ भई संग साँई/भयौ विवाह चली बिनु दूल्हा, बाट जात समधी समुझाई।/कहै कबीर हम गौने जैबे तरब कन्त लै तूर बजाई।” यौवन और जीवन दो मनुष्य जीवन की ऐसी स्थितियां हैं जिनको छोड़ देना सबसे बड़ा परित्याग है। सार्थक जीवन के इन दो पहलुओं को दुवारा नहीं पाया जा सकता। पारिवारिक नियमों के अधीन वह पति के साथ ससुराल आती है। तमाम सपने सजाये होंगे, लेकिन न तो सांई के साथ सो पाई और नहीं जीवन के स्वाद को कुछ समझा, यौवन का सपना सपना ही रह गया। यहाँ अरघ देते समय फ्लैशबैक शैली में दृश्य उभरता है कि किस तरह विवाह का उत्सव सम्पन्न हुआ और स्त्री का यौवन का स्वप्न साकार होता दिखा कि यह स्वप्न स्वप्न की तरह ही क्षण भर में बीत गया(सम्भवत: पति इससे पूर्व ही मर गया।) अरघ देकर हँसती हुई सती होने के लिये, जिसकी प्रक्रियाएं दूसरे विवाह की तरह ही होती थी,ं चल पड़ी। रास्ते में जाते हुए सम्बन्धियों ने समझाया। कैसा विजयोत्सव होने जा रहा है? तूर्य बजाकर गौने जाना, तर जाना। समधी को समझी पढ़ा जाय तो कविता का अर्थ उद्भासित होने लगता है। ‘समझी समुझाई’ एक तरह से मान मनौवल का ही एक रूप है जिसमें न मानने वाले व्यक्ति को साम, दाम, दण्ड, भेद हर रीति से उसे निर्धारित लक्ष्य के लिए तैयार किया जाता है। इसी पद की व्याख्या जब की जाती है तो आलोचक फ्लैशबैक को झुठलाकर न केवल अध्यात्मक अर्थ ग्रहण करने लगा बल्कि लौकिक विभाव में इस बात तक पहुँच गया कि ‘गाँठ जोरि भाई पतियाई’ का अर्थ है स्त्री मन की कुंठावश अपने भाई को ही अपना पति मान बैठी। जब स्त्री के प्रति यह नजरिया आपके पवित्रतावादी मन में घर किये हुए है कि स्त्री अपनी योनेच्छा में मतिभ्रमित तक हो सकती है, किसी भी हद तक जा सकती है तो फिर स्त्री सम्बन्धी काव्य सन्दर्भों पर आप क्या राय रख सकते हैं? समझा जा सकता है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी इस पर की व्याख्या में लिखते हैं कि यह दाम्पत्यभाव की वियोगावस्था की प्रतीक योजना है जिसमें ”विवाह विधि के संपन्न होते ही, वैधव्य के अनुभव का दु:ख उलट वाँसी के द्वारा बतलाया है।….साधारण प्रकार की विरहावस्था का वर्णन न कर उसके विचित्र कसक और विवशता का परिचय कराया गया है जो अपनी ही भूल के कारण है।” हिन्दी मानसिकता की बलिहारी है कि सारी सामाजिक वास्तविकाता को विरहावस्था कि विचित्र जाल में फंसाकर सती होने वाली स्त्री के सिर ठीकरा फोड़ दिया और उसके सती होने के जिक्र तक को छुपा गये। जौं रोऊँ तो बल घटै, हसौं तो राम रिसाइ/मनही माँहि बिसूरनाँ ज्यूँ घुन काठहिं खाइ। सती होने वाली स्त्री के भीतर क्या चल रहा होता है-अपारद्वन्द्व। सती होना सामाजिक मजबूरी है और जीवन एक निहायत व्यक्तिगत आकाँक्षा। समाज और व्यक्ति के भीतर का द्वन्द्व। जब व्यक्ति के रूप में स्त्री हो वह भी मध्ययुग में तो जीतना किसको है, सबको पता है। अगर रोती है तो सती की शक्ति कम होती है, सतीत्व पर ऑंच आती है, हँसती है तो राम को गुस्सा आता है। सम्भवत: यह किसी ऐसे व्यक्ति की पत्नि है जो गुस्से में उसे बहुत मारता होगा। इस मारपीट का आतंक उसके ऊपर हावी है। उसकी ऐसी स्थिति है कि उसे मन में ही बिसूरना है, जैसे घुन लकड़ी को खा रहा हो। रैनि गई मति दिन भी जाइ।/भँवर उड़े बग बैठे आइ।/थरहर कंपै बाला जीउ, ना जानौ क्या करिहै पीउ/काँचे करवै रहे न पानी, हंस उड़ा काया कुम्हिलानीं/काग उड़ावत भुजा पिरानी, कहै कबीर यहु कथा सिरानी।/शव पड़ा हुआ है खींचतान में रात बीत गई मसला न सुलझने के कारण दिन के भी बात जाने की आशंका है। स्त्री सती नहीं होना चाहती और लोग सती करने पर आमादा हैं। लोक में एक बात चलती है कि किसी भी काम में देर लगाने या हीला हवाली करने पर प्राय: यह कह दिया जाता है कि क्या सती हो रहे थे? अथवा लगता है अमुक तो सती हो गया?। यहाँ सती होना एक शब्द रूढ़ि है जिसका अर्थ स्पष्ट है। इस रूढ़ि के निर्माण में काम को न करने की इच्छा और न मना कर पाने की क्षमता के तनाव के बीच से जो बिलम्ब जन्म लेता है वही मात्र आधार है और सती होने के क्रम में कभी भी स्त्री की इच्छा नहीं होती थी, प्राय: मना करने की क्षमता नहीं होती थी और मना करने वालों के साथ जोर जबरदस्ती तो जग जाहिर है। इस सारे उपक्रम में बिलम्ब होता ही था। यही स्थिति यहां दिखाई देती है। सती होने के नाम पर उस बालबधू का जीउ थरथर काँप रहा है। लेकिन दिमाग पर यह हाबी कर दिया गया है कि सती न होने पर पति (अकाल मृत्यु के कारण आत्मा स्वर्ग नहीं जा सकती, उसके साथ सती होने वाली स्त्री उसे स्वर्ग लेकर जाती है। ऐसा नहीं करने पर पुरुष की आत्मा इसी लोक में भटकती रहेगी)भूत बनकर तुम्हारे साथ कुछ बुरा करेगा। तुम्हें जीने नहीं देगा। इस आतंक के कारण उसमें मना करने की क्षमता नहीं है। पुण्य के लाभ का इस छोटी सी लड़की के लिए कोई अर्थ नहीं है, मरने के बाद पति द्वारा सताये जाने के आतंक ने उसे सती होने की ओर धकेल दिया है। कच्चे घड़े को पानी में डाल देने के बाद घड़ा ही मिट्टी में बदलने लगता है, मरने के बाद शव में सड़न शुरू हो जाती है। गंगा के किनारे बड़े पैमाने पर दूर दराज के इलाकों से ऐसी स्थितियों को लेकर लोग आते थे। रास्ते में लाश सड़ जाती थी और तेज बदबू आने लगती थी। स्त्री सती नही होना चाहती थी और लोग उसे सती करना चाहते थे। ऐसे में समझाने का लम्बा दौर शुरू होता था। इसमें लाश और भी सड़ती जाती थी। सड़ी हुई लाश के साथ हर किसी का रूके रहना सम्भव नहीं है और कोई लाश के पास रहेगा नही ंतो लाश को कउऐ नौचना आरम्भ कर देंगे। और यही हो रहा है। कौये भगाते भगाते हाथ थक रहे हैं। यही कुल कथा का अन्त करके कबीर चल देते हैं। यह स्त्री कथा का भी अन्त है। डॉ.वासुदेव सिंह लिखते हैं कि ”यह मुग्धा नववधू के प्रतीक द्वारा जीवात्मा की स्थिति का निरूपण किया है।” सती होने के लिए मजबूर की जाती बालवधू में मुग्धा नायिका खोज निकालना और उसके सहारे कविता के सामाजिक सरोकारों को छुपा जाना यह हिन्दी आलोचकों के ‘जानपाण्डे’ होने का प्रमाण है।
स्त्रीत्व और सतीत्व दोनों को एक दूसरे के विलोमार्थक सन्दर्भों में देखा जाना चाहिए। स्त्री बने रहने की इच्छा सती होने से रोकती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ‘सती’ को ‘पवित्रता’ का पर्याय मानते है। पवित्रता की अवधारणा का सारा अभियान स्त्रीत्व पर ”पाबन्दियों” के जरिये काबू पाना है। ”जब लग पिउ परचा नहीं कन्या क्वारी जाँनि/हथलेवा हौंसे लिया मुसकल पड़ी पिछाँनि।” क्वारी कन्या तो कुवाँरी है ही, विवाहित होने पर भी जब तक पति से परिचय न हो कन्या कुमारी ही मानना चाहिये। जब विवाहित हो गयी ता फिर पति से परिचय के लिए अन्य किसी हथलेवा की कोई जरूरत ही नहीं। लेकिन कबीर फिर से हथलेवा की बात करते हैं। हथलेवा एक तरह से साथ निभाने की प्रतिज्ञा है। फिर से इसकी आवश्यकता बताती है कि किसी अन्य तरह के सन्दर्भ में साथ निभाने की प्रतिज्ञा और स्त्री जीवन में यह प्रतिज्ञा सती होने के लिए ही हो सकती है। कविता में तनाव दो स्थितियों से पैदा होता है पहली स्थिति है विवाहित होने पर भी क्वारी होने की अर्थात ऐसी लड़की जिसका गौना नहीं हुआ है, दूसरी स्थिति है फिर हौंस में आकर(किसी के बरगलाने पर) हथलेवा लेने की। कम उम्र की लड़की जिसका गौना तक नहीं हुआ है वह हौंस में आकर, लोगों के बरगलाने और प्रोत्साहित करने पर सती होने की प्रतिज्ञा कर बैठती है, वास्तविक मुसीवत तो तब सामने आती है जब बीड़ा उठाने के ऐवज में वास्तव में सती होना पड़ता है। यह स्त्री जीवन की बहुत बड़ी त्रासदी है। जबकि इसकी व्याख्या में आलोचक कहता है कि बिना सोचे साधना के मार्ग पर साधक चल तो पड़ता है पर प्रभु की माँग जब सामने आती है तो उसके सामने संकट खड़ा हो जाता है। यहाँ आलोचक महोदय को यह भी बताना चाहिए था कि आखिर प्रभु माँगता क्या है?”डग मग छाँडि देइ मन बौरा /अब तौ जरै मरै बनि आवै लीन्हों हाथ सिंधौरा।” हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है ”और फिर जिस सती ने हाथ में सिंदूर की डिबिया ले ली है उसे मृत्यु का क्या डर। सिंदूर की डिबिया अर्थात अचल सौभाग्य की निशानी” । फिर डगमग का सन्दर्भ कहाँ से आ टपका और ‘जरने मरने की बन आने’ जैसी मजबूरी को क्या कहैं। सिंधौरा विवाह के समय स्त्री को सौपा जाने वाला वह प्रतीक चिन्ह है जो स्त्री को एक प्रस्थिति सौंपे जाने से सम्बध्द है। सिंधौरा स्त्री के साथ साथ ही घूमता था चाहे वह माइके जाये या ससुराल या अन्य कहीं। फिर
दुवारा से सिंधौरा लेने की कौन सी प्रथा या सन्दर्भ सामने आ गया। जब एक बार सिंधौरा ले लिया तो पति के मरने पर उसे उसके साथ जल मरना ही है। इसमें साहस की कौन सी बात है। केवल और केवल मजबूरी है। जिस तरह यहाँ जान पर बन आने को साहस का नाम दिया जा रहा है उसी तरह सती को स्त्री की इच्छा का नाम दिया गया है। हजारीप्रसाद द्विवेदी कहीं भी समाज में स्त्री की प्रस्थिति सम्बन्धी मजबूरियों को उठाने के बजाय इसे इस तरह लिखते हैं कि पता नहीं यह कितने गौरव की बात है। वह भी सती प्रथा विरोधी अधिनियम के साठ सत्तर साल बाद। हिन्दी आलोचना के सौ वर्षों के इतिहास में हिन्दी मानसिकता का जो रूप सामने आता है वह ऐसे ही निर्णयों से बनता है।
बड़ी ही हैरत में डाल देने वाली बात है कि अभी हाल ही में एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी के महासचिव ने बयान दिया कि ”सरकार सती होना चाहती है।” सरकार अपने गिरने के लिए उत्तरदायी है यह कहना तो ठीक है, आपका राजनीतिक विश्लेषण है लेकिन इसमें स्त्री को लपेटना और यह मानना कि सती होना स्त्री की इच्छा पर आधारित घटना है, राजनीतिक मानसिकता में छिपे पितृसत्तावादी रवैये की सूचना देती है। इसी मानसिकता की शिकार हिन्दी आलोचना रही है। हिन्दी आलोचना की दोनों परम्पराओं पर इस मानसिकता का कब्जा है। स्त्री के पक्ष को सामने लाने के लिए स्त्री जीवन के सूक्ष्मतम से लेकर स्थूल प्रसंगो के प्रति बने हुए पूर्वग्रहों और मूल्यनिर्णयों की समीक्षा के बीच से ही राह निकलेगी और वह पितृपक्षीय हिन्दी मानसिकता के दंश से अपने आपको बचा पायेगी।
सिंदूर पूरी तरह से जादू में बदल गया है।स्त्री जीवन के दिन की शुरुआत मांग में सिंदूर पहनने से होती है। सिेंदूर अधिक न खर्च करना, भर मांग सिंदूर न लगाना, मंगल गीतों के अवसर पर गीत गाने वाले स्त्रियों को सिंदूर पहनाना आदि आदि अनेकों टोटके प्रचलित हैं।
वीर सतसई, पद 58
हजारी प्रसाद द्विवेदी, ग्रन्थावली भाग 4, पृ.349
रामविलास शर्मा, भारतीय साहित्य की भूमिका, पृ.319
रामविलास शर्मा, भारतीय साहित्य की भूमिका, पृ.319
शरतचन्द्र, नारी मूल्य, उद. दस्तक अप्रेल,2000 (नारी विशेषांक)
ज्ीम म्दहसपेी ूवतो व ित्ंउडवींद तवल एचण्330
प्रारम्भिक भारत का सामाजिक और आर्थिक इतिहास पृ.90
बर्नियर पृ. 192
बर्नियर पृ. 193
मीरा का काव्य, पृ.27
इब्बन बतूता का भारतयात्रा, सती वृतान्त पृ. 24-25
अकबरनामा पृ.402
इस सन्दर्भ में उमादे भटियारो रौ कवित, रावरायसिंग री राणियां रा कवित्त, रूपनगर री सतियां रा कवित्त, महाराजा मानसिंग री सतियां रा कवित्त, गीतकुम्भै री सती रौ, गीत सती लालबाई रौ, गीत सती हमीरा रौ, नाम लिये जा सकते हैं।
मुजीब रिज्वी, मध्यकालीन धर्मसाधना, इन्द्रप्रस्थ भारती, कबीर विशेषांक, पृ.10
डॉ. वासुदेव सिंह, कबीर वाड़्मय, खण्ड 3 , पृ.48
परशुराम चतुर्वेदी, कबीर साहित्य की परख, पृ.102
ट्रेवेनियर ज्ंअमतदपमतए टवसण्प्प्ए चण्168
इब्बन बतूता का भारतयात्रा, सती वृतान्त पृ. 25
फ्रास्सिको पैल्सर्ट, जहांगीर कालीन भारत,अनु0 भादानी पृ.102-103
बर्नियर पृ. 193
विजयदेव नारायण साही: जायसी, पृ0 109
कुमारदास कृत जानकीहरणम्
मैनेजर पाण्डेय, भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, पृ. 26
हर्ष चरित पंचम उच्छवास
डॉ. वासुदेव सिंह, कबीर वाड़्मय, खण्ड 2 , पृ.396
परशुराम चतुर्वेदी, कबीर साहित्य की परख, पृ.148
ट्रेवेनियर ज्ंअमतदपमतए टवसण्प्प्ए चण्168
डॉ. वासुदेव सिंह, कबीर का प्रतीक विधान, संकलित,कबीर, सं. डॉ. वासुदेव सिंह, पृ.191
हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृ
हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृ 350

स्त्री-वस्तुकरण की प्रक्रिया और राधा का विकास

सामान्य

स्त्री-वस्तुकरण की प्रक्रिया और राधा का विकास

‘राधा’ का नाम सामने आते ही एक ऐसी स्त्री सामने आती है जो ब्रज की होकर भी ब्रज की स्त्रियों से कहीं भी मेल नहीं खाती। बिना आत्मा की ऐसी स्त्री जो मात्र ‘तन'(देह) तक सिमट कर रह गयी है, जिसका बिना पूछे जिस काव्यशास्त्रीय सन्दर्भ में चाहो प्रयोग कर लो। ‘राधा’ को ‘श्रीराधा’ और ‘राधा’ दोनों बनाने के प्रयासों ने अन्तत: ऐसी प्रक्रिया को अन्जाम दिया जो स्त्री को वस्तु बनाकर अपने लिए उपयोग में लाने में सफल रही। स्त्री के वस्तुकरण की प्रक्रिया सदियों से विद्यमान है। तरह तरह से पितृपक्षीय विचार सृष्टियां स्त्री को वस्तु बनाने की कोशिश में न जाने कितने प्रयास करती आयी हैं। ऐसा ही एक प्रयास ‘राधा’ के विकास के रूप में हमारे सामने है। राधा के सम्बन्ध में कम से कम तीन पक्ष ऐसे हैं जो राधा की निर्मित त्रिविमीय तस्वीर को हमारे सामने लाते हैं। एक आयाम वह है जो सदियों लम्बी समय रेखा में साहित्यकार का मन रच रहा था, दूसरा मध्ययुग का दार्शनिक, चिन्तक और धर्माचार्य तैयार कर रहा था और तीसरा वह जिसे हिन्दी के आधुनिक चिन्तक आलोचक ने व्याख्यायित किया। ये तीनों कड़ियां एक दूसरे के साथ बहुत गहरे जुड़ी हैं। तीनों ही पितृपक्षीय हैं। राधा को इस रूप में तैयार करने के निहितार्थ किसी भी माइने में सराहनीय नहीं कहे जा सकते क्योंकि इन्होंने अन्तत: स्त्री जाति को वस्तु बनाने का प्रयास कर अपने अपने उल्लुओं को सीधा करने का प्रयास किया। लेकिन हमारे लिए भाषाई साक्ष्य के रूप में, सांस्कृतिक तथ्यों के रूप में, साहित्यिक निर्मितियों के रूप में तमाम ऐसे साक्ष्य उपलब्ध हैं जो इन दुर्निवार प्रयासों की छाया को अपने भीतर से उद्धाटित करने की क्षमता रखते हैं। इन साक्ष्यों के आधार पर हम स्त्री इतिहास के उन अध्यायों को पढ़ सकते हैं जो अभी तक अंधेरों में रहे हैं। विशेष रूप में यहां उल्लेखित करना चाहती हूं कि राधाओं का सम्बन्ध जिस क्षेत्र से है आज आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के लगभग दो सौ वर्ष होने पर भी स्त्री अनुपात पूरे उत्तर भारत में सबसे कम वाले क्षेत्रों में से एक है जो इस बात को रेखांकित करता है कि सभी क्षेत्रों में स्त्री के प्रति रवैया सन्तोष जनक नहीं है चाहे वह सांस्कृतिक क्षेत्र को, धार्मिक क्षेत्र को अथवा बौध्दिक क्षेत्र।
आरम्भिक दौर में राधा की चर्चा एकाध पंक्ति, एकाध श्लोक फिर दो चार श्लोक और फिर नवी दसवीं सदी में एक स्वतन्त्र कथा के रूप में सामने आती है। किसी भेज्जल कवि का राधा विप्रलम्भ नाटक राधा पर लिखी पहली कथा डॉ.लाहा ने बतायी है। बारहवीं सदी में जयदेव का गीत गोविन्द पाया जाता है, राधा के विरह की करुण कथा। वल्लभाचार्य के समय से पहले राधा के कुछ ही सन्दर्भ पाये जाते हैं। कृष्ण कथा और कृष्ण के चरित्र को सामने लाने वाले भागवत पुराण में राधा नहीं है। वल्लभाचार्य और उनके आसपास के कृष्ण भक्ति सम्प्रदायों को राधा के इस रूप में विकास की क्या आवश्यकता थी? यह एक प्रमुख ऐतिहासिक सवाल है जिस पर गम्भीरता से विचार होना चाहिए। माना जाता है कि ”राधा का प्रथम प्रकाश संभवत: हाल की प्राकृत रचना गाहासतसई या गाथा सप्तशती में हुआ जो प्रथम शताब्दी की रचना है।” यह बात मैनेजर पाण्डेय , दासगुप्ता, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि विद्वानों ने समान रूप से स्वीकार की है। इससे पूर्व राधा शब्द ऋग्वेद में बहुत बार आता है और ऋग्वेद के भाष्यकार अक्सर उसे समृध्दि और धन के रूप में ग्रहण करते हैैं। मेरा विचार है कि धन या समृध्दि या ऐश्वर्य के अर्थ में भी राधा (रा:+धा=रा को धारण करने वाली, यह स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होता है।) सामान्य धन या समृध्दि का सूचक नहीं है धनवान या समृध्दिवान स्त्रियों के सन्दर्भ का सूचक है, जो कि निजी सम्पत्ति के विकास प्रकरण के दौरान समृध्दि वाचक शब्द बन गया है। उदाहरण के रूप में ‘स्त्रोतं राधानाम् पते गिर्वाहो वीर यस्य ते। विभूतिरस्तु सूनृता।’ स्पष्ट है राधा स्त्री के बहुवचन को राधानाम् या राधाओं कहा जायेगा। ‘कथा राधाम सखाय: स्तोम मित्रस्यार्यम्ण:। महि प्सरो वरुणस्य।’ ‘उदीरय प्रतिमा सूनृता उषश्चोद राधो मघोनाम्।’ आ धा योषेव सुनयुर्षा यााति प्रभुज्जती। जरयन्ती वृजनं पद्वदीयति उत्पातियाति पक्षिणं। तव राध: सोमपीथाय हर्षते । अपामिव प्रणवे यस्य दुर्धरं राधो विश्वायु शवसे अपावृतम। उक्त सभी सन्दर्भों में राधा को व्यक्त करने वाले शब्द(राधानाम्, राधाम, राधो, राध: आदि) अपनी प्रकृति में बहुवचन हैं, जाति वाचक संज्ञा के सूचक हैं। धन या समृध्दि को कहीं भी धनों या समृध्दियों जैसे बहुवचन में प्रयोग नहीं किया जाता(मुद्रा को अवश्य ही बहुवचन में प्रयोग में लाया जाता है यथा मुहरें, स्वर्ण मुद्रायें)। महाभारत में राधा कर्ण की पालक माता के लिए प्रयोग में आया है। कर्ण एक सन्दर्भ में यह विश्वास दिलाता देखा जाता है कि वह सूत पुत्र और राधा पुत्र के नाम से जाना जायेगा, न कि कौरवों के मित्र या पाण्डवों के शत्रु के नाम से। ध्यान देने योग्य बात है कि जब कर्ण पिता के लिए उसकी जाति(सूत) का सम्बोधन व्यक्त करता है तो माता के लिए भी जाति(राधा) का सम्बोधन ही प्रयोग में लायेगा अन्यथा भाषा दोष पूर्ण हो जायेगी। और जैसा कि दूसरे सन्दर्भ भी बताते हैं कि तब तक राधा जाति सूचक शब्द है। कर्ण माता साफ शब्दों में कहती है कि पुत्र हम कुरुओं और पाण्डवों में से नहीं है। राधायें इन मुख्य धारा की सामाजिक संरचनाओं से अलग हैं। देखा जा सकता है कि गाहा सतसई के समय तक भी वह जाति वाचक संज्ञा ही है।”मुहुमारुएण तं कहण गोरअं राहिआएँ अवणेन्तो/ एताणं वलबीणं अण्णाणं वि गोरअं हरसि॥” दो प्रकार की स्त्रियां वल्लभियां और अन्य। राधिकाओं को ही वल्लभियां कहा गया है और वल्लभियों का अर्थ है राधिकायें या राहिआएं। यह जाति वाचक संज्ञा कब व्यक्तिवाचक संज्ञा में बदल गयी देखना काफी दिलचस्प है और राजनीतिक भी। उक्त दो उदाहरणों से साफ तौर पर देखा जा सकता है कि ऐतिहासिक विकास के संश्लिष्ट स्वरूप के बावजूद हाल के समय तक जिन स्त्रियों को ऋग्वैदिक काल में राधा कहा जाता उनके लिये वही सम्बोधन प्रचलित था।
राधायें मातृ सत्तात्मक समाजों के वृत्त में कहां पर हैं इस पर गम्भीर विवेचन की आवश्यकता है। यह निर्णय लेना इसलिए कठिन है क्योंकि राधा जाति वाचक है और पूरी जाति की पूजा मातृपूजा का कोई उदाहरण अभी तक नहीं पाया गया है और साथ ही राधा के साथ कहीं भी मातृ भाव का कोई भी अवशेष नहीं पाया जाता है। राधा जाति से सम्बन्धित कौन मातिृकायें रही यह अभी स्पष्ट नहीं है। डी.डी.कौशाम्बी ने मिथक और यथार्थ में मातिृकाओं के सम्बन्ध में गम्भीर साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं जिनमें तुलसी, वृन्दा, पूतना आदि के साथ सौ से अधिक मातिृकाओं की चर्चा की है लेकिन उसके आधार पर यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि राधाओं से सम्बन्धित मातिृकायें कौन सी है कौन सी नहीं हैं। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि राधायें ऐतिहासिक रूप से विजेता जातियों से सम्बध्द नहीं हैं (क्योंकि ये कभी पटरानी का दर्जा पाने के योग्य नहीं समझी गयी चाहे वे कृष्ण की परकीया रही हो अथवा स्वकीया)। इनकी सामाजिक संरचना की पहचान वैदिक से भागवत तक के इतिहास में खोजी जा सकती है। एक बात साफ है कि जो स्त्रियां (राधायें) वैदिक साहित्य में इन्द्रों के साथ मैत्रिक सम्बन्ध योजना में देखी जाती है उन्हें कृष्ण के साथ महत्व पाने में कम से कम छठवीं सदी तक का समय लगा। इस प्रक्रिया में कितने तरह के सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव हुए, यहां तक कि स्वयं इन्द्रों को भी कृष्णों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी और फिर कालान्तर में ये दोनों भी व्यक्तिवाचक संज्ञा में बदले। यह ‘स्त्री इतिहास’ सम्बन्धी समस्या के समाधान के लिए एक महत्वपूर्ण तथ्य है जो पितृपक्षीय भूमिकाओं के कुछ सन्दर्भों को उजागर करता है।
राधा के विकास के सम्बन्ध में दो महत्वपूर्ण थीसिस विद्वानों ने दी हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ”1.राधा आभीर जाति की प्रेमदेवी रही होगी जिसका सम्बन्घ बालकृष्ण से रहा होगा। 2. राधा इसी देश की किसी आर्यपूर्व जाति की प्रेमदेवी रही होगी, बाद में आर्यों में इनकी प्रधानता हो गयी होगी और कृष्ण के साथ इनका सम्बन्ध जोड़ दिया गया होगा।” द्विवेदी जी न तो इस देवी के पाये जाने का कोई साक्ष्य देने की जरूरत महसूस करते है, न ही आर्यों के साथ इसके जोड़े जाने के समय और परिस्थितियों के खुलासे की आवश्यकता महसूस करते हैं। उनकी यह पूरी की पूरी थीसिस अनुमान (ऐसा रहा होगा) पर आधारित है। एक और महत्वपूर्ण बात हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि ”राधा की भक्ति का नया रूप दक्षिण से आता है।” राधा की भक्ति का पुराना रूप कौन सा प्रचलित था इसके बारे में आचार्य द्विवेदी के पास कोई प्रमाण नही हैं। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि वह कौन सी ऐतिहासिक आवश्यकता थी कि आचार्य द्विवेदी को राधा के विकास को बिना किसी साक्ष्य के इस तरह से रेखांकित करना पड़ा? इस आवश्यकता को आधुनिक भारतीय बौध्दिक परिदृश्य के विकास में अन्तर्निहित उन तथ्यों के साथ जोड़कर देखना होगा जो परम्परा के आधुनिकीकरण को लेकर द्वन्द्वग्रस्त थे। इन्हीं तत्वाें के कारण आधुनिक युग में भी स्त्री के वस्तुकरण की प्रवृत्ति को बल ही मिला। विध्दानों ने ‘हाल’ की भाषा को आभीरों की भाषा के समान या मिलाजुला माना है। गाथा सप्तशती की में राधा कहीं से भी प्रेम की देवी नहीं लगती है। इस तथ्य को ‘हाल’ के ऊपर दिये गये उदाहरण मेें देखा जा सकता है। जहाँ भी प्रेम प्रसंग में नायिका देखी नहीं कि उसकी छवि पर राधा का आरोप कर उसे देवी कह दिया जाय तो क्या उसे प्रेम की देवी मान लिया जाय? डॉ. दासगुप्ता कहते हैं कि लगता है ‘छठी शताब्दी के अन्दर ही राधाकृष्ण का उपाख्यान प्रेमगीत और तुकबन्दियों के रूप में आभीर जाति की छोटी सी परिधि का अतिक्रमण करके विशाल भारत के भिन्न भिन्न अंचलों में फैल गया था’। हम यहां दो सवाल उठाना चाहते हैं एक-आज भी देश के विभिन्न अंचलों में राधा के सम्बन्ध में प्रचलित तुकबन्दियों में राधा को किसी पूजनीय भाव में नहीं व्यक्त पाया जाता है और देश की धर्मभीरु जनता में यह क्षमता नहीं रही है कि किसी भी देवी देवता को लेकर पूज्य से अश्लील तक का सफर वह आसानी से पार कर सके। दूसरा- यह कि जब हाल के यहाँ ‘राहियाएं या राधिकाएं’ पाया जाता है तो फिर उसे प्रेम की देवी ‘राधा’ कैसे कहा जा सकता है? छठी शताब्दी पूर्व के ‘राधाकृष्ण के आभीर उपाख्यान’ का स्रोत क्या है? इन बातों का खुलासा करने में दासगुप्ता कोई रुचि नहीं दिखाते। डॉ.शशिभूषण दासगुप्ता के अनुसार ”राधावाद शक्तिवाद के विकास का परिणाम है।” इससे इस बात का पता नहीं चलता कि राधा के विकास के पीछे कौन सी शक्ति है, दूसरी बात वे कहते हैं कि ”प्राकृत नायिका ही राधा में रूपान्तरित हुई।” कोई भी आसानी से पूछ सकता है कि संस्कृत भाषी परम्परा को अपने शक्तिवाद के लिए प्राकृत भाषी आभीर स्त्री(नायिका) को देवी बनाने या देवी के रूप में ग्रहण करने या देवी के रूप में विकसित करने की कौन सी आवश्यकता थी? दूसरे यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि राधा प्रसंग में विरह ही एक मात्र भाव है जो साहित्यकारों का लक्ष्य रहा है। राधा के विरह में क्या परिभाषित करने की परिकल्पना कवियों के मन में व्याप्त रही? एक तरफ विरह तन्त्र दूसरी तरफ राधा का विकास ये दोनों आपस में सम्बध्द हैं और सामाजिक प्रक्रियाओं के स्त्री विपक्षी होने की कहानी कहते हैं। वस्तुत: यह स्त्री के निर्मितीकरण (conditioning) की राजनीति का दबाव है जो पितृपक्षीय विचारसरणियों को इस तरह से विवेचन प्रस्तुत करने के लिए विवश करता आया है। भक्तिवाद का पूरा ढ़ाँचा तब तक स्त्री के प्रति मध्ययुगीन व्यवहार को अनुमन्य नही बना सकता जब तक कि राधा जैसी संरचना का विकास न कर डाले और मध्ययुगीन संस्कृति से संघर्ष की इच्छा और शक्ति दोनों का अभाव तो उसमें पहले से हैं ही ।
राधा के विकास के सन्दर्भ में मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं कि ” भागवत पुराण दक्षिण भारत की रचना है। भागवत पुराण में राधा का अभाव है। सम्भवत: राधा उत्तर भारत के मानस की सृष्टि है।…..आठवीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में राधा के स्वरूप से अपरिचित था।” दूसरी बात वे कहते हैं कि ”भागवत धर्म की मानवीय प्रवृत्तियों के कारण शक, यवन एवं आभीरों ने उसे अपना लिया और वे अपने को वासुदेवक कहने लगे।” जब उन्हीं की मान्यतानुसार ‘श्रीकृष्ण नवीं शताब्दी ई.पू. में प्रसिध्द थे’ और इस तर्क वृत्त के अनुसार निश्चित ही इन्होंने(आभीर आदि ने) श्रीकृष्ण को भागवतों से स्वीकार किया और अपनी देवी को उसके साथ जोड़ा होगा। आभीरों का आगमन पहली सदी से बाद का नहीं माना जाता है। क्या पहली सदी से आठवीं सदी तक दक्षिण के साथ सम्प्रेषण इतना बाधित रहा कि राधा(यदि कहीं से भी वे कृष्ण के साथ महत्वपूर्ण सम्बन्ध रखती थी तो) का नाम उनको सुनाई नहीं पड़ा? यह बात तर्क पूर्ण नहीं मालूम पड़ती। मैनेजर पाण्डेय इस झमेले से निकलने का सरल रास्ता बताते हैं ”राधा निश्चय ही प्रारम्भ में लौकिक प्रेम देवी रही होंगी।” लौकिक प्रेम देवी और अलौकिक प्रेम देवी का विभाजन तर्क वे स्वयं और अकेले ही जानते हैं अथवा लौकिक-अलौकिक का अन्य अर्थ वे ग्रहण करते हों तो पता नहीं। बहरहाल पाण्डेय जी के तर्क से साफ तौर पर यह सामने आता है कि ‘अलौकिक देवता(कृष्ण) के किसी खास आकर्षण के कारण लौकिक प्रेम देवी (राधा) उसकी दिवानी हो गयी’ उन्हें राधा और कृष्ण के इस मिलन में वे सामाजिक सरोकार नहीं दिखाई देते जिनमें सत्तावान कृष्णों सें प्रेम करना राधाओं की मजबूरी है। पाण्डेय जी लिखते हैं कि ”कृष्ण राधा की आस्था है और राधा कृष्ण की कामना।” मजबूरी को आस्था का नाम देना पितृपक्षीय नजरिये का परिणाम है। जहां तक भागवत की कथा में राधा के न पाये जाने का सवाल है जब यह कृष्ण कथा दक्षिण भारत के ज्ञानपिपासुओं ने उत्तर भारत से प्राप्त की होगी तब उस कथा में राधा नहीं रही होगी क्योंकि यह भी बहुत सम्भव है उत्तर भारत में भी राधा को कभी देवी ही न माना गया हो। हमें इसका कोई साक्ष्य नहीं मिलता कि राधा नाम की कोई देवी कहीं थी। आभीरों की सांस्कारिक संकुल संरचना में कोई भी अवशेष इस बात को संकेतित नहीं करता कि राधा नामक देवी सम्बन्धी कोई पूजा अर्चना या स्मृति है। यह भी कि माताओं (मातिृकाओं) की अर्चना संरचना में काम या प्रेम या श्रंगार को प्राय: स्थान नहीं दिया जाता रहा है। भागवतोपरान्त विकसित राधा की संरचना निश्चित रूप से एक नये तरह की परिघटना है जो कम से कम नये तरह के सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य की मांग पर निर्मित है। भक्ति काव्य से पहले जितने उदाहरण राधा के पाये जाते हैं उनमें राधा को कामकेलि कुपिता राधा के रूप में चित्रित किया गया है। इस राधा को भक्ति के दर्शन में कृष्ण काव्य परम्परा इसीलिए ढ़ाल पायी क्योंकि उनकी मांग को राधा का यही स्वरूप पूरा कर सकता था जिसमें उस दर्शन के अनुकूल ढ़ाले जाने की सम्भावनायें थीं। राधा यदि अपने इतिहास में जैसी हम देख पा रहे है वैसी न होती तो शायद कृष्ण काव्य उसका वस्तुकृत उपयोग न कर पाता।
ब्रज क्षेत्र के कुछ सांस्कृतिक तथ्यों का अध्ययन राधा के सम्बन्ध में बेहद महत्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध कराता है। ब्रज क्षेत्र होली के लिए प्रसिध्द है और यह होली राधा कृष्ण कथा का हिस्सा भी है। होली के बहुत सारे पक्ष हैं और हो सकते हैं पर कुछ ऐसे हैं जो आज सीमान्त हैं लेकिन स्त्री इतिहास की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। होलिका दहन के प्रचलित आख्यान से अलग एक तथ्य यह भी है कि स्त्रियों द्वारा कुछ ऐसे कलातथ्यों का निर्माण किया जाता है जो किसी युध्द के अवशेष जैसे हैं जिनमें एक ढाल की आकृति होती है, एक गोलरी जो किसी सिरस्त्राण (मुढ़ासा) जैसी होती है और एक बैलगाड़ी नुमा आकृति। ये कला तथ्य स्त्रियों द्वारा गोबर से निर्मित किये जाते हैं और घर के भीतर जलाये जाने वाली होली के लिए प्रयोग में आते चले आ रहे हैं (ऐसा केवल ब्रज क्षेत्र में ही पाया जाता है), इनमें से कुछ को स्मृति चिन्ह के रूप में दरबाजों पर टांगा भी जाता है। होलिका प्राय: चौराहे पर दहन की जाती है जहां कि मातिृकाओं के निवास स्थान हैं (चतुष्पथ निकेतना, चतुष्पथरता) और किसी मातिृका होलिका को जिन्दा जलाये जाने की कथा उसके साथ सम्बध्द है। भारतीयता की सहिष्णुता की भूरि भूरि प्रसंशा की जाती है लेकिन उसकी निर्दयता एक जिन्दा जलाई गई स्त्री की चिता पर खुशी मनाने और उस चिता की आग पर अन्न भूनकर आपस में बाँटने में देखी जा सकती है। लेकिन स्त्रियां इससे अलग ढाल, गोलरी और बैलगाड़ीनुमा आकृतियों से निर्मित ढ़ेर को (जिसे घुलघुली कहा जाता है) जलाती हैं। दूसरा यह कि यह एक मात्र ऐसा अवसर होता है जब राधाओं से सम्बन्धित माने जाने वाले क्षेत्रों में स्त्रियां लाठियों द्वारा पुरुषों पर प्रहार करती हैं अन्तत: पुरुषों को भागना पड़ता है। इस अवसर पर लाठियां और ढ़ाल दो ही अस्त्रों का प्रयोग होता है और एक ढ़ालनुमा कलातथ्य जिसे ढाल कहा जाता है, को हम जलाये जाते हुए भी देखते हैं। बहुत सम्भव है कि ये कलातथ्य किसी ऐेसे संघर्ष की स्मृतियां हैं जिसे स्त्रियों ने जीता था और यह बरसाने की लठामार होली उसी का नाटय अवशेष है। जिन लोगों को इन राधाओं ने अपने स्वत्व की लड़ाई में परास्त किया वे बैल गाड़ियों से आये थे, जिन्होनें सिर पर मुढ़ीसा या मुढ़ासा बांधा हुआ था जिनका उद्देश्य स्त्रियों को मारना नहीं था क्योंकि बचाव के लिए ढ़ाल पाया जाता है मारने के लिए कोई हथियार नहीं। ये स्त्रियों पर कब्जा करना चाहते थे। अपनी जीत की खुशी में स्त्रियों ने इनके छीने हुए अथवा भागते समय छूट गये अस्त्र शस्त्रों को इकट्ठा कर जलाया होगा। बरसाने की लठामार होली में ‘कृष्णों के पीताम्बर’ छीन लेना, उनका भागना और फिर लौटने के चुनौती देते जाना देखा जा सकता है और स्त्रियों द्वारा फिर न आने की चेतावनी देना। ये सब तथ्य उस इतिहास कथा के ही अवशेष मालूम पड़ते हैं। ब्रज के गाँव गाँव में यह लठामार प्रचलित रही है। पुरुष स्त्रियों की देह पर अधिकार करने की इच्छाओं को खुले तौर पर प्रकट करते हैं और स्त्रियां लाठियों से इसका प्रतिरोध करते हैं। दूसरे यह कि ऐसा अपनी स्त्रियों के साथ(जो कभी स्वकीया का रूप था) नहीं दूसरों की स्त्रियों (जो कभी परकीया के रूप में जानी जाती होगीं) के साथ होता है। हम इस पूरे सन्दर्भ से जो बात सामने लाना चाहते हैं वह यह कि वैदिक राधाओं का व्यक्तित्व कहीं भी इस तरह की नहीं पाया जाता कि जिसमें वे मजबूर दिखें वे प्राय: मित्रवत सम्बन्धों में जीती हैं। इतिहास के प्रवाह में कृष्णों का बढ़ता प्रभुत्व राधाओं के साथ जोर जबरदस्ती, राधाओं से देह के अधिकार को छीनने की कहानी कहता है जिसका वे यथा सम्भव प्रतिरोध भी करती हैं। अष्टाध्यायी की रचना करते समय पाणिनी ने एक सूत्र निर्मित किया ‘राधो हिंसायाम्’। इसका वैयाकरणिक महत्व जो भी हो पर इस सूत्र की निर्मित के पीछे जो सामाजिक प्रक्रिया कार्य कर रही है वह यह बताती है कि राधाओं और हिंसा के ऐतिहासिक सम्बन्ध का अनुभव पितृपक्षीय शास्त्र रचना में विभाव की भूमिका में दिख रहा है। हिंसा और हनन अलग अलग कृत्य हैं। हनन जान से मारने का द्योतक है जबकि ंहिंसा शारीरिक आघात तक सीमित है। राधाओं के साथ हनन को नहीं हिंसा को जोड़ा गया है और उक्त पूरा घटना व्यापार इस बात को साबित करता है कि राधायें लाठी का प्रयोग जान से मारने के लिए नहीं बल्कि आत्म सम्मान और आत्मरक्षा के लिए ही करती रही है।
भक्तियुग में राधा के विकास में निम्बकाचार्य और वल्लभाचार्य का विशेष योगदान है लेकिन साहित्य में राधा के प्रभाव वाली रचनायें वल्लभ सम्प्रदाय का ही परिणाम रही खासकर अष्टछाप का। वल्लभाचार्य भी उसी दक्षिण भारत से आते हैं जहाँ भागवत पुराण की रचना हुई मानी जाती है। उस दक्षिण में कहीं भी राधा की आराधना नहीं पायी जाती। उत्तर भारत में भी राधा का बारहवीं सदी से पुराना कोई ऐसा रूप नहीं मिलता जहाँ वह पूजनीय हों। भक्ति को रस के रूप में स्वीकार किये जाने की परिघटना रूप गोस्वामी जीवगोस्वामी के समय की ही है साथ ही नायिका भेद की विषद व्याख्या में भी उज्ज्वलनीलमणि का महत्वपूर्ण योगदान है। राघवन तो अकब्बरशाह की श्रंगार मंजरी (तेलगू में रचित) को नायिका भेद के सम्बन्ध में अधिक प्रभावकारी मानते हैं। अर्थात हिन्दी में नायिका भेद के ये दो स्रोत हैं जो एक बंगाल से आता है दूसरा दक्षिण भारत से और ये कुल मिलाकर 360 तरह की नायिकायें यौन चेष्टाओं के आधार पर ब्याख्यायित करते दिखते हैं। दोनों ही भक्त हैं और नायिका भेद के पुजारी भी। (भक्ति के आधार में भक्तों के बीच भेदों का संहार प्रमुख है जबकि नायिका भेद चेष्टा मात्र के आधार पर भेदों की झड़ी लगा देता है।) उज्ज्वलनीलमणि के तो नायिका भेद सम्बन्धी विवेचन का आधार ही राधा हैं। वल्लभाचार्य दो नई बातें सामने लाते हैं- बाल कृष्ण की आराधना और राधा का विकास। यह बड़ी गम्भीर बात है कि वात्सल्य और श्रंगार को मिलाकर भक्ति दर्शन की जो संरचना तैयार की गई वह किस सामाजिक माँग अथवा आध्यात्मिक माँग का परिणाम है और यह भी कि ब्रज की जनता ने इसे स्वीकार करने में अरुचि दिखाई और कई बार विरोध भी किया, यह क्या सन्देश देता है? कम से कम जनता की मांग और इस भक्ति योजना में तालमेल नहीं था। वात्सल्य प्रेम का उद्धाटन तब तो समझ में आता कि वात्सल्य की सामाजिक इच्छा को बल मिलता पर यहां पूरी की पूरी श्रंगारिकता बंजर है। इस श्रंगार (प्रेम) का सृजन से कोई रिस्ता नहीं। रोमिला थापर लिखतीं है कि ”लोकप्रिय स्तर पर कृष्ण और उसकी प्रिय गोपी राधा की उपासना इस विचार से की जाती थी कि उनकी उपासना से जनन क्षमता बढ़ सकती है। इस जनन क्षमता सम्प्रदाय को एक परिष्कृत रूप तब मिला जब कृष्ण के लिए राधा के प्रेम की व्याख्या इस रूप में की गई कि उनका यह प्रेम आत्मा का परमात्मा से मिलने का ही एक रूप था।” मातृत्व(जनन क्षमता) के लिए उपासना उसको करनी है जिसे मां बनना हो, सांस्कृतिक तथ्य बताते हैं कि मातृत्व के लिए अधिकतर उपासनायें मातिृकाओं की जाती रही है। युगल उपासना में जनन क्षमता के बजाय पुत्र प्राप्ति की आकांक्षायें भले ही पायी जाती हों। इसे जनन क्षमता के लिए उपासना कहा जाना किसी भी माइने में सही नहीं ठहरता। भक्तियुग की उपासना का उद्देश्य तो भक्ति मात्र है, श्रंगार का ध्येय श्रंगार भर। भक्त भगवान के लिए है। नायिका नायक के लिए। भले ही कृष्ण को करोड़ों कामदेवों को परास्त करने वाला माना गया, और राधा को रति से भी सौन्दर्यमयी माना गया, पर आमजन में इनकी उपासना का यह सन्दर्भ शायद ही कभी कारण बना। वैसे यह भी माना जाता है कि उपासना के क्षेत्र में (कम से कम ब्रज क्षेत्र में)राधा और श्रंगार का समावेश विटठलनाथ की देन है। बारहवीं सदी के बाद के कृष्ण भक्ति के तीनों प्रमुख आचार्यों में से मध्व के सम्प्रदाय में राधा नहीं है, निम्बकाचार्य और विष्णुस्वामी ने राधा को स्थान दिया पर सीमित। जयदेव और विद्यापति की परम्परा के गीतों को चैतन्य ने जब कीर्तन और भक्ति का विषय बनाया तभी से राधा उपासना का मुख्य विषय बनी। ब्रज भाषा की कृष्ण भक्ति परम्परा को राधा से अवगत कराने वाले विटठलनाथ द्वारा अपने सात पुत्रों के लिये सात गद्दियों का निर्माण यह बताता है कि इन्होंने धर्म के क्षेत्र में जो मनसबदारी आरम्भ की उससे और इनके अन्य क्रियाकलापों से वल्लभचार्य का कोई विरोध तो नहीं ही था। साहित्यिक और ऐतिहासिक स्रोतों में उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह आसानी से कहा जा सकता है कि भक्ति युग में पैदा हुए इस वात्सल्य और श्रंगार के योग से निर्मित इस भक्ति दर्शन में तत्कालीन सत्तावान वर्ग की जीवन पध्दति की गहरी छाया है। कृष्ण के वात्सल्य, बाल लीला और बाल पराक्रम में उस समय के कम उम्र में बनने वाले राजा, उनके जीवनयापन की महिमा और उनके द्वारा अपने पराक्रम क बल पर जीती जाने वाली जंगों की छवि साफ देखी जा सकती है जिससे तत्कालीन सत्तावर्ग में चल रहे प्रसंगों को न्यायपूर्ण ठहराया जाता है तो दूसरी तरफ राजवर्ग के अन्त:पुरों में स्त्रियों के साथ इस बालक राजा द्वारा किये जा रहे सभी प्रकार के क्रियाकलापों को मान्यता मिलती है। दर्शन को इस रूप में सामने लाकर वे शासक वर्ग के सब सहयोंगों के पात्र हो गये और कृष्ण भक्ति परम्परा यदि कालान्तर में राजाश्रयी हो पायी तो उसके लिए भी यह दर्शन ही जिम्मेदार रहा। हिन्दी साहित्य के बृहद् इतिहास भाग 5 के रचनाकारों ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि ”बल्लभ सम्प्रदाय और राधाबल्लभ सम्प्रदायों की सेवा पूजा पध्दति में चर्या बाहुल्य देखकर कुछ विद्वानों को उसके ऊपर मुगलकालीन विलास वैभव का भ्रम हुआ था। यर्थाथ में पांचरात्र संहिताओं के चर्या भाग में इन विधियों की प्रचुरता के साथ वर्णन हुआ था और परवर्तीकाल में विस्तार प्राप्त हुआ।” कालान्तर में यह भी कहा जा सके कि मुगलों में जो चर्या बाहुल्य है उस पर पांचरात्र संहिताओं का प्रभाव है तो कोई आश्चर्य नहीं होगा? अनुवंशिकी भले ही पीढ़ी अन्तरालों में पैदा हो सकने वाले लक्षणों का अनुसंधान करने पर जोर देती हो पर समाज विज्ञानों में ऐसी परिकल्पना अभी तक लागू नहीं है वहां पारस्थितिकी, परिस्थिति और परम्पराओं के सीधे सम्पर्क अधिक महत्वपूर्ण हैं। वैसे भी पांचरात्र संहिताओं में राधा कहीं नहीं है। ज्ञानामृत सागर संहिता नामक एक समय संदिग्ध रचना है जिसके द्वारा बाद में पांचरात्र परम्परा में राधा को शामिल करने का प्रयास किया गया है।
वल्लभाचार्य और कृष्ण भक्ति शाखा ने अपने दर्शन और विचारों के जरिये एक ऐसा कल्पनालोक खड़ा करने का प्रयास किया जिसमें वे अपने सपनों की दुनिया को साकार होता देख सकें।वृन्दावन को उस लोक का कर्म क्षेत्र चुना गया और तत्कालीन केन्द्रीय सत्ता को सन्दर्भ बिन्दु। कृष्ण के इर्द गिर्द निर्मित इस दुनिया में मातृत्व सबसे निचले स्तर का कर्म है और वात्सल्य भक्ति सबसे निचले स्तर की भक्ति। परकीया प्रेम भक्ति के उच्चतम स्वरूप का परिचायक है और राधाभाव भक्ति के सर्वश्रेष्ठ रूप का उदाहरण। यदि तत्कालीन संस्कृति से इसकी तुलना की जाय तो बड़ी गहरी समानतायें देखने को मिलती हैं। हमारा सवाल यह है कि इसमें स्त्री की हालत क्या थी। यही हालत राधा आदि के जरिये बयान होती है। यहां राधा स्त्री के व्यक्तित्व-अवमूल्यन की जीवित प्रतिमा है। गीतगोविन्द की राधा को कृष्ण के साथ मान करने का अधिकार है चाहे वह कम समय के लिये ही सही। कृष्ण राधा के क्रोध की परवाह करता है। विद्यापति में राधा छोटी(कम उम्र की) होकर भी ‘दुर्जय मानिनी मान तोहार’ की स्थिति रखती। लेकिन कृष्ण भक्ति परम्परा उसके व्यक्तित्व से वे सारे लक्षण छीन लेती है जो कम से कम उसके व्यक्ति के होने के संकेत तो देते थे। महाभाव की परिकल्पना प्रेमिका के उस आदर्श को निर्मित करती है जिसमें स्त्री स्वयं को इच्छा मुक्त कर ले। इस इच्छा मुक्तता के परिणामों को इस बात में देखना चाहिए कि विकास के आधुनिक दर्शनों में इच्छा को ही विकास की रीढ़ के रूप में देखा गया है और यह महाभाव है कि स्त्री से उसकी इच्छा छीन कर उसके हिस्से के विकास की सम्भावनाओं पर ही विराम लगाने का प्रयास करता है। उसके वस्तु बनने में ही उसकी इयत्ता निश्चित करता है। कृष्ण भक्ति परम्परा के लोक जागरण की यह कैसी भूमिका है जो स्त्री से उसकी आत्मा ही छीने ले रही थी?
वल्लभ सम्प्रदाय ने अपनी भक्ति निर्वाह के लिए जो संरचना तैयार की वह न केवल बहुवल्लभीवाद की समर्थक थी बल्कि कहीं से भी ब्रज की लोक संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। सांस्कृतिक संकुल में मातिृकाओं की पूजा और सामाजिक संरचना में माँ के महत्व देने वाली संस्कृति के समक्ष यह सम्प्रदाय वात्सल्य और श्रंगार को लेकर आया। कम से कम इससे यह साफ तौर पर जाहिर होता है कि इनका उद्देश्य अपनी भक्ति के माध्यम से ब्रज की लोक संस्कृति से ताल मेल बिठाना नहीं था और बिठा भी नही पाये। तत्कालीन सत्ता की संरचना अवश्य ही इस प्रकार की थी कि वल्लभ सम्प्रदाय की साधना संरचना उससे मेलखाती थी। यदि वल्लभ सम्प्रदाय के पूरे यूटोपिया को ध्यान से देखा जाय तो आगरा की सत्ता के समानान्तर वृन्दावन, रत्नजड़ित पूरा का पूरा तामझाम। हरम की तर्ज पर हजारों स्त्रियां। बादशाह की जीवन प्रक्रिया के टक्कर की अष्टयाम सेवा। झरोखा दर्शन के तरह के मन्दिरों के पट खुलना बन्द होना। सब कुछ और उससे इक्कीस। मेरे विचार से वल्लभ सम्प्रदाय ने राधा कृष्ण की आराधना का जो स्वरूप निर्धारित किया उसके पीछे इस धर्मसत्ता की स्थापना को देखा जाना चाहिए, जो कम से कम तत्कालीन राजसत्ता के साथ सहयोगी भूमिका से ही खड़ा हो सकती थी। यह भी कि बाद में यदि शासकों ने इस तरह की भक्ति को अपनाया तो उसका कारण यही था। तत्कालीन राजसत्ता ने स्त्री को परकीया रूप में ही अधिक महत्व दिया। यदि वल्लभ सम्प्रदाय और कृष्ण भक्ति परम्परा परकीयत्व को अस्वीकार करती तो यह राजसत्ता से सीधे सीधे टकराहट होती। हालांकि परकीयत्व पर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने व्यापक फलक पर लिखते हुए यह दिखाया है कि ”भारतवर्ष में परकीया प्रेम बहुत पुराने जमाने से एक खास सम्प्रदाय का धर्म सा था।” लेकिन वे इसे धर्म सा से अधिक नहीं कह पाते हैं साथ ही जिन आधारों पर वे इसे साबित करते हैं उनका सम्बन्ध ब्रज क्षेत्र और ब्रज संस्कृति से नहीं है। इसलिये जो यह तर्क दिया जाता है कि कृष्ण भक्तों ने प्रति संस्कृति खड़ी की या जनता के मुरझाये मनों को हरा करने लिए(आचार्य शुकल) इस तरह की भक्ति का ढांचा खड़ा किया तो इस तर्क में कोई दम नहीं है।
साहित्य में राधा को निर्मित करने का सन्दर्भ बहुत विस्तृत फलक घेरता है। बारहवीं सदी से उन्नीसवीं सदी तक राधा को बार बार रचा गया है। जयदेव से लेकर हरिऔध तक राधा के विविध रूप रचे गये हैं। लेकिन राधा की भक्तिकालीन और रीतिकालीन संरचनायें ही अपने प्रभाव को व्यापक बना पायीं। भक्ति काव्य और रीति काव्य की राधा में एक सातत्य पाया जाता है। रीतिकाव्य के रचनाकारों ने स्वयं ही कह दिया कि ‘आगे के सुकवि रीझिहैं तो कविताई न तो राधा कन्हाई सुमिरन को बहानौं है।’ जो राधा कन्हाई सुमिरन भक्ति काव्य में था वही यहाँ भी है। जिस तरह रीति काव्य में राधा कन्हाई सुमिरन काव्य का एक मात्र लक्ष्य नहीं है उसी तरह भक्ति काव्य में भी राधा का वर्णन मात्र लक्ष्य नहीं है। इस लक्ष्य की विवेचना होनी चाहिए। लोक में कभी भी बल्लभ सम्प्रदाय और पुष्टि मार्ग सराहा नहीं गया। ब्रज में आज भी पुष्टि बनाना जिन अर्थों में प्रयुक्त होता है वह इन सम्प्रदायियों की लोक में जो छवि थी उसे ही व्यक्त करता है। पुष्टि बनाना सेहत बनाने के लिए प्रयोग में लाया जाता है, और पोष्टी (पुष्टि मार्ग पर चलने वाले ) उनको कहते हैं जो निकम्मे रहकर खाते पीते और अपनी सेहत को मजबूत करते चले जाते हैं। दूसरी बात कि राधा सम्बन्धी कोई पूजा पाठ या सांस्कारिक तथ्य ब्रज के लोक में नहीं पाया जाता है। यहां तक कि राधाष्ठमी के अवसर पर बरसाने में लगने वाले मेले आदि का आयोजन भी बहुत बाद की देन है। तीसरी बात कि ब्रज के गीत राधा के बहाने ब्रज की स्त्री के दु:ख दर्द को व्यक्त करते हैं। ‘वंशी बारे ने घेर लई, अकेली पनियां गई।’ पितृपक्षीय छल कपट और स्त्री की करुणा को बहुत बार इन गीतों ने व्यक्त किया। चौथी बात यदि कृष्ण भक्त कवियित्रियों की रचनाओं को सरसरी तौर से भी देखा जाय तो यह पाते हैं कि ”कैसे जल लाऊँ मैं पनघट जाऊँ/होरी खेलत नन्द लाड़िलो क्यों कर निबहन पाऊँ/वे तो निलज फाग मदमाते हौं कुल बधू कहाऊँ/ जो छुवें अंचल रसिक बिहारी धरती फारि समाऊँ।(बनीठनी)। न तो पानी भरे बिना निस्तार है और न ही पनघट की घटनाओं का विरोध करने की क्षमता। भयानक संकट। धरती में समाने के अलावा क्या विकल्प है? पुष्टि मार्गियों और अन्य कृष्ण भक्ति सम्प्रदायों की वैचारिक संरचना इन स्त्रियों की भाव संवेदना से कम से कम उस स्तर तक मेल नहीं खाती जहां कृष्ण विलास शक्ति के अवतार होते हैं और ऐसा करके वे लोक मन में अनिवार्य भय का संचार बनते हैं। ब्रज मानस को समझना हो तो उक्त पहलुओं को ध्यान में रखना होगा उसके बाद ही ब्रज में विकसित भक्तिधारा और उसमें राधा की भूमिका या कृष्ण भक्ति के लक्ष्य के बारे में बात सम्भव है।
एक तर्क प्राय: आलोचक देते देखे जाते हैं कि यह सब वल्लभाचार्य, उनके अनुयायियों तथा कृष्ण भक्ति सम्प्रदायियों का भक्ति दर्शन है और सब कुछ भाव प्रधान है, वास्तविक जीवन से इसका कोई लेना देना नहीं है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भी बार बार यह दुहाई देते हैं कि इस सब पर लौकिक विचार मत करना। ऐसा करके कुछ हाथ नहीं लगेगा। यह भाव जिस विभाव से सम्बध्द है वह स्त्री के लिए समाज में कौन सा स्थान निर्मित करता है? यह भाव संश्लिष्ट सम्प्रेषण प्रक्रिया द्वारा आदर्श हमारे सांस्कृतिक विवेक का निर्माण करता है। रीति काव्य में स्त्री को जो स्थान मिला क्या वह इसी भाव की परिणाम नहीं है? डॉ.देवीशंकर अवस्थी लिखते हैं कि ‘भारतीय परिवार का नैतिक आदर्श बहुबल्लभवादी नहीं है, मनोविज्ञान की दृष्टि से प्रेम की परम निष्ठा एक के ही प्रति हो सकती है।’ यह तर्क वे राधा को सर्वश्रेष्ठ भक्त मानने के सन्दर्भ में देते हैं। स्त्री के लिए परम निष्ठा और पुरुष के लिए परम अनिष्ठा, यह कैसा प्रेम का नैतिक आदर्श है? बहुबल्लभीवाद को राधा की तरह स्वीकार करते चले जाने में स्त्री की महानता को स्वीकार करते चले जाने को ही मेरे विचार से पितृपक्षीय रवैया कहते हैं। वे राधा के सन्दर्भ को लेकर भक्ति काव्य की भूमिका के बारे में कहते है कि ‘किसान की लड़की दासी से उठकर सामन्त या बादशाह की प्रेमिका बन जाय यह बड़ी उपलब्धि है।’ कैसी उपलब्धि है जबकि सामन्त या बादशाह का अन्त:पुर वा हरम पहले से ही ऐसी ही हजारों प्रेमिकाओं से भरा पड़ा हो ? क्या पाया आखिर उस किसान बालिका ने? अपने व्यक्तित्व का सम्पूर्ण परित्याग।
राधा को काव्य में व्यापक फलक पर स्थान देने वाले जयदेव उसे ऐसी स्त्री के रूप मंआ सामने लाते हैं जो सामन्ती विलासिताओं की शिकार है। साहित्य और साहित्यशास्त्र में विरह को जिस तरह महत्व दिया गया वह अपने आप में स्त्री के प्रति क्रूरताओं के बढ़ते ग्राफ को दिखाता है। विरह में भी मान का पहलू इस दृष्टि से और भी विचारणीय है जो स्त्री की हैसियत दो टके की साबित कर देता है। विरह पर विचार करना यहां इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि राधा का साहित्य में पदापर्ण जिस भाव में हुआ वह विरह ही है। राधा चिर विरहिणी है। डॉ नित्यानन्द तिवारी रीतिकाव्य के अध्ययन के सम्बन्ध में यह बात प्रस्तावित करते हैं कि रीति काव्य में कुछ पढ़े जाने योग्य है तो वह खण्डिता की स्थिति है, उसका दु:ख है। खण्डिता विरहिणी का ही एक रूप है। विरह के शास्त्रीय कारणों में से यदि मरण को निकाल दिया जाय तो शेष सभी कारण पुरुष द्वारा स्त्री की इच्छा पर प्रश्नवाचक और कई बार खड़ी पाई लगा देने का परिणाम है। क्यों और नहीं मध्ययुग में सत्तावान के दण्ड से निकलने वाले वे शब्द हैं जिन्होंने राधा के व्यक्तित्व को निगलने में कुछ उठा नहीं छोड़ा। क्या इस पर विचार नहीं होना चाहिए कि आखिर विरह वर्णन की परम्परा ने स्त्री को रीति साहित्य की राधा जैसे दायरे में कैसे समेट दिया? विरह और विरह तन्त्र(विरह शास्त्र) दो अलग अलग बातें हैं। विरह में स्त्री या पुरुष की करुणा के सामाजिक ऐतिहासिक कारण्ा और मानवीय पहलू हमेशा उपस्थित हैं जबकि विरह तन्त्र प्रायोजित तौर पर स्त्री को विरह का अनुभव कराकर अपने आपको गौरवान्वित समझता है। विरह तन्त्र का प्रायोजित विरह एक ऐसी वीभत्स स्थिति की कामना करता है जिसमें स्त्री के दु:ख और करुणा के भीतर से आनन्द की सृष्टि वह अपने लिये कर लेता है। इस विरह तन्त्र का आधार मात्र और मात्र यौनता आधारित मानसिक उत्पीड़न ही देखने में आया है। राधा के रूप में स्त्रीत्व के अनुभव के मानमर्दन का ऐसा उत्सव विरह तन्त्र ही दे सकता था।
राधा का चरित्र वर्णन करते समय हिन्दी आलोचकों ने कुछ खास मुद्रायें अख्तियार की। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल राधा को इस लायक भी नहीं समझते कि राधा पर दो लाइन अलग से लिख सकें हां वे राधाकृष्ण के सम्बन्ध को ‘रंगरहस्य और प्रेमसंगीतमय गहरी धारा’ अवश्य कहते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि सूर का काव्य जीवनोत्सव का काव्य है। यह कैसा जीवनोत्सव है कि एक बालक एक युवती की नीबी में हाथ डाल देने में कोई संकोच या दबाव महसूस नहीं करता और एक स्त्री इतनी अक्षम दिखने लगती है कि उसमें एक बालक को रोकने की क्षमता नहीं है? एक तरफ सूफी दर्शन सल्तनत में पनप रही विलासिता का विरोध कर रहा है दूसरी तरफ ज्ञानमार्गी धारा ब्रह्म को जमीन पर उतार लाने को बेताब है वहीं इन पितृपक्षीय विलासिताओं को जीवनोत्सव कहा जाना कैसे सम्भव है? आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी राधा के वर्णन में भाव प्रवाह में निरन्तर कहते जाते हैं ‘सूरदास की राधा कई अवस्थाओं में पायी जाती है। उनका बालरूप भी वर्णित है, किशोरी और तरुणी रूप भी।…..उन्होंने राधा का एक सम्पूर्ण चित्र दिया है।…..महाभाव केवल राधा में ही सम्भव है।’ वे लिखते हैं ”सूरदास की यह सृष्टि अद्वितीय है। विश्वसाहित्य में ऐसी प्रेमिका नहीं है-नहीं है।” यह प्रेम कैसा है जिसकी प्रशंसा वे कर रहे हैं उन्हीं के कुछ वाक्याशों में देख सकते हैं। विद्यापति की राधा ईषददि्भन्नयौवना हैं, जयदेव की राधा पूर्णविलासवती, प्रगल्भा और चण्डीदास की राधा उन्मादमयी, मोम की पुतली। …..सूरदास की राधा तीन लोक से न्यारीसृष्टि है- अपूर्व अद्भुत और विचित्र। विलासिनी नहीं है। परकीया नहीं है। स्वर्गीय प्रेम है, वासना से रहित निर्मल विशुध्द।इस प्रेम में चिन्ता नहीं है, आशंका नहीं, भीति नहीं। सूरदास की राधा मानिनी है दारुण मानिनी। पर उध्दव के आने पर उस बरसाने की चोरटी ने कुछ नहीं कहा। वह दो कदम आगे न बढ़ सकी। आचार्य द्विवेदी राधा के इस विवेचन में सूरदास पर पहुँचते ही धार्मिक भीति से घिर जाते हैं और राधा के व्यक्तित्व की महिमा इस बात में खोजने लगते हैं कि उसने पितृपक्षीय आकांक्षाओं के अनुकूल किस सीमा तक अपने को, अपनी इच्छाओं को, अपनी आवश्यकताओं को और सम्पूर्णत: अपने होने को मिटाया। हालांकि ये सब बातें विद्यापति, जयदेव और चण्डीदास में भी इसी आकांक्षा से निर्धारित हैं, उसका व्यक्तित्व कृष्ण की सामन्ती इच्छाओं के आगे निरीह और वेबस होता दिखता है पर इस निरीहता और बेबसी का दु:ख राधा में है लेकिन सूरदास की राधा में यह दु:ख भी नहीं है। वह भावहीन निर्जीव सत्ता के रूप में सामने आती है। सवाल यह है कि क्या सूरदास राधा को ऐसी बनाते हैं अथवा द्विवेदी जी इसका महिमामण्डन करके उसे ऐसा बना देते हैं। एक प्रसंग की चर्चा यहाँ इस सवाल का जबाब देगी। सूरदास ने उध्दव प्रसंग में लिखा कि ”जब संदेसा कहन सुन्दरि गवन मौं तनि कीनि।/खसी मुद्रा चरन अरुझी गिरी भुवि बलहीन।/कंठ बचन न बोलि आवै हृदय परिहस भीन।/नैन जल भरि रोइ दीनों ग्रसित आपद दीन।/उठी बहुरि सम्हारि भट ज्यों परम साहस कीनि।” द्विवेदी जी पाठ करते हैं कि राधा परम मानिनी है। इतनी दृढ़ मानिनी कि मान के कारण दो कदम आगे न बढ़ सकी। यही वह दृष्टि है जो स्त्री के दु:ख और व्यक्तित्व का शास्त्रीय प्रतिमानों के दबाव में अवमूल्यन कर डालती है। सूरदास जिस रूप का वर्णन करते हैं उसमें राधा जमीन पर गिरती है, बोल नहीं निकलते, ऑंसुओं से रोने लगती है और परम योध्दा के बराबर साहस करने के बावजूद उठ नहीं पाती। इसमें कौन सा मान है? राधा किस तरफ से मानिनी लग रही है?
मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं कि ”सूर की राधा की सहज अनुरक्ति, स्वच्छन्द प्रकृति, अदम्य जीवनशक्ति, तथा अनुपम सौंदर्य मूर्ति में मनस्विनी प्रेयसी और असीम आत्मशक्ति सम्पन्न वियोगिनी का जो उदात्त संयोग हुआ है, उससे उनका चरित्र लौकिक होकर भी लोकोत्तर बन गया है।” पाण्डेय जी जिन उपमानों का प्रयोग राधा के चरित्र को व्यक्त करने में करते हैं वे सबके सब राधा के चरित्र को ऐसा बनाते हैं जैसी वह है ही नहीं। सहज अनुरक्ति-जबकि मैंने ऊपर दिखाया है कि वह सामन्ती इच्छाओ के आगे कितनी बेबस है, स्वच्छन्द प्रकृति-जबकि राधा परम एकनिष्ठ है(हाँ ऐसा कहने से कृष्ण के चरित्र की स्वच्छन्दता पर अवश्य कुछ पर्दा पड़ता है), अदम्य जीवनशक्ति-स्त्रियों की विवशता को यही नाम दिया जाता रहा है, अनुपम सौन्दर्य मूर्ति- सूरदास की सभी गोपिकायें दैहिक सौन्दर्य में एक ही टक्कर की हैं। लेकिन पाण्डेय जी का सौन्दर्य प्रतिमान इस बात से बनता है कि ”कामिनी के कमनीय सौन्दर्य की सफलता प्रिय को सुखद और प्रिय लगने में ही है।…..रति केलि प्रेमसाधना की सिध्दि है, चरम उत्कर्ष है।” यही तो सम्भवत: रीतिकालीन कविता का 1.कृष्ण की बाल सखी- सम प्रेम है दोनों के मन इस प्रेम यात्रा में सहयोगी हैं। जबकि सूरदास राधा को सामने लाते हैं ‘खेलत हरि निकसे ब्रजखोरी/ कटि कछनी पीताम्बर बाँधे हाथ लये भौरां चक डोरी।’कछनी और चक भौंरी बताते हैं कि उम्र अधिक नहीं है, लड़कपन है। ऐसे में राधा दिखाई देती है ‘नैन बिसाल भाल दिए रोरी/नील वसन फरिया कटि पहिरे, बेनी पीठि रुलति झकझोरी।’ राधा की उम्र कृष्ण से इतनी अधिक है कि नन्द उसे कृष्ण का उत्तरदायित्व सौंपते हैं और कृष्ण है कि राधा की नीबी में हाथ डाल देता है। ऐसे क्षणों में कृष्ण ‘जदुराइ’ की उपमा धारण करते हैं। कृष्ण का यह कर्म निश्चित रूप से तत्कालीन सामंती सम्प्रभुता की उच्छ्रखंलता को बयान करता है। इससे अगले पद में कथा का अगला चरण ‘तुव परस तन ताप मेंटौं, काम द्वन्द्व गवाँइ’ तन ताप मिटाने के प्रस्ताव के साथ कृष्ण एक सांस्कृतिक सामाजिक सन्दर्भ को सामने ला रहे हैं जिसमें स्त्रियों के प्रति दमनात्मक रवैया साफ पता चलता है। इसमें कैसा सम प्रेम और कैसा सहयोग? ब्रज की ग्रामीण क्षेत्र में आज भी प्रभुत्व सम्पन्न परिवारों के सभी उम्र के पुरुष प्रभुत्वहीन (आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक किसी भी रूप में) परिवारों की स्त्रियों के साथ कुछ इसी तरह के सम्बन्ध रखते हैं। क्या इसे भी समप्रेम का नाम देना होगा? पाण्डेय जी ने राधा को प्रेममयी युवती, रासेश्वरी, रसेश्वरी, सर्वेश्वरी, स्वकीया, कामिनी, रसनागरी, रति रस निमग्ना, रतिसिध्दा, मानिनी, परम वियोगिनी, पराशक्ति विशेषणों में बाँधते हैं फिर राधा की कथा के समापन में पाण्डेय जी लिखते हैं कि ”भक्तिकाल का उदात्त आत्मवाद रीतिकाल के मोहक देहवाद में परिवर्तित हो गया था। कवि तन द्युति के तीव्र आलोक से ही चमत्कृत हो गया, कामिनी की कामकला पर ही लुब्ध और मुग्ध हुआ।” उदात्त आत्मवाद का अर्थ सामाजिक सरोकारों से परे खोजा जाय जब तो ठीक है अन्यथा पाण्डेय जी की यह टिप्पणी उनकी राधा सम्बन्धी उक्त विवेचन से तालमेल नहीं बिठा पाती है। यही वह समस्या है जिसकी ओर मैं विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करना चाहती हूँ कि मध्य युगीन साहित्य के स्त्री सन्दर्भों की पहचान में आधुनिक हिन्दी आलोचना का रवैया रीति साहित्य के प्रतिमानों से बहुत प्रभावित रहा है। इसका उदाहरण राधा सम्बन्धी विवेचन हैं जिसमें राधा के दु:ख को तो भक्त की करुण पुकार (अनुरक्ति और भक्ति की चरम परिण्ाति है) कह दिया गया और दैहिक क्रिया कलापों के विवरणात्मक आनन्द पूर्ण चित्र बनाये गये।
आधुनिक हिन्दी आलोचना में कृष्ण भक्ति और राधा सम्बन्धी अध्ययन बड़ी भारी संख्या में हुए है। इन सभी अध्ययनों में सामान्य रूप में राधा को भक्त और भक्ति के दायरे में ही देखा गया है। ये सभी प्रकारान्तर से राधा के व्यक्तित्व के अवमूल्यन के हिमायती ही हैं। राधा के रूप में आदर्श भक्त की परिकल्पना सब के केन्द्र में बनी रही है। साहित्य को सामाजिक अध्ययनों के नजदीक ले जाने वाले अध्ययनों से यह आशा थी कि वे इस परिकल्पना से अलग रवैया अख्तियार करेंगे तो उनका पक्ष भी हम ऊपर देख चुके हैं। राधा का विकास पितृपक्षीय सरोकारों की एक ऐतिहासिक आवश्यकता जैसी लगती है जिसके बिना वे स्त्री का उपयोग अपनी सत्ता और वर्चस्व को बनाये रखने के लिए शायद नहीं कर पाते। वस्तुकृत स्त्री (राधा) का रीतिकालीन उपयोग यह बताता है कि ऐसी सत्ता और वर्चस्व अपने आप में बंजर और अल्पजीवी ही हो सकते हैं।